दुख तो अपना सगा-सगा सा भाई है
कठिनाई अपनी ही तो परछाँई है।
इसके होने से ही हम भी होते हैं
पाकर भी सारा कुछ ऐसे खोते हैं
जैसे मेरी रही न कभी कमाई है।
जो बुनकर आए थे सस्ते काट रहे
फिर भी जो है उसको कहीं न बाँट रहे
यही बचे जीवन की भी सच्चाई है।
सदेहों मे डूबा रहा हमारा मन
और शून्य से टकरा रहा दुलारा तन
खुली खुली आँखों में प्रीत समाई है।
रामकृष्ण
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