सुशीला अपने माता पिता की पांचवी संतान थी । दो बड़े भाई और दो बड़ी दीदियाँ थी। जिस दिन पैदा हुई उस दिन शनिवार था । लेकिन उसी दिन उसके बाप को सुपरवाइजर रैंक में प्रोन्नति मिली । भाइयों और दीदियों ने उस नवजात को शनिचरी कहना शुरू कर दिया । हेगे शनिचरी । लेकिन जब पिता प्रोमोशन लेकर घर लौटे तो उन्हें बच्चों का सम्बोधन प्रीतिकर नहीं लगा । पिता ने अपने सभी बच्चों को बुलाकर उस गोरी गोरी बिटिया का नाम सुशीला रख दिया था ।तब से सभी सुशीला ही पुकारने लगे । लेकिन सुशीला की माँ को धीरे धीरे यह एहसास होने लगा कि नाम पुकारने पर भी वह सुनती नहीं है। किसी ने नजर दोष बताया किसी ने डॉक्टर को दिखाने की सलाह दे दी। लेकिन पिता ने इस सुलक्षणा सुशीला के लिए कुछ दिन इंतज़ार कर लेना ही बेहतर समझा। धैर्य धारण किये पिता को पत्नी ने फटकारा " लड़की जात है कहीं बहरी रह गयी तो विवाह में दिक्कत होगा "।
सुशीला के पिता सुदर्शन मिसिर जूट मिल में काम करते थे ।महीने में एक बार ही बीबी बच्चों से मिलने आते । बाकी 29 दिनों के लिए उनकी पत्नी ही पिता और माता की भूमिका का निर्वहन करती थी। सुदर्शन मिसिर जब घर आते तो खगड़िया से मछली जरूर लाते । बच्चे मछली देखकर दौड़ लगाते बन्सबिट्टी तक चले जाते । पापा आये पापा आये। पापा आते रहे ,जाते रहे ।बच्चों की संख्या अब सात तक पहुँच गयी । मध्यवर्गीय संपन्नता के कारण धान , गेहूँ , दलहन की उपज घर मे आ जाती थी । अन्न की कोई समस्या नहीं थी । अधिक बच्चों के पालन पोषण और अनियंत्रित खर्च के कारण बच्चे स्कूल जाने से कतराने लगे । सुशीला अब 12 साल की हो चुकी थी । इसके नाक नक्श पितृ ग्रन्थि से प्रभावित थे । बेहद सुंदर और सुडौल कद काठी। इस अवस्था तक आते आते सुदर्शन मिसिर ने सुशीला के कान और कंठ का इलाज भगवान भरोसे छोड़ दिया ।
सभी भाई बहनों को जरा तेज़ आवाज में बुलाना पड़ता था। कोई कोई उसे इशारों से बुलाते ।इस कारण सुशीला को भान हो गया कि वह कम सुनती है । आवाज भी साफ नहीं निकलती थी । वह आत्म हीनता की गिरफ्त में जाने लगी । घर के सारे सदस्य उसे चौका सम्हालने , बर्तन माँजने , झाड़ू लगाने का काम सौंपने लगे । सुशीला अपने भाई बहनों से अलग अलग रहने लगी और काम में ही सिद्धहस्त हो गयी।
सुशीला जब सोलह साल की हुई तो माँ ने उसे अपनी साड़ी देकर कहा अब इसे ही पहनो। लेकिन वह सलवार फ्रॉक पर ही अड़ी रही । वह देख चुकी थी कि दोनों दीदियों को साड़ी पहनाकर ही इस घर से टरकाया गया था । मंहगी मंहगी साड़ियां भी शादी के समय दी गयी थी । अब इसकी बारी आई तो इसे भी टेरिकोटिन की साड़ी पहनने को कहा जा रहा है । उसने साड़ी पहनने से इनकार कर दिया । गुस्से से पागल हो गई। बाल नोचने लगी । पैर पटकने लगी । गुस्से में इतना ही बोलती रह गयी -- आने दो पापा को ....... आने दो पापा को।
तीन दिनों बाद पापा जब घर आये तो सुशील दौड़ती हुई पापा तक नहीं गई। उसके चेहरे पर गुस्सा झलक रहा था । सूती सलवार और सूती समीज पहने पापा का घर के दरबाजे पर ही इंतज़ार किया । फिर बदहवास होकर पापा के देह पर निढाल हो गई। रोती रही सुबकती रही । सुदर्शन मिसिर उसकी पीठ सहलाते रहे । सभी बच्चे उसकी यह दशा देखकर सकपकाए हुए थे।
उसने पापा से हाथ जोड़कर तुतलाती हुई बोली
- मैं कान से कम सुनती हूँ। मैं साफ नहीं बोल पाती हूँ। बड़े भैया और दीदी मुझसे जोर से आवाज देकर बुलाते है । मइया इशारा करके बुलाती है। कहती है यह टेरिकोटिन की साड़ी पहन लो। दीदी को भी साड़ी पहनाई थी । उसे विदा कर दिया । अब यह मुझे भी साड़ी पहनने के लिए कह रही है । तुम्ही बोलो पापा इसको । मेरे जैसी बहरी और तुतलाती लड़की से कौन शादी करेगा । सुदर्शन जी चुप होकर सुनते रहे । बिटिया को गले लगाकर पश्चाताप की आग में झुलसते रहे ।
फिर ठंढी सांस खींचते हुए पत्नी से बोले -- यह जो चाहे पहने ।।
सुशीला लाड़ करती हुई बोली -- मैं सूती साड़ी पहनूँगी । हल्के रंग की ।
अगले साल सुशीला के लिए भी लड़का मिल गया । विवाह होने तक लड़के वाले को भनक भी नहीं लगी । सुशीला के रूप वैभव के सामने किसी ने कुछ कहा ही नहीं। जब ससुराल गई तब सुशीला के गौरवर्ण , तीखे नाक नक्श की चर्चा होती रही। लेकिन जब सुहागरात का समय आया तो सुशीला अपने पति के सामने बस रोती रही । लाख पूछने पर उसके आतुर पति सीताराम मिसिर को कोई उत्तर न मिला ।
जब सुवह हुई तो सीताराम मिसिर जी की आंखों के आगे अंधेरा छा गया । अब पत्नी के इस जन्मजात दोष को ढँकने के अलावा और कोई चारा नहीं था । सीताराम किसे दोष देते ।
सुशीला अपनी इस कमी के कारण पति के सामने किसी चीज की जिद कभी नहीं करती । वह आज भी सूती साड़ी ही पहनती है ।
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