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हरतरफ पशुता खड़ी

हरतरफ पशुता खड़ी

बाजार पसरा है। 

आदमी बिक रहा है
हैवान के आगे
बढ रही आकांक्षाएँ
किधर सेभागे
जानता है चतुर्दिक
असहज खतरा है। 

दूध पीता फरिस्ता भी
रोज है बिकता
माँ बिचारी करै भी तो
कुछ नहीं दिखता
विवशता ने फाड़ रखी
नेह अँचरा है। 

योजनाएँ सुहाने है
बड़े ऊँचे हैं
जरूरत के हाथ ओछे
और छूछे हैं
 सही अधिकारी बराबर
बना बहरा है। 

अनैतिक दुष्कर्म सस्ते
सार्वजनिक हुए
दवंगोंं की सोच भी
निर्द्वंद बणिक हुए
झूठ पर है छूट  सच पर
कड़ा पहरा है।
रामकृष्ण
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