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इतिहास की पाश्चात्य तथा भारतीय परम्परा

इतिहास की पाश्चात्य तथा भारतीय परम्परा

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी

१. पाश्चात्य और भारतीय इतिहास-पाश्चात्य इतिहास को हिस्ट्री कहते हैं, जिसका अर्थ है, उसकी कहानी (History = His story)। इसमें स्वयं तथा अपने देश की महानता दिखाने के लिये कहानियां गढ़ी जाती हैं तथा दूसरे देशों का इतिहास नष्ट कर उन्हें निन्दित किया जाता है। भारत में जैसी घटना हुई उनका क्रमबद्ध वर्णन इतिहास है। इतिहास = इति+ ह + आस = ऐसा ही हुआ था।
पाश्चात्य इतिहास के उदाहरण-(१) खाल्डिया के बेरोसस ने बेबीलोन के इतिहास में लिखा कि ग्रीक लोग (हेरोडोटस आदि) इतिहास नहीं जानते तथा केवल अपनी प्रशंसा के लिये कहानियां लिखते हैं। असीरिया के बारे में भी लिखा कि नबोनासर (लवणासुर) ने अपने पूर्व के सभी अवशेष नष्ट कर दिये थे जिससे लोग उसी को प्रथम महान् राजा समझें।
Berosus derided the "Greek historians" who had so distorted the history of his country. He knew, for example, that it was not Semiramis who founded the city of Babylon, but he was himself the prisoner of his own environment and cannot have known more about the history of his land than was known in Babylonia itself in the 4th century BC. (1/5) Nabonasaros collected together and destroyed the records of the kings before him in order that the list of the Chaldaean kings might begin with him.
(२) सिकन्दर ने अलेक्जेण्ड्रिया तथा भारत के तक्षशिला पर भी इसी लिये आक्रमण किया कि उन केन्द्रों का इतिहास नष्ट किया जा सके जहां ग्रीस के लोग पढ़ने आते थे। दूसरा लाभ यह था कि वहां सेना से मुकाबला नहीं करना पड़ता। पाकिस्तान में भी आतंकवादी पेशावर का स्कूल ही आक्रमण के लिये चुनते हैं।
Hipparchus, Euclid and Ptolemy had gone to Alexandria for study which is well recorded in their books. No Indian, Egyptian or Sumerian has written that they had gone to Greece. Father of Greek science Pythagoras had studied in India as claimed by Apollonius-
(३) Al-Biruni-Chronology of Ancient Nations, page 44-
However, enemies are always eager to revile the patronage of people, to detract from their reputation, and to attack their deeds and merits, in same way as friends and partisans are eager to embellish that which is ugly, to cover up the weak parts, to proclaim publicly that which is noble, and to refer everything to great virtues, as the poet describes them in these words-“The eye of benevolence is blind to every fault,
(४) भारत में अंग्रेजों का एकमात्र उद्देश्य था यहां के इतिहास तथा वैदिक सभ्यता को नष्ठ करना जिससे इसाई धर्म का प्रचार हो तथा अंग्रेजी शासन स्थायी हो।
Sir William Jones, 1784 (from Asiatic Researches Vol. 1. Published 1979, pages 234-235. First published 1788) –
(५) मुस्लिम इतिहासकार-ईरान में मुस्लिम शासन होने के बाद वहां के मुस्लिम इतिहासकारों ने अपना या भारत का प्रायः निष्पक्ष इतिहास लिखा है। मुजमा-इ-तवारिख (१२वीं सदी) में प्राचीन संस्कृत पुस्तक के आधार पर लिखा है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय दुर्योधन ने स्थापित किया था जहां पूरे भारत से ३०,००० विद्वानों को एकत्र किया गया था। सिन्ध पर अधिकार के बाद वहां की सभी पुस्तकें नष्ट कर दीं। बाद में बची पुस्तकों तथा कहानियों के आधार पर अल कुफी द्वारा चाचनामा लिखा गया। मुहम्मद बिन कासिम का अन्य इतिहासकार था अल-बिदौरी जिसने फतह-उल्-बुल्दान लिखी। इसमें हत्या लूटपाट, स्त्रियों का अपहरण तथा गुलामों की बिक्री को इस्लाम के गौरव रूप में वर्णन किया गया है। महमूद गजनवी के इतिहासकार अल-उत्बी ने असीमित लूट, मन्दिरों का ध्वंस, ५० लाख हत्याओं तथा उतने ही स्त्रियों के अपहरण और बिक्री के गौरव का वर्णन किया है। उस काल की पुस्तकें थी-अल उत्बी का तारीख-इ-यामिनी तथा ख्वाजा बैहागी का तारीख-इ-सुबुक्तगीन, हसन निज़ामी का ताज-उल-मासीर। अल बिरुनि ने भी भारत का तथा प्राचीन देशों की कालगणना पर पुस्तकें लिखी हैं जिनमें ब्राह्मणों की निन्दा है तथा लिखा है कि भारत की पूरी सम्पत्ति को नष्ट कर दिया गया। उसके बाद मुख्य पुस्तकें थीं (१) मिन्हाज उज़-सिराज का तबकत-इ-नासिरी, (२) जियाउद्दीन बरनी का तारीख-ए-फिरोजशाही, (३) अब्दुल्ला वस्साफ का तारीख-इ-वस्साफ, (४) अमीर खुसरो का तारीख-इ-अलाई और नूर-सिफर, (५) फरिश्ता तथा सिराज के सिरात-इ-फिरोजशाही, (६) तिमूर या तैमूर लंग की जीवनी-मुल्फुज़ात-ई-तिमूरी, (७) बाबरनामा, (८) अब्बास खान शेरवानी का तारीख-इ-फरिश्ता, (९) अब्बास खान शेरवानी का तारीख-ई-शेरशाही, (१०) हुसैनशाही द्वारा अहमदशाह अब्दाली की डायरी, (११) अबुल फजल का अकबरनामा तथा फरिश्ता द्वारा १००० से १५२६ तक ८ करोड़ हिन्दुओं की हत्या तथा ३ करोड़ को गुलाम बनाने का इतिहास, (१२) औरंगजेब काल की मासीर-इ-आलमगीरी, कलीमात-इ-अहमदी, खफी खान की पुस्तक, औरंगजेबनामा।
इन सभी में कुरान के अनुसार काफिर हिन्दुओं की हत्या, लूट, मन्दिरों विश्वविद्यालयों का ध्वंस, अपहरण का गौरवपूर्ण वर्णन है। ब्रिटिश शासन आने के बाद उनके दया तथा अच्छे शासन की प्रशंसा दिखाने में मुस्लिम शासक लगे। इब्न बतूता की डायरी का अनुवाद दिल्ली के वीरेन्द्र गुप्त ने किया था। पर इरफान हबीब ने कहा कि केवल मुस्लिम ही अरबी पुस्तक का ठीक अनुवाद कर सकता है और अपने नाम से १५ लाख रुपये का अनुदान लिया। प्रेस में प्रूफ रीडिंग करने वाले ने बताया कि उसमें कुतुब मीनार को ईसा पूर्व का निर्माण बताया है तो पूरी पुस्तक जलवा दी पर पैसा नहीं वापस किया जिस पर महालेखा परीक्षक ने २००१ में आदेश दिया था। बाद में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा संक्षिप्त रूप प्रकाशित हुआ। मुस्लिम इतिहासकारों की पुस्तकें ईरान सरकार के वेबसाईट पर पूरी तरह उपलब्ध हैं। भारत में उनको या तो नष्ट कर दिया है या उसमें हिन्दू या काफिर शब्दों को हटा कर मुस्लिम राजाओं को उदार तथा कल्याणकारी बनाने का अभियान चलाया है। कुछ मुख्य पुस्तकों का अंग्रेज लेखकों द्वारा अनुवाद उपलब्ध हैं।
२. भारतीय इतिहास-सभी प्रसिद्ध ग्रन्थों में निष्पक्षता, सत्य पर जोर दिया गया है।
(१) रामायण को प्रथम इतिहास ग्रन्थ मानते हैं तथा सत्य सनातन प्रभाव होने के कारण आदि काव्य कहते हैं। वाल्मीकि रामायण - बालकाण्ड- सर्ग-२-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीं समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥१४॥
आजगाम ततो ब्रह्मा लोककर्ता स्वयम्प्रभुः। चतुर्मुखो महातेजा द्रष्टुं तं मुनिपुङ्गवम्॥२२॥
तमुवाच ततो ब्रह्मा प्रहसन्मुनिपुङ्गवम्। श्लोक एव त्वया बद्धो नात्र कार्या विचारणा॥२९॥
न ते वागनृता काव्ये का चिदत्र भविष्यति। कुरु राम कथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम्॥३४॥
छन्द पहले से थे, किन्तु यहां एक मार्मिक घटना को व्यापक बना कर राम कथा द्वारा प्रचारित किया गया। घटना (वाक़या) का वर्णन वाक्य है, उसे शाश्वत रूप देना काव्य है। अन्तिम श्लोक में स्वयं ब्रह्मा द्वारा कहा गया कि इस काव्य की कोई बात असत्य नहीं होगी।
(२) महाभारत अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ तथा पञ्चम वेद रूप में प्रसिद्ध है। इसके भी प्रथम अध्याय में इसे सत्य, सनातन, पवित्र कहा है। महाभारत, आदि पर्व, अध्याय १-
भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः। श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः॥२५४॥
भगवान् वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च॥२५६॥
नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा॥२६४॥आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा।
ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्॥२६५॥ यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते।
इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥२६७॥ बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।
कार्ष्ण्यं वेदमिमं विद्वान् श्रावयित्वार्थमश्नुते॥२६८॥ एकतश्चतुरो वेदान् भारतं चैतदेकतः।२७१॥
पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्। चतुर्भ्यः स रहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा॥२७२॥
तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् महाभारतमुच्यते। महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्॥२७३॥
(३) कल्हण कृत राजतरङ्गिणी (११४९ ई.)-इसमें प्राचीन इतिहास ग्रन्थों का उल्लेख तथा उनके निष्पक्ष तथा सत्य सङ्कलन पर जोर दिया है। प्रथम तरङ्ग के आरम्भ में इनका उल्लेख है-
श्लाघ्यः स एव गुणवान् राग-द्वेष बहिष्कृता। भूतार्थ कथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती॥७॥
कुछ पूर्व ग्रन्थों तथा स्रोतों के उदाहरण दिये हैं-(१) सुव्रत द्वारा प्राचीन ग्रन्थों का संक्षेप, (२) क्षेमेन्द्र कृत नृपावली, (३) राजकथा विषयक अन्य ११ ग्रन्थ, (४) नीलमुनि का नीलमत पुराण, (५) प्राचीन राजाओं द्वारा निर्मित देव मन्दिरों, नगरों, ताम्रपत्रों, आज्ञा पत्र, प्रशस्ति पत्र, (६) गोनन्द आदि प्राचीन ५२ राजाओं का इतिहास, (७) हेलराज का १२,००० श्लोकों में पार्थिवावली, (८) पूर्व मिहिर द्वारा अशोक के पूर्वज ८ राजाओं का वर्णन।
इसके अतिरिक्त जोनराज तथा शुक की भी राजतरङ्गिणी उपलब्ध हैं। श्रीवर रचित जैन राजतरङ्गिणी भी है।
३. पुराण परम्परा-
(१) इतिहास-पुराण-घटनाओं का कालक्रम में वर्णन इतिहास है। इतिहास = इति + ह + आस = ऐसा ही हुआ था।
घटना क्रम के अतिरिक्त उनका विज्ञान समझने के लिये पुराण है। दीर्घकाल के सृष्टि निर्माण या लघुकाल के वंश चरित, दोनों तभी लिखे जा सकते हैं जब समय समय पर उनका निरीक्षण और वर्णन हो। विज्ञान समझने के लिये भी एक क्रिया तथा उसके कुछ समय बाद परिवर्तन का अध्ययन जरूरी है। अतः विज्ञान का आधार वेद तभी बन सकता है जब कि काल-क्रम से निसर्ग का निरीक्षण हो। निसर्ग से आगत होने के कारण ही वेद निगम है। मनुष्य ब्रह्मा को चिन्ता हुई-सृष्टि का आरम्भ कैसे करें। इसके लिये पुराणों का स्मरण किया। इससे पता चला कि पहले कैसे सृष्टि हुई थी। उसके अनुसार पुनः वैसे ही सृष्टि हुई। निर्माण की विधि समझना तन्त्र का विषय है। मत्स्य पुराण (५३/२-१०)-
इदमेव पुराणेषु पुराण पुरुषस्तदा। (२)
पुराणं सर्व शास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः॥३॥
पुराणमेकमेवासीत् तदा कल्पान्तरे ऽनघ। त्रिवर्ग साधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्॥४॥
परिवर्तनशील विश्व का वर्णन पुराण है। यदि वेद या पुराण एक ही समय के हों तो यह पता नहीं चल सकता कि उसके बाद अब तक कितना समय बीता। इसकी परिभाषायें हैं-
पुरा परम्परां वक्ति पुराणं तेन तत् स्मृतम् (पद्म पुराण, १/२/५३)
यस्यात् पुरा ह्यनन्तीदं पुराणं तेन चोच्यते (वायु पुराण, उत्तर, ४१/५५)
यस्मात् पुरा ह्यभूच्चैतत् पुराणं तेन तत् स्मृतम् (ब्रह्म पुराण, १/१/१७३)
पुराणं कस्मात्। पुरा नवं भवति (निरुक्त, ३/१९)
वेद के लिये पुराणों की जरूरत थी अतः वेद में भी पुराणों का उल्लेख है-
अथर्व (११/७/२५)-ऋच सामानि छन्दांसि पुराण यजुषा सह। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिता।
(२) २८ व्यासों द्वारा वेद पुराण संकलन- २८ युगों में २८ व्यास हुए थे जिनका ब्रह्माण्ड (१/२/३५), वायु (९८/७१-९१), कूर्म (१/५२), विष्णु (३/३), लिङ्ग (१/७/११, १/२४), शिव (३/४), देवीभागवत (१/२, ३) आदि पुराणों में वर्णन है। हर युग में, ब्रह्मा से बादरायण तक २८ व्यासों ने प्रायः ४ लाख श्लोकों में पुराण संहिता लिखी।
देवीभागवत पुराण (१/३)-द्वापरे द्वापरे विष्णुर्व्यास रूपेण सर्वदा। वेदमेकं स बहुधा कुरुते हित काम्यया॥१९॥
अल्पायुषोऽल्पबुद्धींश्च विप्राञ्ज्ञात्वा कलावथ। पुराणसंहितां पुण्यां कुरुतेऽसौ युगे युगे॥२०॥
(यहां वेद और पुराण को सम्बन्धित या पूरक कहा है।)
स्त्री शूद्र द्विजबन्धूनां न वेदश्रवणं मतम्। तेषामेव हितार्थाय पुराणानि कृतानि च॥२१॥
अतीतास्तु तथा व्यासाः सप्तविंशतिरेव च। पुराणसंहितास्तैस्तु कथितास्तु युगे युगे॥२४॥
ऋषयः उचुः-ब्रूहि सूत महाभाग व्यासाः पूर्वयुगोद्भवाः। वक्तारस्तु पुराणानां द्वापरे द्वापरे युगे॥२५॥
सूत उवाच-द्वापरे प्रथमे व्यस्ताः स्वयं वेदाः (पुराण के बाद) स्वयंभुवा।
प्रजापति (कश्यप) द्वितीये तु द्वापरे व्यास कार्यकृत्॥२६॥
तृतीये चोशना (उशना = शुक्र, कवि) व्यासश्चतुर्थे तु बृहस्पतिः।
पञ्चमे सविता (विवस्वान्) व्यासः षष्ठे मृत्यु (वैवस्वत यम) स्तथापरे॥२७॥
मघवा ( १४ इन्द्रों में वैकुण्ठ इन्द्र) सप्तमे प्राप्ते वसिष्ठस्त्वष्टमे स्मृतः।
सारस्वतस्तु (वाणी-हिरण्यगर्भ के पुत्र अपान्तरतमा) नवमे त्रिधामा दशमे तथा॥२८॥
एकादशेऽथ त्रिवृषो भरद्वाजस्ततः परम्। त्रयोदशे चान्तरिक्षो धर्मश्चापि चतुर्दशे॥२९॥
त्रय्यारुणिः पञ्चदशे षोड़शे तु धनञ्जयः। मेधातिथिः सप्तदशे व्रती ह्यष्टादशे तथा॥३०॥
अत्रिरेकोनविंशेऽथ गौतमस्तु ततः परम्। उत्तमश्चैकविंशेऽथ हर्यात्मा परिकीर्तितः॥३१॥
वेनो वाजश्रवश्चैव सोमोऽमुष्यायणस्तथा। तृणविन्दुस्तथा व्यासो भार्गवस्तु ततः परम्॥३२॥
ततः शक्तिर्जातूकर्ण्यः कृष्णद्वैपायनस्ततः। अष्टाविंशति संख्येयं कथिता या मया श्रुता॥३३॥
(३) बादरायण व्यास द्वारा विभाजन- कृष्ण द्वैपायन (बदरी वन में रहने के कारण बादरायण) व्यास ने पुराणों को १८ भागों में बांटा- मत्स्यपुराण, अध्याय ५५-
व्यासरूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे। चतुर्लक्ष प्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा॥९॥
तथाष्टादशधा कृत्वा भूलोकेऽस्मिन् प्रकाश्यते। (१०) नामतस्तानि वक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। (१२)
देवीभागवत पुराण (१/३/२) के अनुसार इनकी सूची है-
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं व-चतुष्टयम्। अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक् पृथक्॥
म से २ पुराण-मत्स्य, मार्कण्डेय
भ से २-भागवत, भविष्य
ब्र से ३-ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त्त।
व से ४-विष्णु, वामन, वाराह, वायु।
अ-अग्नि, ना-नारद, प-पद्म, लिं-लिङ्ग, ग-गरुड़, कू-कूर्म, स्का-स्कन्द।
१८ पुराणों का क्रम सृष्टि निर्माण क्रम के अनुसार है। मधुसूदन ओझा ने इनका वर्णन जगद्गुरुवैभवम्, अध्याय २ तथा पुराण निर्माणाधिकरणम् में किया है। पुराणों का यह क्रम बृहन्नारदीय पुराण, अध्याय ९२-१०९ में दिया है।
(४) लोमहर्षण परम्परा-लोमहर्षण के ८ शिष्यों में काश्यप, सावर्णि, शांशम्पायन ने संहिताओं का संकलन किया।
विष्णु पुराण (३/४/१८)-काश्यपः संहिता कर्ता सावर्णिः शांशपायनः। लौमहर्षणिका चान्या तिसृणां मूलसंहिता॥
वायु पुराण (६१/५७) ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/६५-६६)-त्रिभिस्तत्र कृतास्तिस्रः संहिता पुनरेव हि॥।५७॥
काश्यपः संहिता कर्ता सावर्णिः शांशपायनः। मामिका च चतुर्थी स्यात् सा चैषा पूर्व संहिता॥५८॥
(५) शौनक की महाशाला (विश्वविद्यालय) में महाभारत युद्ध के बाद ८८,००० विद्वानों ने पुराणों का संकलन किया। इसके अध्यक्ष उग्रश्रवा थे। यह परीक्षित जन्म के बाद १००० वर्षों तक (२१३८ ई.पू. तक) चलता रहा। इसे नैमिषारण्य में शौनक का १००० वर्ष का सत्र कहा गया है।
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ॥३॥-मुण्डक उपनिषद् (१/१/२-३)
भागवत पुराण (१/१/४)-नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥
पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड (५) अध्याय १-
सूतमेकान्तमासीनं व्यासशिष्यो महामतिः। लोमहर्षणनामा वै उग्रश्रवसमाह तत्॥२॥
पुराणं चेतिहासं वाधर्मानथ पृथग्विधान्(१५) अथ तेषां पुराणस्य शुश्रूषा समपद्यत (१७)
तस्मिन् सत्रे गृहपत्ः सर्वशास्त्र विशारदः(१७) शौनको नाम मेधावी विज्ञानारण्यके गुरुः (१८)
पद्मपुराण, उत्तरखण्ड (१९६/७२)-
कलौ सहस्रमब्दानामधुना प्रगतं द्विज। परीक्षितो जन्मकालात् समाप्तिं नीयतां मखः॥
(६) उज्जैन के सम्वत् प्रवर्त्तक सम्राट् विक्रमादित्य (८२ ई.पू.-१९ ई. तक) काल में भी बेताल भट्ट की अध्यक्षता में पुराणों का वैसे ही सम्पादन हुआ जैसा पहले शौनक की महाशाला में हुआ था। अतः उसके ज्योतिषीय विवरण उसी काल से मिलते हैं। पुराण संकलन के स्थानों को भी विशाला (विशेष शाला) कहा गया जैसे शौनक संस्था को महाशाला कहते थे। एक तो उज्जैन के पास ही था, जिसाके कारण उज्जैन को विशाला भी कहा गया है। एक उत्तर बिहार के वैशाली की राजधानी थी। बद्रीनाथ में भी शंकराचार्य द्वारा ब्रह्म सूत्र की व्याख्या होने के कारण उसे बद्रीविशाल कहते हैं।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १-
एवं द्वापरसन्ध्याया अन्ते सूतेन वर्णितम्। सूर्यचन्द्रान्वयाख्यानं तन्मया कथितम् तव॥१॥
विशालायां पुनर्गत्वा वैतालेन विनिर्मितम्। कथयिष्यति सूतस्तमितिहाससमुच्चयम्॥२॥
तन्मया कथितं सर्वं हृषीकोत्तम पुण्यदम्। पुनर्विक्रमभूपेन भविष्यति समाह्वयः॥३॥
नैमिषारण्यमासाद्य श्रावयिष्यति वै कथाम्। पुनरुक्तानि यान्येव पुराणाष्टादशानि वै।।४॥
तानि चोपपुराणानि भविष्यन्ति कलौ युगे। तेषां चोपपुराणानां द्वादशाध्यायमुत्तमम्॥५॥
सारभूतश्च कथित इतिहाससमुच्चयः। यस्ते मया च कथितो हृषीकोत्तम ते मुदा॥६॥
तत्कथां भगवान् सूतो नैमिषारण्यमास्थितः। अष्टाशीति सहस्राणि श्रावयिष्यति वै मुनीन्॥८॥
(७) विदेशी विकृतियां- अकबर के समय में भी भविष्य पुराण में कई अध्याय जोड़े गये जिनमें कई में अकबर को पृथ्वीराज चौहान का अवतार कहा गया है। उसने विक्रमादित्य की नकल कर नवरत्न भी बनाये तथा उसके लगान व्यवस्था को भी आरम्भ किया। शेरशाह आदि मुगलों को विदेशी रूप में विरोध कर रहे थे, अतः अपने को भारतीय दिखाने के लिये किया। ब्रिटिश काल में एरिक पार्जिटर तथा विलियम जोन्स ने भी कुछ हेराफेरी की जिससे उनका कालक्रम बदला जा सके। भविष्य पुराण में कुछ अध्याय जोड़ कर कहा कि अंग्रेज हनुमान् के वंशज हैं जिनको भगवान् राम ने आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे वंशज भारत पर राज्य करेंगें। हनुमान् के वंशज होने के कारण वे मनुष्य को हुमैन (Human) कहते हैं। हनुमान मरुत् के पुत्र हैं तथा इंगलैण्ड मरुत् कोण दिशा में है।
पुराणों में ज्योतिष तथा भूगोल सम्बन्धी विवरण पुराने हैं। महाभारत के बाद उनका संकलन करनेवाले माप की भिन्न इकाइयां तथा आकाश के क्षेत्रों के पृथ्वी जैसे नाम समझ नहीँ पाये। पर उसमें कोई उद्देश्यपूर्ण परिवर्तन नहीँ हैं। उन्हीं मूल मापों पर ज्योतिष की सभी पुस्तकें आधारित हैं। ज्यादा पुरानी घटनाएं क्रमशः संक्षिप्त होती गयी जैसा इतिहास लेखन में होता है तथा वायु पुराण आदि में स्पष्ट उल्लेख भी है।
उद्देश्यपूर्ण परिवर्तन अकबर काल में तथा पार्जिटर आदि द्वारा हुआ। शौनक या विक्रमादित्य को इससे कोई लाभ नहीं था।
१७३० में बलदेव विद्याभूषण ने ब्रह्मसूत्र के गोविन्द भाष्य में प्रथम सूत्र में भागवत पुराण की सहायता का आधार लिखा था-उक्तं च गारुडे-
अर्थोऽयं ब्रह्मसूत्राणां भारतार्थ विनिर्णयः। गायत्री भाष्य रूपोऽसौ वेदार्थ परिबृंहणः।।
१७८० के बाद के गरुड पुराण के किसी संस्करण में यह श्लोक उपलब्ध नहीँ है।
४. स्रोत ग्रन्थों में इतिहास-(१) वेद संहिता में इतिहास-
वेद मन्त्रों के ३ प्रकार के अर्थ हैं-आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक। आधिदैविक में सृष्टि का इतिहास तथा आधिभौतिक में मनुष्य समाज के इतिहास हैं। उदाहरण-
(१) नासदीय सूक्त (ऋग्वेद, १०/१२९/१-७)-
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीतम्॥१॥
को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव॥६॥
सृष्टि के आरम्भ में न सत् था न, असत्, उस समय देव भी नहीं हुये थे, अतः कोई भी निश्चित रूप से नहीं बता सकता कि सृष्टि, विसृष्टि (पुराण का सर्ग, प्रतिसर्ग) कैसे हुई, इसका स्रोत या बताने वाला, आवरण आदि क्या था?
(२) या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा (ऋक्, १०/९७/१, वाज. सं. १२/७५, काण्व सं. १३/१६, शतपथ ब्राह्मण, ७/२/४/२६)
= जो ओषधियां ३ युग पूर्व देवों द्वारा हुयी थीं (यहां ऐतिहासिक युग है)
(३) दीर्घतमा मामतेयो जुजुवान् दशमे युगे। (ऋक्, १/१५८/६)-यहां दशम युग व्यक्ति के जीवन काल का सबसे छोटा युग है-प्रति युग ५ वर्ष का। १० युग = ५० वर्ष होने पर दीर्घतमा ने ज्योतिषीय तथ्य खोजे।
(४) बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत् नामधेयं दधानाः (ऋक्, १०/७१/१)
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आनः शूण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
बृहस्पते यो नो अभि ह्वरो दधे स्वा तं मर्मतुं दुच्छुना हरस्वती॥६॥ (ऋक्, २/२३)
= बृहस्पति ने सबसे पहले वस्तुओं के नाम दिये। उसके बाद ब्रह्मा ने लिपि के लिये गणपति को अधिकृत किया और उनको ज्येष्ठराज कहा।
(५) पुरुष सूक्त-यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥१६॥ (ऋक्, १/१६४/५०, १०/९०/१६, अथर्व, ७/५/१, वाज. सं. ३१/१६, तैत्तिरीय सं. ३/५/११/५, मैत्रायणी सं. १४८/१६, २१८/२, काण्व सं. ८/२)
देव युग के पहले साध्य गण थे। वे एक यज्ञ से अन्य यज्ञ (उत्पादन साधनों का समन्वय) कर उन्नति के शिखर पर पहुंचे और देव बने।
(६) इन्द्र द्वारा असुरों का संहार से युद्धभूमि (वैल, महावैल) श्मशान भूमि (अर्मक) बन गयी जिसे आजकल आर्मीनिया कहते हैं। उनके हाथी को वटूरि कहा गया है जो आज भी बर्मा की इरावती नदी के पूर्व प्रचलित है (इन्द्र पूर्व के लोकपाल थे तथा इरावती क्षेत्र का ऐरावत उनका हाथी था। (ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/७/३२६-३२७, वायु पुराण, ३७/२५)
उभे पुनानि रोदसी ऋतेन द्रुहो दहामि सं महीरिन्द्राः। अभिव्लग्य यत्र हता अमित्रा वैलस्थानं परि तृळहा अशेरन्॥१॥
अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम्। छिन्धि वटुरिणा पदा महावटूरिणा पदा॥२॥
अवासां मघवञ्जहि शर्धो यातुमतीनाम्। वैलस्थानके अर्मके महावैलस्थे अर्मके॥३॥ (ऋक्, १/१३३)
(७) प्रथम जैन तीर्थङ्कर ऋषभदेव जी ११वें व्यास थे। द्वितीय जल प्रलय के बाद सभ्यता का आरम्भ उसी प्रकार किया जैसा प्रथम जल प्रलय के बाद स्वायम्भुव मनु ने किया थ। अतः उनको स्वायम्भुव का वंशज कहा है। (भागवत पुराण, अध्याय ५/१-४) उनके सूक्त में अरिहन्त, कृषि विकास तथा लेखन (ब्राह्मी लिपि) का उल्लेख है जिनको जैन शास्त्र असि-मसि-कृषि का प्रवर्तक कहते हैं।
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥१॥
वाचस्पते नि षेधेमान् यथा मदधरं वदान्॥३॥ (ऋक्, १०/१६६)
हन्तारं शत्रूणां = अरिहन्त, कृधि, गोपतिं आदि = कृषि कार्य, वाचस्पति = लिपि कर्ता।
(२) ब्राह्मण भाग में इतिहास-इसमें जहां इतिहास कथा है, वहां इतिहास शब्द के ३ खण्ड लिखे रहते हैं-आरम्भ में ह, बाद में आस तथा समाप्ति पर इति। आरण्यक तथा उपनिषद् प्रायः इसी के अंश हैं अतः वहां भी ऐसा ही है। दुष्यन्त पुत्र भरत के यज्ञ, ६७७७ ई.पू. में डायोनिसस (असितधन्वा) का आक्रमण, जनक, श्वेतकेतु, याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि कई राजाओं ऋषियों की कथा है।
(१) भरत के यज्ञ- तेन हैतेन भरतो दौःषन्तिरीजे... तदेतद् गाथयाभिगीतम्-अष्टासप्ततिं भरतो दौःषन्तिर्यमुनामनु। गङ्गायां वृत्रघ्ने ऽबध्नात् पञ्चपञ्चाशतँ हयान्-इति॥१३॥
महदद्य भरतस्य न पूर्वे नापरे जनाः। दिवं मर्त्य इव बाहुभ्यां नोदापुः पञ्चमानवाः-इति॥१४॥ (शतपथ ब्राह्मण, १३/५/४)
तद्यप्येते श्लोका अभिगीताः।
हिरण्येन परीवृतान् कृष्णान् शुक्लदतो मृगान्। मष्णारे भरतो ऽददाच्छ्तं बद्धानि सप्त च॥
भरतस्यैष दैष्यन्तेरग्निः साचिगुणे चितः। यस्मिन्सहस्स्रं ब्राह्मना बद्धशो गावि भेजिरे॥
अष्टासप्तति भरतो दौष्यन्तिर्यमुनामनु। गङ्गायां वृत्रघ्ने ऽबध्नात् पञ्चपञ्चाशतं हयान्॥
त्रयस्त्रिंशच्छतं राजा ऽश्वान् बध्वाय मेध्यान्। दौष्यन्तिरत्यगाद्राज्ञो मायां मायावत्तरः॥
महाकर्म भरतस्य न पूर्वे नापरे जनाः। दिवं मर्त्य इव हस्ताभ्यां नोदापुः पञ्चमानवाः॥ (ऐतरेय ब्राह्मण, ८/२३)
(२) ऐतरेय-एतत् ह स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः .... स ह षोडशं वर्षशतमजीवत्। (छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१६/६)
(३) जनमेजय-एतेन ह इन्द्रोतो दैवापः शौनकः। जनमेजयं पारिक्षितं याजयां चकार ....॥१॥ तदेतत् गाथया अभिगीतम्-
आसन्दीवति धान्यादँ रुक्मिणँ हरितस्रजम्।
अबध्नादश्वँ सारंगं देवेभ्यो जनमेजयः-इति॥ (शतपथ ब्राह्मण, १३/५/४)
यही ऐतरेय ब्राह्मण में- एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेन तुरः कावषेयो जनमेजयं पारिक्षितम्भिषिषेच। .... तदेषाभि यज्ञगाथा गीयते-आसन्दीवति .....॥ (ऐतरेय, ८/२१)
(४) असितधन्वा-असितोधान्वो (असितधन्वा = डायोनिसस) राजेत्याह तस्यासुरा विशस्तऽइमऽआसत इत् (शतपथ ब्राह्मण, १३/४/३/११)
(५) शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ॥३॥-मुण्डक उपनिषद् (१/१/२-३)
५. इतिहास के अन्य रूप-इतिहास सम्बन्धी कई अन्य ग्रन्थों का उल्लेख वेद के अंगों में किया गया है-(१) श्लोक-इसका सामान्य अर्थ है छन्दोबद्ध काव्य। पर यह किसी व्यक्ति की ख्याति सम्बन्धित वाक्य थे जो समाज में प्रचलित तथा उद्धृत थे। (२) विद्या-यह विषय या आविष्कर्ता व्यक्ति से सम्बन्धित वर्णन था। (३) व्याख्यान-अनुव्याख्यान-महत्त्वपूर्ण घटना, युद्ध आदि का वर्णन, उस पर विभिन्न मत या चर्चा। (४) वाकोवाक्य-बातचीत? (५) गाथा-प्राचीन कथायें, (६) नाराशंसी-किसी महापुरुष की जीवनी, प्रशंसा। (७) चरित-पुरुष या उसके वंश का वर्णन। रघु चरित के आधार पर रघुवंश लिखा गया था। (८) एकायन-प्राचीन संग्रह कोष आदि। इनके आधार पर पाञ्चरात्र ग्रन्थ थे। (९) कई अन्य विद्या जिनका रूप अस्पष्ट है-देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पदेवजनविद्या।
पुराण के अंग-सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्च लक्षणम्। (विष्णु पुराण, ३/३/२४)
ब्रह्मवैवर्त्त पुराण, कृष्ण खण्ड, अध्याय १३३ में ये ५ लक्षण उपपुराणों के कहे हैं तथा महा पुराणों के १० लक्षण कहे हैं-
पुराणों के अन्य मुख्य विषय हैं-आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः। पुराण संहितां चक्रे पुराणार्थ विशारदः॥ (विष्णु पुराण, ३/६/१५)
वेद में जिन घटनाओं का संकेत है उनका वर्णन आख्यान है, या स्वयं देखी घटना का वर्णन है। अन्य वर्णन उपाख्यान हैं। या मुख्य कथा आख्यान है तथा उदाहरण के लिये अन्य कथायें उपाख्यान हैं। प्रसिद्ध प्राचीन कथायें गाथा हैं। कल्प शुद्धि के २ अर्थ किये जाते हैं-कल्प आदि गणना से काल निर्धारण, या कल्प ग्रन्थों की विधियों की व्याख्या।
पुराण में कई अन्य विषय भी हैं-व्याकरण, छन्द शास्त्र, योग, फलित ज्योतिष, आत्मा की गति, शिल्प शास्त्र, नगर निर्माण, चित्र कला आदि।
पुराण प्रवक्ता-(१) संकलन कर्ता २८ व्यास, (२) प्रवचन तथा पुस्तक द्वारा प्रचार करने वाले सूत, (३) मागध-किसी देश या राज्य का वर्णन करने वाले, (४) बन्दी-राज्य सेवक, ये अपने शासक की प्रशंसा अधिक करते हैं।
६. अन्य विषयों के इतिहास-स्वायम्भुव मनु के काल से अधिकांश विषयों के इतिहास आरम्भ होते हैं। उसके पूर्व की पुस्तकों के संग्रहों से यह आरम्भ हुआ था। उससे पूर्व चिकित्सा के लिये सिद्ध परम्परा का उल्लेख है। पृथ्वी तथा आकाश की माप हो चुकी थी तथा मणिजा काल में खनिजों का खनन तथा धातु कर्म भी आरम्भ हो चुका था।
(१) वेद तथा ज्योतिष में २ मुख्य परम्परा है-स्वायम्भुव मनु से ब्रह्म सम्प्रदाय तथा वैवस्वत मनु से आदित्य सम्प्रदाय। आदित्य सम्प्रदाय का पुनरुद्धार महाभारत से प्रायः १००० वर्ष पूर्व याज्ञवल्क्य द्वारा हुआ। ब्रह्म सम्प्रदाय के अनुसार वर्गीकरण कृष्णद्वैपायन व्यास के समय हुआ। किन्तु बहुत पूर्व काल (वाल्मीकि या उससे पूर्व) कृष्ण यजुर्वेद कि शाखाओं का विस्तार पूरे विश्व में वर्णित है, केवल पुष्कर द्वीप में नहीं है। ज्योतिष में पितामह सिद्धान्त स्वायम्भुव मनु काल का था जो दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित है (बार्हस्पत्य वर्ष पद्धति)। उसका उद्धार कलि वर्ष ३६० में आर्यभट ने किया। पितामह सिद्धान्त को ही आर्य सिद्धान्त कहा जिसके कारण आर्य (अजा) का प्रचलित अर्थ पितामह है। सूर्य सिद्धान्त का आरम्भ वैवस्वत मनु के पिता विवस्वान् ने १३९०० ई.पू. में किया। जल प्रलय के बाद ९२२३ ई.पू. में मय ने रोमक पत्तन (उज्जैन से ९० अंश पश्चिम, मोरक्को के पश्चिम का तट) में किया। उस परम्परा में मैत्रेय ने पराशर को शिक्षा दी है जिसका विष्णु पुराण में वर्णन है। इसके आधार पर विक्रमादित्य के समकालीन ब्रह्मगुप्त ने ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त लिखा। इसका काल चाहमान शक (६१२ ई.पू.) में ५५० अर्थात् ६२ ई.पू. में है। उससे पूर्व वराहमिहिर ने सूर्य सिद्धान्त का संक्षिप्त रूप पञ्चसिद्धान्तिका में लिखा। पूर्ण रूप महाभारत के कुछ बाद का है जो शौनक महाशाला में लिखा गया था (महासिद्धान्त, २/२)
(२) आयुर्वेद का आरम्भ भी ब्रह्मा से हुआ। किन्तु इन्द्र के काल में पुनः रोग बढ़ने लगे तो हिमालय के निकट ऋषियों की सभा हुयी जिसके निर्णय से भरद्वाज इन्द्र के पास गये और आयुर्वेद शास्त्र रचा। इसे चरक संहिता कहा गया, जिस नाम से कृष्ण यजुर्वेद की १२ शाखायें हैं। बाद में इसे वैशम्पायन ने इसे नया रूप दिया। वर्तमान संस्करण दृढ़बल द्वारा है। देवासुर संग्राम के समय बहुत हत्यायें हुयीं तो शल्य चिकित्सा पर अधिक ध्यान दिया गया। समुद्र मन्थन के समय धन्वन्तरि हुये जिनसे सुश्रुत संहिता आरम्भ हुयी। काशी के राजा दिवोदास (७२०० ई.पू.) को धन्वन्तरि का अवतार कहते हैं। परीक्षित काल में एक धन्वन्तरि उनकी विष चिकित्सा करने आ रहे थे जिनको तक्षक ने पैसे दे कर वापस कर दिया था। उसके बाद काशी में कल्प दत्त के पुत्र सुश्रुत ने धन्वन्तरि की पुस्तक का सारांश लिखा जिसे सुश्रुत संहिता कहा गया (भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग, ३/९/२०-२१)। अन्तिम धन्वन्तरि विक्रमादित्य के नवरत्नों में से थे।
वागभट के अष्टाङ्ग हृदय में बाक्कस नाम की यव की सुरा (whisky) का उल्लेख है (अष्टाङ्ग हृदय, सूत्र स्थान ३/५/६८, अष्टाङ्ग सूत्र, ६/११६)। मूल ग्रन्थ बाक्कस काल का होगा जब उसने भारत पर आक्रमण किया था (६७७७ ई.पू.)।
(३) व्याकरण का इतिहास पं युधिष्ठिर मीमांसक जी ने विस्तार से लिखा है। ब्रह्मा के अतिरिक्त महेश्वर की परम्परा रही है। ब्रह्मा परम्परा में बृहस्पति, गणपति ने लिपि आरम्भ की तथा हर वस्तु के लिये अलग अलग नाम और चिह्न दिये। बाद में इन्द्र ने शब्द विज्ञान के आचार्य मरुत् की सहायता से शब्दों को मूल ध्वनियों में व्याकृत (खण्डित) किया तथा उच्चारण स्थान के अनुसार वर्गीकरण किया। व्याकृत होने के कारण व्याकरण कहा गया। उससे पूर्व शब्द पारायण था। आज भी इन्द्र क्षेत्र पूर्व से मरुत् क्षेत्र उत्तर पश्चिम तक देवनागरी लिपि प्रचलित है। इसमें ४९ मरुत् के चिह्न ४९ वर्ण हैं जिनमें ३३ देवों के चिह्न ३३ स्वर ( क से ह) हैं। चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण इसे देवनागरी कहते हैं। इसमें असम्बद्ध (अयोगवाह) वर्णों को जोड़ने पर ६३ या ६४ वर्ण की लिपि शम्भु मत से है (पाणिनीय शिक्षा) जिसे ब्राह्मी लिपि कहते हैं। महेश्वर ने ४३ मूल वर्णों को १४ सूत्रों में निबद्ध किया जिनसे व्याकरण के सूत्र बनते हैं। माहेश्वर परम्परा के १८ पूर्ववर्त्ती व्याकरणों का उल्लेख पाणिनि ने किया है जिनकी अष्टाध्यायी में ४००० सूत्र हैं। इस पर पतञ्जलि का महाभाष्य है जिनका योग सूत्र है। यह व्यास के समकालीन थे जिन्होंने योगसूत्र पर टीका लिखी है। कालक्रम में नष्ट होने पर कश्मीर में तथा बाद में आदि शंकर के गुरु गोविन्दपाद (पूर्व नाम चन्द्रशर्मा) ने संकलन किया जिसे अजभक्षित भाष्य कहते हैं। अतः इसमें पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेध का वर्णन है। प्रक्रिया क्रम से भी सिद्धान्त कौमुदी परम्परा में सूत्रों का अध्याय अनुसार क्रम बदल दिया गया है।
(४) शिल्प शास्त्र की परम्परा विश्वकर्मा से है जिनके ऋग्वेद में २ सूक्त हैं (१०/८१-८२)। बाद में मय ने शिल्पशास्त्र की रचना की (मयमतम्) तथा इसके बाद के कई ग्रन्थ हैं।
(५) अर्थशास्त्र का इतिहास महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय ५८-५९ में दिया है। आरम्भ में ब्रह्मा (स्वायम्भुव मनु) ने त्रिवर्ग विषय (धर्म, अर्थ, काम) का १ लाख अध्याय का शास्त्र लिखा था। उसके अर्थशास्त्र विभाग का विशालाक्ष शिव ने १०,००० अध्याय में संक्षेप किया। पुरन्दर इन्द्र ने ५,००० अध्यायों में बाहुदन्तक नाम से संक्षेप किया। विष्णुगुप्त के अर्थशास्त्र में उस इन्द्र को बाहुदन्तीपुत्र लिखा है। इसका ३००० अध्याय में बृहस्पति ने संक्षेप किया। काव्य उशना ने १,००० अध्याय में संक्षेप किया। उसके बाद पुरूरवा के पिता बुध (मत्स्य पुराण, २४/२) तथा सुधन्वा (आङ्गिरस बृहस्पति के भाई), प्राचेतस मनु, भरद्वाज, गौरशिरा आदि के अर्थशास्त्रों का उल्लेख है। कौटल्य अर्थशास्त्र, अध्याय ७ में कुछ अन्य का भी उल्लेख है- पराशर, पिशुन (नारद), कौणपदन्त, वातव्याधि, बाहुदन्ती-पुत्र (इन्द्र)।✍🏻अरुण उपाध्याय
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