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“कछुवा-खरगोश” को कम से कम भारत में तो “दो शब्दों की कहानी” घोषित कर ही देना चाहिए।

“कछुवा-खरगोश” को कम से कम भारत में तो “दो शब्दों की कहानी” घोषित कर ही देना चाहिए।

 

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी

बचपन से लोगों ने तेज भागने वाले खरगोश के रास्ते में रुक कर सो जाने, और धीमी गति से ही सही, मगर लगातार चलते रहने वाले कछुवे की दौड़ में जीत जाने की कहानी अनगिनत बार सुनी होती है। धीरे-धीरे इसके बदले हुए रूप भी सुनने-पढ़ने में आते रहते हैं। चूँकि ये कहानी कई बार सुनी हुई होती है इसलिए रामायण का सुन्दरकाण्ड पढ़ते समय आपको आसानी से याद आ जाएगी। जैसे खरगोश का तेज गति के लिए कहानी में जिक्र आता है, वैसे ही हनुमान जी के लंका की ओर रवाना होने पर वेग का वर्णन है।

किसी छोटे कस्बे के रेलवे प्लेटफार्म पर पड़े अख़बारों की जो दशा वहां से राजधानी के गुजरते ही होती है, वैसा ही कुछ हनुमान जी की छलांग लगाने पर पेड़ों का होता है! जैसे तेज गति से गुजरती ट्रेन के साथ ही कागज के टुकड़े और दूसरी हल्की-फुल्की चीज़ें उड़ चलती हैं, कुछ वैसे ही महेंद्रगिरी पर्वत से जब हनुमान छलांग लगते हैं, तो उनके वेग से भी कई पेड़ उखड़ जाते हैं। उनके साथ उड़ चले ये पेड़ तो कुछ वहीँ आस पास और कुछ समुद्र में गिर गए, मगर हनुमान आगे लंका की ओर बढ़ते रहते हैं। यहीं उन्हें पहली बार विश्राम का अवसर मिलता है। मैनाक पर्वत उनके सामने निकलकर आता है। अचानक जिसे अपनी उड़ने की शक्ति याद आ गयी हो उसे क्या करना चाहिए?

हनुमान जी के पास यहाँ रुकने सुस्ताने का पूरा मौका था लेकिन वो नम्रतापूर्वक मना करके आगे बढ़ जाते हैं। खरगोश की तरह रूककर सोने नहीं लगते। यहाँ से थोड़ा ही आगे उनकी मुलाकात सुरसा से होती है। यहाँ हनुमानजी चतुराई से काम लेते हैं पहले आकार बड़ा करके और फिर छोटा करके वो सुरसा के मुख में प्रवेश करके निकल आते हैं। इससे आगे बढ़ते ही उनकी भेंट सिंहिका नाम की राक्षसी से होती है जो परछाई को रोककर जीवों को खा जाती थी। हनुमान जी उसे मारकर आगे बढ़ते हैं। रुकने के जो तीन मौके मिलते हैं, उन तीनों पर उनकी प्रतिक्रियाएं अलग अलग हैं!

तो पहले तो ये सीखने को मिलता है कि अगर आपकी गति खरगोश जैसी तेज हो भी तो रास्ते में रुकना नहीं है। जब तक काम पूरा नहीं होता, तबतक रास्ते में कोई मैनाक जैसा सुन्दर-रमणीय पर्वत आये, या कहिये कि अच्छे प्रलोभन दिखें तो उनके लिए ठहरने के बदले आगे बढ़ा जाना चाहिए। जो बाधाएं रास्ते में आएँगी, जरूरी नहीं कि वो खूबसूरत हों, प्रलोभन हों। हो सकता है वो डराने का प्रयास करने वाले वैसे कॉमरेड हों जिन्हें हर बात में “ना हो पायेगा” सूझता है। कई दूसरे “रोचक” कार्यों में उलझाने की कोशिशें हों, डरा-धमका कर रोका जाए ऐसा हो सकता है। रुकना इनपर भी नहीं है।

तीसरा प्रयास पूरा मार देने का ही होता है। जब बहलाने-फुसलाने और डराने-धमकाने से काम नहीं बना तो सिंहिका रोकने की कोशिश करती है। इस बार हनुमान उसे मारकर आगे बढ़ते हैं। यहाँ बर्ताव पर भी ध्यान दिया जा सकता है। तीनों मोटे तौर पर एक सी हरकत कर रहे होते हैं – रोकने की कोशिश। तीनों बार हनुमान जी की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग होती हैं। यानी आज के (कुछ असंवैधानिक कानूनों को छोड़कर) अधिकतर कानूनों में जैसा कहा जाता है, बिलकुल वैसा ही प्रेरणा क्या थी, क्यों की ये हरकत, उसके आधार पर सजा तय होती है। क्या हरकत की उसके हिसाब से कुछ नहीं किया जा रहा है।

जब मैनाक को “ना” कहा जा रहा है तो पूरी विनम्रता से कहा जा रहा है। जरूरी नहीं कि इनकार करते वक्त सम्बन्ध बिगड़ ही जाएँ। हनुमान जी “एस्सेर्टीव” होते हैं “एग्ग्रेसिव” नहीं होते। दूसरी बार में वो देखते हैं कि ये सिर्फ शक्ति-सामर्थ्य की जांच है, वहां वो दिखाते हैं कि एक दूत की तरह चतुराई,व्यवहार-कुशलता का इस्तेमाल करते हैं। “पॉवर” के बदले “टैक्ट” का प्रयोग करते हैं। तीसरी बार में वो ऐसा कुछ नहीं करते। जो सामने थी वो स्वरभानु, जिसका सर-धड़ अलग होने से राहू केतु बने थे, की माँ थी। पहले भी उससे हनुमान का सामना हो चुका था। यहाँ लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जब एक दूत के रूप में हनुमान जी को दर्शाने के लिए सुन्दरकाण्ड की रचना की गयी तो उसपर समय और लेखक का भी प्रभाव रहा होगा। वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी रौद्र रूप में हैं, तो तुलसीदास जी के में भक्ति वाले रूप में ही दिखते हैं। इन सबसे ऊपर होता है उसे पढ़ने वाला पाठक। भक्ति और आध्यात्म जैसी चीज़ें छोड़कर “मैनेजमेंट लेसन” भी ढूंढें जा सकते हैं। समुद्र के किनारे से सीप चुनकर घर लौटने से हमें कौन रोक सकता है भला? “माह लाइफ, माह चॉइस!” जब कछुवे-खरगोश की कहानी से बिना रुके चलते रहना नहीं सीखा, तो हनुमान जी से भी लक्ष्य तक पहुंचे बिना विश्राम न करना सीखने का मन नहीं हो, ऐसा हो सकता है।

बाकी सुन्दरकाण्ड पढ़ने से हम आज भी साधु नहीं हुए। हवा में उड़ने, आकार बड़ा-छोटा करने जैसी दिव्य शक्तियां भी प्राप्त नहीं हुई हैं। कल बंदरों की तरह बीज फिर से खोदकर देखेंगे, कल शायद मेरे पेड़ उग आयें!

थोड़े दिन पहले जब रामायण (रामानंद सागर वाला) टीवी पर प्रसारित हो रहा था तो इन्टरनेट पर अक्सर एक वीडियो नजर आता था। इसमें अरविन्द त्रिवेदी नजर आते थे, जो टीवी देखते हुए भावुक हो रहे होते थे। अब काफी वृद्ध हो चुके अरविन्द त्रिवेदी ने कभी इस सीरियल में रावण का किरदार निभाया था। उनके साथ जुड़ी कहानियों में से एक हनुमान गढ़ी की कहानी है। कहते हैं कि जब वो वहां दर्शन के लिए गए तो पुजारियों-महंतों ने उन्हें अन्दर ही नहीं घुसने दिया!

कारण ये था कि तबतक वो रावण का किरदार निभाकर परसिद्ध हो चुके थे। रावण के किरदार में उन्होंने राम और हनुमान के लिए “वनवासी” जैसे शब्द भी इस्तेमाल किये थे। उनकी राम में श्रद्धा है या नहीं, इसपर महंतों को संदेह था। राम को बुरा-भला कहने वाले को अन्दर कैसे आने देते? इस वजह से उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया! इससे फिर ये सोचना पड़ता है कि जिसकी “ला इलाहा...” (कलमा), जिसका मतलब मोटे तौर पर ये होता है कि उनके अल्लाह के अलावा कोई ईश्वर नहीं, में आस्था हो, उसे भला राम में क्या आस्था होगी?

खैर, हमने जब ये किस्सा सुना तो हमने सोचा राम को वनवासी कहना भी चाहिए या नहीं? रामायण को शब्द के तौर पर देखें तो ये राम और अयन से बनता है। अयन शब्द एक अर्थ तो घर होता है, दूसरा अर्थ चलना होता है। अगर राम के जीवन के आधार पर देखें तो एक बड़ा हिस्सा उन्होंने वनों में चलते हुए ही बिता दिया था। आज जिसे वसिष्ठ आश्रम माना जाता है, वो जगह गुवाहाटी (असम) के बाहरी हिस्से में है। अभी भी शहर से वहां पहुँचने के लिए काफी चढ़ाई पार करनी पड़ती है। उस काल की अयोध्या से वहां तक चलकर जाने में काफी समय लगा होगा।

राम सिर्फ गुरुकुल जाने-आने के लिए ही लम्बे समय तक वनों में नहीं चले होंगे। ऋषि विश्वामित्र थोड़े ही समय बाद उन्हें अपने साथ ले जाते हैं। ऋषि विश्वामित्र के यज्ञों में मारीच और सुबाहु आदि राक्षस विघ्न डालते रहते थे। तो विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए दशरथ के पास आये और कहा अपने पुत्रों को मेरे यज्ञ की रक्षा के लिए भेजो। दशरथ घबराये कि इन बच्चों से यज्ञ की रक्षा भला क्या हो पायेगी ? लेकिन वशिष्ठ ने दशरथ को समझाया बुझाया और फिर विश्वामित्र राम लक्ष्मण को लेकर रवाना हुए। रास्ते में एक रात के लिए वो लोग सरयू नदी के किनारे रुके थे। जहाँ वो रुके थे, आज की तारीख में वो इलाका आज़मगढ़ होता है।

यहाँ रुकने पर विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को सिखाया था कि युद्ध कई बार लम्बा खींचता है। कई दिन तक लगातार लड़ने के लिए “पॉवर” यानि बल भी चाहिए, और साथ में “स्टैमिना” यानि अतिबल भी चाहिए। सरयू के किनारे ही विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को बल-अतिबल मन्त्रों की भी दीक्षा दी और ये विद्या सिखाई थी। कई किस्म के चक्र, वज्र और शक्ति जैसे आयुध, खुद पर उनके प्रभाव को रोकने के लिए उपसंहार अस्त्र, और मंत्रसिद्ध अस्त्रों के प्रयोग भी यहीं पर सिखाया गया था। आगे क्या हुआ था इससे आप लोग टीवी देख देख के वाकिफ़ हो चुके हैं।

सीता स्वयंवर से लौटकर भी राम का चलना रुका नहीं था। थोड़े ही समय बाद वो वनवास पर निकलते हैं और चौदह वर्षों तक वनों में ही चलते रहते हैं। हो सकता है कि लम्बे समय तक राम के चलने को “अयन” शब्द से दर्शाया गया हो। राम को बड़े नगरों में रहने वाले किसी राजा की तरह देखने की आम लोगों की आदत भी नहीं होती। जनमानस के राम कहीं दूर महल-दरबार के नहीं बल्कि आस पास के ही किसी परिचित के से होते हैं। राम के चलते रहने में देखने लायक ये भी है कि शुरुआत में जहाँ वो ऋषि विश्वामित्र के साथ चल रहे होते हैं, वहीँ आगे वो चलते चलते अगस्त्यमुनि के पास भी पहुँच जाते हैं।

दो परस्पर विरोधियों (विश्वामित्र और अगस्त्य) के पास एक दूसरे से स्पर्धा तो थी, लेकिन राम के नाम पर वो दोनों एक हैं। तड़का से लड़ने के लिए जहाँ विश्वामित्र बल-अतिबल सिखा रहे होते हैं, वहीँ अगस्त्य भी अस्त्र-शस्त्र प्रदान करते हैं। इसलिए ये भी कहा जा सकता है कि कुछ मुद्दों पर अलग-अलग राय भी हो तो भी एक हुआ जा सकता है। यहाँ ये भी ध्यान देने लायक है कि प्राचीन कथाओं से ना सीखने पर इतिहास खुदको दोहराने लगता है। जो पृथ्वीराज चौहान ने नहीं सीखा था, बिलकुल वही गलती मुगलों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को जगह देकर भी की थी।

बाकी रामायण के अयन का एक अर्थ चलते रहने से ये भी याद आया कि हिन्दुओं की संस्कृति विश्व में सबसे लम्बे काल से लगातार चल रही संस्कृति है। नक़्शे में किनारे की तरफ से थोड़ा-थोड़ा करके जैसे ये कटती जा रही है, उसे देखकर ये कहना कठिन है कि कितने काल तक चलेगी, मगर वो तो फिर एक अलग बात है।

वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस की एक साथ बात करें तो दोनों में कवि श्री राम की कथा ही कह रहे होते हैं। जैसे ही इन्होंने राम की कथा को आम जन तक पहुँचाने का प्रयास किया, वैसे ही इनका खुद का नाम भी अमर हो गया! अब अगर चाहें भी तो रामायण कहते ही वाल्मीकि या रामचरितमानस कहते ही तुलसीदास याद न आएं ये असंभव है। ये एक बार नहीं कई बार हुआ है। अच्छे ढंग से लिखने के बदले, अपनी मर्जी से तोड़ने-मरोड़ने, उसमें कहीं महाभारत तो कहीं दूसरी अनसुनी कहानियां घुसेड़ने वाले आज कल के लेखक भी इसके नाम पर अच्छी खासी प्रसिद्धि (और मुद्रा) बटोर ले जाते हैं।

जहाँ नतीजे ऐसे साफ़, उदाहरणों में दिखें वहां अगर कोई पूछे कि आज के समय में इसे पढ़ने, लिखने या सुन लेने का क्या फायदा? उसे मुस्कुराकर टाल देना चाहिए। आकार की दृष्टी से देखें तो दोनों ग्रंथों में बहुत अंतर है। जहाँ वाल्मीकि की रामायण बहुत वृहत है, तुलसीदास की रामचरितमानस उससे बहुत छोटी होती है। समय काल के हिसाब से दोनों में हजारों साल का अंतर है। तुलसी के काल तक वाल्मीकि के लेखन के आधार पर अनेकों रचनाएँ लिखी जा चुकी थीं। उनकी भाषा भी संस्कृत नहीं इसलिए उनके किये को अर्थ का अनुवाद और फिर उसमें कुछ प्रसंगों का बदलाव माना जा सकता है।

वो वाल्मीकि की रचना पर ही आधारित है, ऐसा मान लिया जाता, तुलसीदास को ये अलग से लिखने की जरूरत नहीं थी। संभवतः तुलसीदास की नैतिकता के मापदंड आजकल के हिन्दी लेखकों जैसे नहीं थे इसलिए वो शुरुआत में ही स्पष्ट लिख देते हैं कि उन्होंने आधार किसे माना है। एक भाषा से दूसरी भाषा में करते समय मूल लेखक का नाम गायब नहीं करते। जिस व्यक्तित्व तो इन दोनों कवियों ने अपनी रचना के केंद्र में रखा, उन्हें देखें तो एक बात स्पष्ट है कि राम पूर्व के काल में मत्स्य न्याय चल जाता था। जिसके पास लाठी है, भैंस भी उसी की होगी वाला जंगल का कानून था।

अगर किसी को आपकी पूजा पद्दतियों, आपके यज्ञ करने पर आपत्ति है तो वो मारीच की तरह उसमें हड्डियाँ फेंककर जा सकता था। अगर किसी को आपके रहने के क्षेत्र अपने क्षेत्र से ज्यादा हरे-भरे, पशु-पक्षियों से भरे, रमणीय लगते हैं तो वो ताड़का की तरह जबरन घुसपैठ करके वहां बस सकता था। अगर किसी को अपनी पत्नी के अलावा दूसरों के घरों की स्त्रियाँ पसंद आ जाएँ तो वो रावण या बाली की तरह उन्हें उठा कर ले जा सकता था। श्री राम धर्म को व्यक्ति से पहले रखते हैं, स्वयं से भी आगे। यही वजह है कि जब “रावन रथी विरथ रघुवीरा” देखकर विभीषण अधीर होने लगते हैं तो तुलसीदास राम के रथ के रूप में धर्म के लक्षणों की पुनःस्थापना कर देते हैं।

तुलसीदास भक्ति काल के कवि हैं तो उनका ग्रन्थ जहाँ भक्ति से सराबोर है, वहीँ वाल्मीकि के रामावतार मर्यादापुरुषोत्तम हैं, उनके गुणों की अपेक्षा आम आदमी से की जा सकती है। दोनों की बात इसलिए क्योंकि न पढ़ने से कई समस्याएँ हैं। उदाहरण के तौर पर वाल्मीकि रामायण या किसी “लक्ष्मण-रेखा” की बात नहीं करता। तो कई बार मर्यादा लांघने के लिए जो लक्ष्मण-रेखा पार करना कहा जाता है, उसका सन्दर्भ रामचरितमानस का लंका कांड (रावण-मंदोदरी संवाद) होगा। कई बार लोग हनुमान चालीसा को रामचरितमानस का ही कोई हिस्सा “मान” लेते हैं। वो भी रामचरितमानस में नहीं आता।

कथा का एक क्रम में होना रामायण कहलाने के लिए आवश्यक है इसलिए कम्ब रामायण होती है लेकिन तुलसीकृत रामायण नहीं कह सकते। उनकी रामकथा का नाम रामचरितमानस ही रहेगा। काण्डों के नाम में जहाँ राम-रावण युद्ध होता है उसे वाल्मीकि युद्ध काण्ड कहते हैं और तुलसीदास लंका कांड। वाल्मीकि के सुन्दरकाण्ड में वीभत्स, रौद्र जैसे रस आयेंगे लेकिन तुलसीदास की भक्ति इसे एक दो बार भी उभरने नहीं देती। यानी सीधे तौर पर कहा जाए तो भावना बेन नाजुक होने पर वाल्मीकि रामायण पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ऐसे में रामचरितमानस ठीक रहेगा।

बाकी चर्चा इसलिए क्योंकि दोनों ग्रन्थ हमारे हैं, इसलिए उनपर बात भी हमें ही करनी होगी। अंडमान के आदिवासियों की तरह आत्मा-चोर गिद्धों को तीर नहीं मारेंगे तो कब नोच भागे इसका कोई ठिकाना नहीं!
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
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