कैसे तुमको बतलाऊँ
कैसे तुमको बतलाऊँ, क्या कर कैसे समझाऊँ,
जीवन में कितनी ख़ुशियाँ, काँटे तुमको दिखलाऊँ?
अपनों की रूठा रूठी, ग़ैरों का नित आँख दिखाना,
निज स्वार्थ अपने बनते, कैसे यह पहचान कराऊँ?
जेब खुली और मुँह बन्द, आँखों पर भी पर्दा हो,
ग़ैरों के मन को भाते, अपनों की क्या बात बताऊँ?
सबके दुख में खड़े रहो, निज दुख की चर्चा न हो,
गिरगिट से रंग बदलते देखे, कैसे तुमको समझाऊँ?
जिनके सुख की ख़ातिर, निज हित को भी त्याग दिया,
रिश्ते नातों की ख़ातिर, अपनी ख़ुशियों को वार दिया।
फिर भी वो सब रूठे रूठे हैं, कुछ सच्चे कुछ झूठे झूठे हैं,
सिखलाया व्यवहार जगत का, कैसे इनको बिसराऊँ?
अ कीर्ति वर्द्धन
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