कुर्सियाँ खाली नहीं रहतीं
रामकृष्ण
भले पुतले बदलते हों
दबे कुचले सम्भलते हों
लीक नियमो की बनाते
और उनको कुचलते हों
किंतु अनगढ़ सोंच पर
ताली नहीं बजती!!
मुकुट की जगमग चमक
कुछ दे सकेगी क्या
आसरे में हर शरीरी
करे मी तो क्या
पाक्षदानो की बही
जाली नहीं बनती!!,
मुस्कुराने कै लिए
अनगिन बहानै हैं
भीड़ से कुछ अलग के
भी तो तराने हैं
किंतु ओढे त्रासदी
क्या जिंदगी चलती??
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