मंच – माइक – मर्यादा
कमलेश पुण्यार्क
जानकार लोग कहते हैं कि माइक और मंच का बिलकुल चोली-दामन वाला सम्बन्ध है। माइक के साथ मंच न हो या मंच के साथ माइक न हो तो दोनों अधूरे लगते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सृष्टि में पुरुष बिन स्त्री और स्त्री बिन पुरुष। आदमी की कद-काठी के अनुसार माइक की भी कद होती है। भले ही आदमी को ठिगना-लम्बा न किया जा सके, किन्तु माइक के साथ ये सहूलियत है। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि माइक और मंच के लिंगानुशासन पर विचार करना फिज़ूल है, क्योंकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कई वर्ष पहले ही पाश्चात्य विचारधारा का पोषण-पल्लवन करने के ख्याल से समलैंगिक सम्बन्धों पर मुहर लगा दी है। नतीजा ये है कि मंच और माइक का आपसी सम्बन्ध जब जुड़ता है, तो सारी मर्यादायें तार-तार होने लगती हैं, क्योंकि इन दोनों को किसी तरह की मर्यादा में रहना कतई गवारा नहीं है। दोनों में कौन किस पर हावी है—कहना मुश्किल है। बोलनेवाले की बस चले तो माइक के भीतर घुस बैठे। घोर कोरोना काल में भी सोशल डिसटेसिंग वाला नियम यहाँ बिलकुल अमान्य है। दरअसल हर वक्ता फिजिक्स वाली साउण्ड थ्योरी तो पढ़ा नहीं होता। उसकी समझ यही होती है कि माइक को मुंह में टॉफी की तरह धर कर बोलेंगे तो मधुर आवाज निकलेगी। और इससे भी अहम बात ये है कि प्रॉपर रिक्वायर्मेन्ट के अनुसार साउण्ड सेटिंग के विषय में तो कोई सोचना ही फ़िज़ूल समझता है। 50x20 के हॉल में भी 114 डेसीबल का डीजे बजा दिया जाता है, भले ही कमजोर दिल वालों की मौत का पैगाम क्यों न आ जाए। रही सही कसर को एल.ई.डी. लेजर लाइटें पूरा कर देती हैं। वैसे भी हमारे यहाँ नियम-कायदे सिर्फ कानून की किताबों में ही शोभा पाने के लिए बने हैं या कहें ‘अदालती भैंसों’ के पागुर के लिए ही ज्यादा उपयोग होता है कानून का। साउण्ड पॉल्यूशन भी मानसिक हिंसा के दायरे में आता है—हमारे यहाँ किसी को समझ नहीं। अवसर सामाजिक हो, धार्मिक हो या कि राजनैतिक कानफोड़ू-दिलतोडू आवाज के बिना तसल्ली ही नहीं होती। देवी-देवता भी बिना डी.जे. के प्रसन्न ही नहीं होते। मंच पर हाथों में माइक लेकर, जितने जोर से चीखा-चिल्लाया जाए—उतना ही प्रभावशाली वक्ता माना जाता है।
खैर, माइक और मंच की बात निकल पड़ी है, तो सोढ़नदास के बावत भी कुछ कहना ही पड़ेगा। हालाँकि सोढ़नदासजी से तो वाकिफ़ ही होंगे आपलोग, क्योंकि समय-असमय कुछ न कुछ कहने-सुनाने के लिए अकसर तत्पर रहते हैं। मंच और माइक की परवाह किए वगैर, सोढ़नदासजी कहने-सुनाने से बाज नहीं आते। धर-पकड़कर कहने-सुनाने की पुरानी लत है उन्हें, जबकि खुद किसी की सुनने में उतनी दिलचश्पी नहीं।
यदि ढूढ़ने निकलें तो पायेंगे कि ऐसे बहुत लोग हैं हमारे समाज में— सुनने वाला उत्सुक हो न हो, सुनाने वाला बेचैन रहता है। सदा मौके की तलाश में रहता है।
पुराने समय में मरकट-मुखधारी एक नारद शीलनिधि-राजकुमारी के स्वयंवर में उछल-कूद कर अपना चेहरा दिखाने को तत्पर दिखे थे। आज अनगिनत नारद इस कवायद में पिले हुए हैं। स्वयंवर की रूपरेखा में आज के नये जमाने में बिलकुल बदलाव आ गया है। स्वयं वरित या अभिभावक चयनित वर-बधु परस्पर गले में माला डालते हैं, अँगूठियों का आदान-प्रदान करते हैं। इसके लिए टेन्ट-हाउसी भारी-भरकम सिंहासन की व्यवस्था होती है। फोटोशूट और वीडियोग्राफी के वगैर तो आजकल बेडरुम से लेकर लैट्रिन-बाथरूम तक की कार्रवाई अधूरी लगती है, फिर जयमाला-स्टेज का क्या कहना ! लड़का-लड़की द्वारा जयमाला की रस्म अदायगी के बाद, खाली पड़े सिंहासन पर कई लोग धक्का-मुक्की करते अक्सर देखे जाते हैं। बारी-बारी से बैठ-बैठकर सेल्फीमोड में फोटो शेयर करते हैं, क्योंकि इन बेचारों के पास तो ‘प्रीपेड कैमरामैन’ होता नहीं। कुँआरे तो कुँआरे हैं ही, उन्हें जयमाला-स्टेज का सपना देखना स्वाभाविक है, किन्तु बहुत बार ऐसा भी होता है कि पुराने विवाहित भी इस क्षण का लुफ़्त लेने से बाज नहीं आते—गर्लफ्रैन्ड-ब्वॉयफ्रैन्ड्स के साथ।
सामाजिक चलन की देखादेखी, इधर कुछ दिनों से सोढ़न दासजी भी आजमाने की कोशिश कर रहे हैं, इस चलनसार विधा को। बेचारे को कोई मंच देता नहीं, माइक मिलता नहीं। हालाँकि अनुभवियों का मानना है कि इन्हें मंच-माइक न मिलने के अनेक कारण हैं, जिनमें आत्मश्लाधा और हाईलेबल एडेसिव यानी अपनी प्रशंसा और चिपकू नेचर — सबसे बड़ी बजह है। और आप जानते ही होंगे कि नेचर और सिंगनेचर बदलना बड़ा कठिन काम है। ऐसे में किसी सम्मेलन में आमन्त्रण-निमन्त्रण के मामले में बिलकुल निरपेक्ष होकर, मौका पाते ही देर-सबेर जा उपस्थित होते हैं सोढ़नदासजी। वहाँ पहुँचकर, किसी कोने में खाली पड़ी कुर्सी डटा लेते हैं। बीच-बीच में उचक-उचक कर दायें-बायें ताकते हैं कि उन्हें किसी ने अबतक देखा क्यों नहीं और यदि देखा तो नोटिस क्यों नहीं किया—हाय-हेलो, राम-सलाम करके।
घंटे दो घंटे में सम्मेलन की गतिविधियाँ जब ढलान पर होती हैं—मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि, विशिष्टाविशिष्ट अतिथि, सामान्य अतिथि, असामान्य अतिथि, अधिअक्ष, वक्रअक्ष — सबके सब जब जम्हाइयाँ लेने लगते हैं, या लघुशंका-दीर्घशंका-सुदीर्घशंका आदि के समाधान हेतु मंच छोड़ कर बाहर निकल पड़ते हैं और देर तक मंचासीन नहीं होते, तो मौके का लाभ उठाकर मंचस्थ कुर्सियों का लुफ़्त लेने लपक कर पहुँच जाते हैं सोढ़नदासजी। भले ही बाकी समय उनके होठों तले बुद्धिबर्धकचूर्ण दबा रहता हो, किन्तु ऐसे संगीन समय में मुंह में मगहीपान की गिलौरी जरूर होती है और रंगीन बत्तीसी को कोशिश कर करके झलकाने में नहीं चूकते। इतना ही नहीं, कोई इनका हाल-चाल पूछे न पूछे, ये बगल वाले का हालचाल पूछने में क्षण भर भी विलम्ब नहीं करते। बबुआ के छठिहार से दादा के ब्रह्म-ज्योनार तक का समाचार एक्सपर्ट ग्राउण्ड रिपोर्टर वाले अन्दाज में करते हैं। और इतना सब करते-कराते किसी ना किसी बैरा-बट्लर, सेवक-शागिर्द की निगाह पड़ ही जाती है, जो अदब-कायदे से सलामी दागता है और देर से आने पर खेद प्रकट करते हुए, बचे-खुचे नास्ते का बासी डब्बा मुहैया करा देता है। मंचस्थ लोगों से लम्बी बातचीत के दौरान, ऐंकर की कनखिया निगाहों के रास्ते आरजू पहुँच जाती है—दो मिनट हमें भी....।
और फिर क्या कहना, ऐंकर की कृपा से सोढ़नदासजी की मुँहमांगी मुराद पूरी हो जाती है— ‘ हसुआ के विआह में खुरपी के गीत ’ वाले अन्दाज में शेरोशायरी, चुराई गयी या कहें उड़ाई गयी कविताएँ—सबकुछ बाँच जाते हैं बेचारे सोढ़नदासजी। इतनी कोशिश के बावजूद यदि तालियाँ नहीं बजती तो बजवाने का आग्रह भी दुहराते जाते हैं—हर दो मिनट पर। बहुत छानबीन करने पर पता चला— दरअसल किसी नजदीकी सलाहकार ने सुझा दिया है इन्हें कि जीतने-हारने की परवाह किए वगैर आगामी चुनाव में अवश्य श़रीक होना है, वोटकटवा गिरोह का अच्छा खासा अनुदान लाभ होगा। अतः उसके लिए पहले से थोड़ा-बहुत प्रैक्टिश होना जरुरी है।
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