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विंध्यधाम में बिराजी माँ विंध्यवासिनी

विंध्यधाम में बिराजी माँ विंध्यवासिनी

(पं. आर.एस. द्विवेदी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
आदिशक्ति जगदम्बा विंध्यवासिनी एवं उनके विंध्यधाम की महिमा अपार है। अनादिकाल से सम्पूर्ण विश्व में किसी न किसी रूप में महाशक्ति की उपासना का प्रचलन रहा है। विश्व का कण-कण शक्ति की कामना को लेकर इस शक्ति की अराध्य देवी की उपासना, आराधना एवं वंदना में रत रहता है। हमारे वेदों में भी सभी देवताओं ने इस महाशक्ति की उपासना की है। भगवान शिव इनकी महत्ता को स्वीकारते हुए कहते हैं कि शक्ति के बिना ‘शिव’ भी ‘शव’ है। भगवान विष्णु ने इसकी महत्ता को स्वीकारते हुए कहा कि जिस प्रकार प्रखर बुद्धि वाले व्यक्ति भी शक्ति के बिना जगत की रक्षा की सामथ्र्य नहीं रखते हैं उसी प्रकार मैं भी शक्ति सम्पन्न रहने पर ही इस सृष्टि की रक्षा और पालन करने में समर्थ रहता हूं। शक्ति की महत्ता को स्वीकारते हुए भगवान सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी कहते हैं कि मिट्टी के बिना कुम्हार जैसे घड़ा नहीं बना सकता, सोने के बिना स्वर्णकार स्वर्णाभूषण नहीं बना सकता, वैसे ही शक्ति की कृपा के बिना मैं सृष्टि की रचना करने में अपने को असमर्थ पाता हूं।

इस शक्ति की मूलाधार माँ जगदम्बा के उपासना के लिए वैसे तो कोई देशकाल का बन्धन नहीं है। वर्ष में आराधकों के लिए दो ऐेसे अवसर आते हैं जब वासन्तिक नवरात्र, एवं शारदीय नवरात्र के अवसर पर नव दिनों़़़़़़़़ में माँ की आराधना करके उसे सहजता से प्रसन्न किया जा सकता है। इन दोनों काल को माँ जगदम्बा विन्यवासिनी की आराधना का श्रेष्ठ समय माना गया है।

मातृ शक्ति की पूजा का इतिहास इतिहासकार भी अति प्राचीन मानते हैं उनका भी मानना है कि सामूहिक उपासना एवं मातृ देवियों की उपासना एक ही समय होती रही है। विन्ध्य देश के विन्ध्याटवी के गहन वनों में आग्नेय, शवर, बर्बर पुलिंद आदि जन जातियां वास करती रही हैं ये जन जातियां क कुमारी देवी के पूजा का प्रचलन आर्यों के सम्मेलन के साथ-साथ हिमालय की तराई तक फैला हुआ था, उसी देवी को कालान्तर में विंध्यपर्वत पर निवास करने के कारण माँ विन्ध्यवासिनी के नाम से पुकारा गया।

प्रकृति रूपा इस देवी का जन्म ही अति प्राचीन विन्ध्य पर्वत पर ही हुआ था। शतपथ ब्राह्मण एवं केनोपनिषद में वर्णित है कि कालान्तर में पर्वत पर निवास करने के कारण ही इसी देवी को ‘पार्वती’ के नाम से पुकारा गया, भगवती उमा हेमवती रूद्र की बहन थीं। जिस प्रकार उमा को भगवान रूद्र के साथ जोड़ा जाता है उसी प्रकार पार्वती के साथ एक देवता वर्णित होता है, जिसे तांत्रिक भाषा में भैरव कहकर पुकारते हैं माँ विन्ध्यवासिनी को आदिकाल से शक्ति की देवी के साथ उनके ममतामयी चरित्र के साथ उनके पौरूषेय गुणों के कारण मान्यता मिलती रही है, माँ ने अपने पौरुषेय गुणों को प्रदर्शित कर दुर्घर्ष साम्राज्यवादियों के साथ युद्ध कर मानवता के साथ देवत्व की भी रक्षा की उनमें घोर ब्रजदण्ड, चण्डमुण्ड, शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज, भद्रमलोचन के साथ हुए युद्ध प्रसिद्ध है। सदैव इस मां ने आततातियों का नाश कर सभ्य प्रजा की रक्षा का धर्म निभा कर अपनी ममतामयी रूप का परिचय दिया।

विश्वमें सभी पूजित देवियों को विन्ध्यवासिनी/पार्वती/उमा का अंश स्वीकारा गया है। आदिकाल से इस सर्वशक्ति सम्पन्न कुमारी, सर्वशक्ति सम्पन्न देवी की विंध्यपर्वत पर की जाने वाली पूजा स्वयं में एक प्रमाण है। इसी देवी को ‘योगमाया’ के नाम से जाना गया। ‘नन्द गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ सम्भवा...’ के उद्धरण से भगवान कृष्ण की भगिनी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है जो कंस के हाथ से छूटकर विन्ध्यपर्वत पर अष्टभुजा देवी के नाम से स्थित है जो ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी भी है। इसकी पुष्टि महाभारत के भीष्मपर्व हरिवंश देवी, भागवत मारकण्डे पुराण, विष्णुपुराणों में विन्ध्यवासिनी देवी का वर्णन आया है। देवी पुराण में इस देवी के लिए दुर्गा, उमा, शिवा, देवी, ब्रह्माणि, विन्ध्यवासिनी, चामुण्डा, पराशक्ति, कात्यायिनी, कौशिकी, पार्वती, नारायणी, मीना, धूमा, अम्बिका, लक्ष्मी, चण्डी, कपालिनी, काली, कज्जला, महिषासुर मर्दनी, नन्दा, भवनी, तारा, वैष्णवी, महालक्ष्मी, श्वेता, योगेश्वरी आदि सैकड़ों नाम से पुकारा गया है। आध्यात्मिक चिंतन के स्तर पर इस देवी माँ का योगियों ने इस तरह वर्णन किया है। माँ विन्ध्यवासिनी, त्रिनेत्रा, शंख, चक्रवर अभय धारण करने वाली चतुर्भजा, गैवेय, अंगद, हार कुण्डल सुसज्जित विद्युत के समान तेजस्विनी, चन्द्रमा के समान मनोहारिणी इन्द्र आदि देवताओं द्वारा नित्य पूजित है। माँ के चरण सदा सिंह विराजता है। महिषासुर नाशिनी मां का वेदान्त परक ध्यान साधकों को आत्मज्ञान प्रदान करता है-जिसका चिन्तन इस रूप में किया जाता है। उत्तमत्कों के तीक्ष्ण धार वाले सर्वखल्विंद ब्रह्म तत्वमसि सोड़ह महावाक्य रूपी त्रिशूल के प्रहार से विदीर्ण मेरे मोह रूपी महिष के प्रध्वंस के लिए उद्यत आनन्द रूपी अमृत का वहन करने वाली चित शक्ति नाद रूपाकुण्डलिनी ब्रह्मविद्या वेदांत स्वरूपिणी और नादरूपा कुण्डलिनी ब्रह्मविद्या वेदांत स्वरूपिणी और उप निषद ज्ञान के द्वारा प्रतिबोधित विंध्याचलीधीश्वरी की जय हो।
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