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दुविधा कलमकार की

दुविधा कलमकार की

- मनोज मिश्र
लिखने बैठा सोचता हूँ क्या कैसे लिखूं कि छप जाऊं मैं,
सत्य लिखूं या मिथ्या मिला कुछ समझ न पाऊं मैं।
सत्य गर लिख डाला तो संपादन में कहीं न छट जाऊं मैं,
असत्य लिखता हूँ तो कदर उसकी बहुत पाता हूँ मैं।
पर लेखनी का जबरन गला घोंट के कैसे लिखूं मैँ,
जिससे असहमत मैं खुद ही हूँ, उसे कैसे जियूँ मैं।
जरूरतें कहतीं कि लिख डाल बात दाल रोटी की है,
कत्ल आत्मा का कर डाल ये बात बहुत छोटी सी है।
हैं कौन जो पढ़ते तुझे पूरे आस और विश्वास से,
कौन देखते हैं तेरी तरफ किसी नई लीक की आस से।
चांदी के सिक्कों की खनक से तू बस दिल लगा,
छोड़ दे सत्य निष्ठा कर्तव्यबोध सुचिता बस दुम हिला।
बाज़ार में अकेला खड़ा उखाड़ तू लेगा ही क्या,
भीड़ में चल किसी मंज़िल तलक आ ही जायेगा।
खुश रहेंगे सभी; परिजन बीबी बच्चे , सोचना क्या,
दुनियादारी की दुनिया मे हरिश्चन्द्र बिकता ही है रहा।
मत बन अभिमन्यु कि सामने रथी सभी छली हैं,
जाएगा तू प्राण से, वो संगठित, धनी और बली हैं।
थक हार के सर कंधे झुका कर सोचता हूँ मान लूँ,
कर लूं समझौता खुद से ही ईमान निष्ठा त्याग दूँ।
कदम मगर बढ़ते नहीं ये राह मेरी कभी रही नहीं,
जिया हूँ सर उठाकर हमेशा टूटना रही फितरत नहीं।
नहीं, ये कलम न रुकेगी नहीं झुकेगी, टलेगी न राह से,
प्रहार सीने पर भी सहेगी पर लिखेगी केवल सत्य ही।
सत्ता विपक्ष के खेल में दम सच का नहीं घुटने दूंगा,
स्वहित के लिए कभी जन हित को नहीं दबने दूँगा।
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