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साँप बनाम देशद्रोही

साँप बनाम देशद्रोही

जब से साँपों को चढ़ने को सीढ़ी मिली,
चढ़ के  सिर पर सभी  को  डराने लगे।
आस्तीनों  में   रहते   थे  छुप के कभी,
अब  खुलेयाम    आँखें   दिखाने लगे।।

रंग - सूरत  अनेकों  हैं  इनके मगर,
काटना इनकी नीयत में शामिल सदा।
दूध जी - भर पिलाओ, पिलाते रहो,
बस जहर ही जहर होगा हासिल सदा।।

चाहे चंदन की शाखों पर इनको रखो,
या सुलाओ इन्हें अपने आगोश में।
पा के अवसर डँसे थे, डँसेंगे तुम्हें,
जोश के सँग रहो पर रहो होश में।।

लाख वादे करेंगे, कसम  खाएँगें,
कुछ मुखौटे लगाएँगे फिर से नया।
खोल ओढ़े शराफत की शर्माएँगें,
चाहेंगे कि मिले इनको फिर से दया।।

पर दया न दिखाना किसी हाल में,
फँस न जाना दुबारा नई चाल में।
साँप कैसे भी हैं, साँप बस साँप हैं,
कोई फँसने न पाए पुनः काल में।।

हाथ में रक्खो डंडा व जंजीर भी,
खोजकर इनको मारो जहाँ भी मिलें।
देशद्रोही  व  इनमें  नहीं  फर्क है,
जब भी अवसर मिला,देश को हैं छलें।।

आँख खोलो व सीखो तवारिख पढ़ो,
सैकड़ों बार धोखा दिए देश को।
बाहरी  दुश्मनों  से न   हारे कभी,
देशद्रोही   बिगाड़े हैं परिवेश को।।

साँप और देशद्रोही सहोदर सरिस,
ये जहाँ भी मिलें, इनको बाहर करो।
देश में, खुद में चाहो अवध चैन गर,
ये न बाहर करें, इनको बाहर करो।।

डॉ अवधेश कुमार अवध
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