हॉस्टल में / नौकरी / व्यवसाय में देश विदेश रहते हुवे भारत के विभिन्न प्रदेश के लोगों के साथ रहना हुआ.
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
यह अच्छे से मालूम था कि चैत्र नवरात्रि का पहला दिन महाराष्ट्र में गुड़ी पर्व, आंध्र में उगादी, केरल में विशु, असम में बिहू, सिंध में चेतिचाँद के रूप में मनाया जाता है. भारत के लगभग सभी प्रांत के लोग इसे ज़बर्दस्त जोश से मनाते थे, हम भी इसे नवरात्रि के प्रथम दिवस के रूप में मनाते थे. इससे अधिक न पता था न पता करने की चेष्टा ही की. यह अवश्य पता था कि यह हिंदू नव वर्ष है, परन्तु यह मनाता कौन है. यह अनकूल था.
पहली बार 2011 में एक गोष्ठी में श्री हृदय नारायण दीक्षित जी की अध्यक्षता में एक गोष्ठी में इस विषय पर चैत्र प्रतिपदा पर बोलने और सुनने का अवसर मिला. थोड़ा गूगल किया, थोड़ा प्रबुद्ध वक्ताओं को सुना, तब चैत्र प्रतिपदा नवरात्रि की महत्ता समझ आई. तब समझ भी आया भले ही प्रक्तिकलिटी की दृष्टि से हम अंग्रेज़ी कैलेंडर माने, अंग्रेज़ी तारीख़ों पर जन्म दिवस आदि मनायें, पर उल्लास की दृष्टि से हम समस्त भारतीयों के मन मस्तिष्क को प्रभावित करने वाला नव वर्ष तो यही है.
इस तिथि को एक अजीब सा उल्लास, उत्साह स्वयमेव रहता है. ऐसा मौसम है जो न बहुत ठंडा है न बेहद गर्म. खेतों की फसल कट चुकी है. छात्रों का भी पुराना वर्ष समाप्त हो गया है, नया आरम्भ होने वाला है. व्यापारियों का भी नया वित्तीय वर्ष आरम्भ हो गया / होने वाला है. प्रकृति में चहु ओर चिड़ियों की गुंजन है. सड़कों पर खुश / प्रफुल्लित चेहरे दिख रहे हैं. मनुष्य से लेकर पशुवों तक सभी को यह मौसम अति प्रिय है. स्वयं महसूस होता है. उस पर नवरात्रि वृत की शक्ति. जहां अंग्रेज़ी नव वर्ष पार्टी माहौल लगता है तो भारतीय नव वर्ष नए कार्य आरम्भ करने वाला मुहूर्त लगता है. व्यवसाय, नौकरी, शिक्षा, जीवन सबमें नई शुरुआत भारतीय नव वर्ष चैत्र प्रतिपदा से ही होती है.
यह देख कर प्रशन्नता होती है कि बीते कुछ वर्षों में हिन्दी बेल्ट ने भी अपनी संस्कृति पर गर्व करना सीख लिया है. सोसल मीडिया पर अधिसंख्य मित्र अब इस पर्व पर नव वर्ष की शुभ कामनाएँ देने लगे हैं.
✍🏻नितिन त्रिपाठी
विक्रम संवत् और हम
एक सज्जन कुछ वर्षों पहले मेरे पास आए और मुझे गर्व से बताते हुए उन्होंने एक कैलेण्डर दिखाया। उस पर बड़े अक्षरों में लिखा था : हिन्दू कैलेण्डर। वे विक्रम संवत का अनुवार्षिक प्रकाशन हिंदू नववर्ष की तरह करते थे। मैंने कहा कि बस यहीं पर मेरा मतभेद है। यह एक औपनिवेशक सत्ता द्वारा काफी चालाकी से खेले गए एक खेल का परिणाम है कि हम भी उन्हीं की पिच पर उन्हीं की शर्तों पर खेलने के लिए तत्पर रहते हैं। इसी औपनिवेशिक सत्ता ने ‘हिंदू’ शब्द का अर्थ-संकुचन किया था और इसी ने ही विक्रम संवत को भी एक सांप्रदायिक परिधि में बांध दिया। आज विक्रम-संवत एक धार्मिक पहचान वाला संवत् इस हद तक बन गया है कि आज से कुछ सालों पहले जब मध्यप्रदेश सरकार ने इस संवत् के पहले दिन अर्थात् वर्ष प्रतिपदा को अवकाश की घोषणा की तो कुछ हल्कों में उसे एक सांप्रदायिक पहल तब तक बताया जाता रहा जब तक कि उनके सामने यह तथ्य न लाया गया कि केरल में सरकार राज्य भर में चिंगम प्रथम पर आयोजन करती है। मलयालम कैलेंडर- ‘कोला वर्षम्’ तो फिर भी कोल्लम में शिव मंदिर निर्मित करने के उपलक्ष्य में 825 ई. में शुरू हुआ था। लेकिन विक्रम संवत् के प्रवर्तन में तो इतनी भी मजहबी या सांप्रदायिक संवेदना नहीं है।
जितनी कि उस तथाकथित ‘सिविल’ कैलेण्डर में है जिसे दुनिया के एक बड़े हिस्से में ‘क्रिश्चियन केलेण्डर’ के रूप में जाना जाता है। इसे पोप ग्रेगरी तेरहवें ने 1582 में प्रवर्तित किया था। पोप की धर्माज्ञा (Papal Bull) 24 फरवरी, 1582 को Inter Gravissimas के नाम से निकली थी। इसे प्रवर्तित करने की मुख्य प्रेरणा ईस्टर के पर्व की तिथि का समायोजन करना था। चर्च ऑफ रोम और चर्च ऑफ अलेक्ज़ेड्रिया में इस बारे में मतभेद चला आ रहा था। ऐसा कर ये मतभेद दूर किये गए। इसके बाद भी इसे शुरू में कैथलिक चर्च और पोपाधीन राज्य- यानी रोम, मार्शे, अंब्रया, रोमाग्ना के बाहर नहीं स्वीकार किया गया था। यह राज्य इटली प्रायद्वीप का एक हिस्सा मात्र था। प्रोटेस्टेंट और आर्थोडॉक्स सहित कुछ अन्य चर्चों ने भी इसे नहीं स्वीकारा था। जब पहली बार इस केलेण्डर को प्रकाशित किया गया था तो इसकी बॉटमलाइन में पोप की अधिकृति (ऑथोरॉइजेशन) का उल्लेख था। ब्रिटेन और ब्रिटिश साम्राज्य ने 1752 से पहले तक इस केलेण्डर को नहीं स्वीकारा था। यानी ब्रिटिश प्रतिरोध लगभग 170 वर्ष तक चला। स्वीडिश प्रतिरोध 171 वर्ष। फ्रांस ने इसे स्वीकार भी किया और 1793 में इसे त्यागकर फ्रेंच रिपब्लिकन कैलेण्डर प्रवर्तित किया। 1805 में उसने इसे वापस स्वीकारा।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि पोप ने अपनी धर्माज्ञा में ऐसे कैलेण्डर जारी करने को अपना पारंपरिक प्राधिकार बताया था। उसने तब कहा था : ‘’By this our decree, we therefore assert what is the customary right of the sovereign pontiff, and approve the calendar which has now by the immense grace of God towards his church been corrected and completed, and we have ordered that it be printed and published at Rome… We wish all patriarchs, primates, archbishops, bishops, abbots and others who preside over churches, to introduce the new calendar for reciting divine offices and celebrating feasts in all their churches, monasteries, convents, orders, militias and dioceses. ’’
इस प्रकार आज का तथाकथित “धर्मनिरपेक्ष” कैलेण्डर मूलतः एक धार्मिक/ सांप्रदायिक कैलेण्डर था। एक संप्रदाय विशेष के प्रमुख द्वारा जारी किया गया था। इसे प्रवर्तित करने की प्रेरणा और कारण भी धार्मिक था और इसका प्रयोजन व उपयोग भी प्रमुखतः धार्मिक था। दूसरी ओर आज 'हिंदू' कहा जाने वाला कैलेण्डर एक राष्ट्रीय उपलब्धि को अनुष्ठानित करने के लिए एक शासक/ प्रशासक के द्वारा स्थापित और प्रवर्तित कैलेण्डर था। यह राष्ट्रीय पराक्रम के सम्मान में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य द्वारा तब आरंभ किया गया जब उसकी सेनाओं ने 95 शक राजाओं को पराजित कर भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। भारत में संवत् ऐसे ही स्थापित/ प्रवर्तित नहीं हो जाते। शास्त्रीय मान्यता यह थी कि जिस नरेश को अपना संवत् चलाना हो, उसे संवत् चलाने के दिन से पूर्व अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुकाना होता था। महाराजा विक्रमादित्य ने अपने राज्य कोष से धन देकर दीन दुखियों को साहूकारों के कर्ज से मुक्त किया था। इसकी तुलना आजकल की कर्ज माफी योजना से भी नहीं की जा सकती क्योंकि तब सिर्फ राजकीय ऋण ही नहीं माफ किए गए थे बल्कि निजी मनीलेंडर्स सहित किसी से भी लिए हुए कर्ज से मुक्त किया गया था। विक्रम शब्द सिर्फ तत्कालीन शासक का निजी नाम ही नहीं था बल्कि राष्ट्र की शक्ति और पराक्रम का परिचायक था। सारे पश्चिमी भारत सौराष्ट्र (काठियाकाड़), गुजरात, अवंती तक शक छा गए थे। सिंध, तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र तक में उनके केन्द्र बन चुके थे। उन विदेशी आक्रान्तों को पराजित करने का पराक्रम राष्ट्र ने दिखाया था, उसकी स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए यह संवत् प्रवर्तित किया गया था।
फ्लीट और फर्गुसन आदि बहुत से औपनिवेशक इतिहासविदों ने विक्रम संवत् के बारे में भ्रांतियाँ फैलाने के अधकचरे प्रयास किए हैं। फ्लीट उसे शकों द्वारा प्रवर्तित बताते हैं। 'शकारि' द्वारा नहीं। कोशिश यही रही है कि विक्रम संवत् राष्ट्र की विदेशियों पर विजय का स्मारक-संवत् न रहकर उसकी पराजय की स्मृति में बदल जाए। लेकिन ऐसे प्रयास अपने ही अंतर्विरोधों से ध्वस्त हो चुके हैं।
कल्पना कीजिए कि यदि भारत गुलाम नहीं हुआ होता तो क्या ग्रेगोरियन कैलेण्डर हम पर लादा जा सकता था? आज भी सरकार और राज्य ने भले ही इसे चला रखा है, लेकिन भारतीय समाज अपने पर्व-त्यौहार ग्रेगोरियन कैलेण्डर से नहीं मनाता। न अपने घर-परिवार की ब्याह-शादियों का निर्धारण उससे करता है। तो समाज राष्ट्रीय कैलेण्डर से चल रहा है और राज्य धार्मिक कैलेण्डर से। राज्य और समाज के बीच फांक के बारे में बहुत से उदाहरण हैं। लेकिन 'स्टेट' और 'चर्च' के पृथक्करण की यहाँ इस बिंदु पर एक हद तक उपेक्षा कर दी गई है। 'चर्च' की तारीखें स्वतंत्र भारतीय राज्य द्वारा अपना ली गई हैं। यह औपनिवेशिक बोझ है जिसका प्रसन्नतापूर्वक परिवहन हम सब कर रहे हैं।तो अब हम पर्यावरण दिवस 5 जून को मनाते हैं जब प्रकृति अपनी सबसे लुटी-पिटी हालत में होती है, हरियाली तीज या हरियाली अमावस्या पर नहीं जब प्रकृति की सुषमा अपने गौरव में खिलती है।
अब हम इस प्रशासकीय उपलब्धि पर बने कैलेण्डर का कोई प्रशासनिक विनियोग भी नहीं करते। गुलामी के पहले ऐसा विनियोग करते हुए हमें किंचित् भी शर्मिन्दगी महसूस नहीं होती थी। तब वसंत पंचमी के दिन स्लेट-पट्टी पर लिखना सिखाया जाता था और वह दिन शाला का प्रवेशोत्सव वाला दिन होता था। 'ओनामासी धम/बाप पढ़े न हम' जैसी कहावतों में वह आज भी छुपा हुआ है। 'ओनामासी धम' यानी 'ओम नमः सिद्धम'। तब बलराम दिवस किसान दिवस हो सकता था, विश्वकर्मा दिवस अभियंताओं का दिन हो सकता था, धन्वन्तरि दिवस चिकित्सकों का दिन हो सकता था। तब दशहरे से लेकर देवउठनी एकादश तक वृक्ष-पूजा/ वृक्षारोपण/ वृक्ष-संरक्षण के 5 दिन हो सकते थे। जिस देश में राष्ट्र ही धर्म था, वहाँ धर्म के आधार पर राष्ट्र को पोस्टपोन कर दिया गया।
यह भी देखें कि 1582 ई. में ग्रेगोरियन कैलेण्डर आने के 18 साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का इंग्लैंड में गठन होता है, 20 साल बाद डच ईस्ट इंडिया कंपनी का, 46 साल बाद पोर्तुगीज ई.इं.क.का और 1664 ई. में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी का। इन सबके द्वारा दुनिया को गुलाम बनाने की मुहिम शुरू हुई। यानी भारतीय कैलेण्डर जहाँ दासता से मुक्त करता था, वहीं ग्रेगोरियन कैलेण्डर का विकास विश्वभर में गुलामी का प्रसार करने से हुआ। भारतीय कैलेण्डर जहाँ ऋणोन्मोचन से होता था, ग्रेगोरियन कैलेण्डर भारत से हुए पूंजी के उस ड्रेन की याद दिलाता है जिसकी चर्चा दादा भाई नौरोजी ने इतने विस्तार से की है।
कैलेण्डर शब्द संभवतः 'कालान्तर' शब्द का ही एक रूप है। वह सामाजिक जीवन से संगठन के लिए एक उपयोगी उपकरण ही नहीं है बल्कि वह यथार्थ के एक निश्चित पर्सेप्शन का माध्यम है। विक्रम संवत् जागतिक स्थिरता एवं लय को पकड़ने वाला ऐसा संवत् है जो प्रकृति से निरन्तर संवाद करता है। यह सिंतबर, अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर की तरह वहाँ सात, आठ, नौ, दस की तरह की गिनती नहीं है। यहाँ जूलियस सीज़र या ऑगस्टस की तरह राजाओं के नाम पर जुलाई-अगस्त नहीं है। वे भी बाद में जोड़े जाए। पहले वे भी नहीं थे। गिनती की अशुद्धियाँ भी हैं क्योंकि 12 महीनों वाले कैलेण्डर का आखिरी महीना दस पर कैसे खत्म हो सकता है। इसका मतलब यह है कि जनवरी और फरवरी ग्यारहवें और बारहवें महीने हुए अर्थात् पहला महीना वही मार्च हुआ, जिसमें प्रायः चैत्र पड़ता है, जिससे विक्रम संवत् की शुरूआत होती है। फायनेंशियल इयर के रूप में कमोबेश वही विक्रम संवत् दुनिया भर में चलता है। एक तरह से वैश्वीकरण की प्रक्रिया में इसका अनदेखा योगदान है। जिस ग्लोबलाइजेशन के तर्क पर ग्रेगोरियन कैलेण्डर आवश्यक हो गया है, उसी तर्क को फायनेंशियल इयर के रूप में व्यवहारतः विक्रम संवत् ने, अप्रत्यक्ष रूप से, कोई दावा किए बिना पूरा किया है। सेचा स्टर्न (कैलेंडर्स इन इंटीक्विटी) प्राचीन समाजों के एक अध्ययन में कहते हैं कि तब एक दोहरी कैलेंडर परंपरा चली आई। एक सिविल कैलेण्डर की और एक धार्मिक कैलेण्डर की। बहुत प्राचीन लैटिन लेखक सेंसोरिनस (तृतीय शती ई.पू.) ने इसका उल्लेख सहज रूप से किया है, लेकिन इनकी contrastive pairing आधुनिक स्कॉलरशिप की देन है। प्राचीन मेसोपोटामिया में एक चंद्र संवत भी था और 30 दिन के महीनों वाला एक दूसरा संवत् भी था जो लेखादि प्रयोजनों में काम आता था। ऐसी दुहरी या विविध संवतों वाली व्यवस्था के दृष्टान्त इसराइल, मिस्र, ग्रीस, अरब में भी पाए जाते हैं।
भारत में समय का चक्र पूरा घूम गया है। अब जो 'धार्मिक' था, वह 'सिविल' हो गया है और जो 'सिविल' था, वह 'धार्मिक' हो गया है। यह परिवर्तन भारत की गुलामी के बिना संभव नहीं हुआ।
इसलिए अनुरोध है कि आज नए विक्रम संवत् का आरंभ सेलीब्रेट करते हुए इतिहास की इस त्रासदी और विडम्बना का परिप्रेक्ष्य जरूर ध्यान रखें।
✍🏻मनोज श्रीवास्तव
यह दुःखद है कि महाराज वीर विक्रमादित्य ( १०२ ई पू से १९ ई सन् ) के संवत को हम प्रतिवर्ष मनाते हैं ,उन शकारि वीर विक्रमादित्य का इतिहास से नाम तक मिटा दिया गया है । आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार २०७५ वर्ष पूर्व कोई विक्रमादित्य नहीं हुए , विक्रमादित्य का अस्तित्व मात्र अनुश्रुति-जनश्रुतियों में ही है , ऐतिहासिक धरातल पर कोई अस्तित्व नहीं है । कुछ इतिहासकार मानते हैं ५८ ई पू किसी मालव राजकुमारने शकों को पराजित करके संवत प्रारम्भ अवश्य किया था ,किन्तु विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को स्वीकार नहीं करते । पाश्चात्य विद्वानों और तदानुयायी भारतीय विद्वान् तो यहां तक मानते हैं कि ५८ ई पू में संवत का प्रवर्तक शक राजा माउस का पुत्र एजेस था ,उसी ने मालव शक की शुरूआत की थी । बाद में गुप्तवंशके तीसरे सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (३८०-४१२ ई सन् ) ने शकों को पराजित करके विक्रमादित्य की उपाधि ग्रहण की और मालव शक को विक्रम संवत के नामसे चलाया । किन्तु यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है ,भारतवर्ष के सबसे महान सम्राट जिनकी महानता ,न्यायप्रियता भारतीयों के हृदय में आज भी विद्यमान है । अनुश्रुतियों-जनश्रुतियों में जिनकी गाथा देवताओं के समान गाई जाती है ,उन महान विक्रमादित्य के ऐतिहासिकता के साक्ष्य होने के बाद भी उन्हें इतिहासमें गुमनाम कर दिया । ये इतिहासकारोंने विक्रमादित्य के जो साक्ष्य मिलते थे ,उन्हें मिटाने का प्रयास करते रहे हैं । छठी शती में हुए हरिस्वामी और उनके शिष्य स्कंद स्वामीके श्रीशुक्लयजुर्वेदीय शतपथब्राह्मणके भाष्य में महान विक्रमादित्यके शासनकी प्रशंसा की गई है ,इसलिए पाश्चात्य इटिवेत्ताओं और उनके भारतीय अनुयायियों ने शतपथब्राह्मण के हरि स्वामी - स्कंद स्वामी भाष्य को लुप्त करने का षड्यन्त्र रचा । अब इतिहासकार जरा ध्यान दें , शक राजा रुद्रदमन प्रथम जिसे इतिहाकरोंने १५० ई में वर्तमान माना है ,के पूर्ववर्ती सातवाहन सम्राट गौतमीपुत्र शातकर्णी १०६-१३० ई सन् ( इसका पुत्र वासिष्ठीपुत्र पुलमावी १३०-१५५ ई सन् शक रुद्रदमन का जामाता लिखा है इतिहासकारों ने ) से ७ पीढ़ी पूर्व में हुए सातवाहन राजा हाल शातकर्णी विक्रमादित्य के समकालीन ई पू में थे । उन्होंने गाथा-सप्तशती में विक्रमादित्य का उल्लेख किया है । -"संवाहण सुहरसतो सियेण देन्तेण तुह करे लक्खख्य चललेण विक्कमा इव चरियम् अणु सिक्खियम् तिस्सा ।" टीकाकार गदाधर के अनुसार -'विक्रमादित्योऽपि भृत्यकृत्येन तुष्ट: सन् भृत्यस्य करे लक्षं ददाति स्म ।' अर्थात् विक्रमादित्य भृत्य के कार्य से तुष्ट होकर उसके हाथ में लक्ष मुद्रा देते थे । बृहत्कथा के अनुसार भी विक्रमादित्य ईसवीय सन् के पहले के ही हैं । गुणाढ्य ने पिशाची भाषा में बृहत्कथा लिखी थी । गुणाढ्य सातवाहन राजा की सभा के अलंकार थे । अतः सातवाहन के ही समकालीन थे । बृहत्कथा का अनुवाद काश्मीरपरम्परा में ११ वीं शती के क्षेमेन्द्र ने बृहत्कथामञ्जरी के नाम से किया था ।
दूसरा अनुवाद सोमदेवने कथासरित्सागर नामसे किया था । नेपाल परम्परामें आठवीं शती से भी पूर्व बुद्धस्वामीने श्लोकसंग्रह नाम से बृहत्कथा का अनुवाद किया था । उस बृहत्कथा में कहा गया है कि भगवान् शिव का माल्यवान् नामक गण ही उनके आज्ञानुसार विक्रमादित्य के रूप में आया था । जैन मेरुतुङ्गाचार्य ने अपने विचारश्रेणी नामक प्राकृत ग्रन्थ में विशाला (उज्जयिनी ) के इतिहास का वर्णन करते हुए कहा है कि महावीर निर्वाण ईसवी सन् प्रारम्भ से ५२७ वर्ष पूर्व हुआ था । महावीर निर्वाण के ४७० वर्षों के पश्चात् शकों का उन्मूलनकर मालव के राजा विक्रमादित्य उदित होंगे - 'कालान्तरेण केण वि उप्पाडिता सगाणतं वंशं हो हि । मालव राया नामेण विक्कमा इच्चो ।'
यदि पाश्चात्य इतिहाकर विक्रमादित्यका नाम इतिहास से न मिटाते तो सिकन्दर महान को विश्वविजेता कौन कहता ? जिन वीर विक्रमादित्य ने ७८ ई में रोम के सम्राट जुलियस सीजर को पराजित करके उज्जयिनी की सड़कों पर घुमाया था , जुलियस सीजर की इस पराजय को छिपाने का बहुत प्रयास किया है पाश्यात्य इतिहासकारों ने ,विक्रमादित्य से पराजय और उज्जयिनी की सड़कों पर बन्दी बनाकर घुमाने की घटना को समुद्री लुटेरों द्वारा अपहरण में बदल दिया ,जिससे यूरोप की पराजय छिप जाए । महाकवि कालिदासजी ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है - 'यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जीत्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे । आनीय सम्भ्राम्य मुमोन यत्वहो स विक्रमार्क: समसहय विक्रमः ।'( ज्योतिर्वदाभरण २२/१७)
यद्यपि आधुनिक विद्वान् कालिदासजी को चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानते हैं ,तथापि महाकवि कालिदासजी ने स्वयं अपने ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण ग्रन्थके रचना का समय कलियुग संवत ३०६८ वैशाख मास में ( तदानुसार ३४ ई पू ) लिखा है ,जिससे कालिदासजी शकारि विक्रमादित्य के समकालीन ही ठहरते हैं ।
भिलसा से प्राप्त हुई थी विक्रमादित्य की मूर्ति -
तेरहवीं शती के मुस्लिम इतिवृत्ति में उल्लेख मिलता है - "उज्जैन में राजा विक्रमादित्य की एक भव्य मूर्ति थी । जिन्होंने अल्तमस के (१२३४ ई सन् ) उज्जैन आक्रमण के १३१९ वर्ष पूर्व राज्य किया था और उन्ही राजा विक्रम ने हिन्दू सम्वत् चलाया था ।" -- मिन्हास्-अस्-सिराज । ।
यूरोपीय विद्वानों ने बेशक विक्रमादित्य के यश को मिटाने का प्रयास किया है ,किन्तु अरबी कविताओं में आज भी विक्रमादित्य की महानता गायी जाती है । तुर्किस्थान की राजधानी इस्तांबुल में मख्तब्-ए-सुल्तानिया नामका ग्रंथालय था । उसमें पश्चिम एशिया के सभी देशों के साहित्य का सबसे अधिक संग्रह था । उसमें सन् १७७२ में तुर्कस्थान के सुल्तान सलीम की आज्ञा से एक प्राचीन काव्यसंग्रह से १७४२ में चुनी कविताओं का संग्रह तैयार किया गया । हरून-अल-रशीद के दरबार का राजकवि अबु अमीर अब्दुल असमाई स्वयं एक प्रख्यात कवि था ,उसने वह सैर उल् ओकुल काव्यसंग्रह संकलित और सम्पादित किया । सऊदी अरब में मोहम्मद के १६५ वर्ष पूर्व (मोहम्मद का जन्म ५७० ई में हुआ था ,तब ये कवि ४०५ ई सन् में वर्तमान थे ) हुए अरबी कवि जिप्हम बिनतोई हुए थे । बिनतोई के समय से ५०० वर्ष पूर्व ( १०२ ई पू से १९ ई सन् विक्रमादित्य ) राज्य करने वाले विक्रमादित्य की प्रशंसा में एक कविता लिखी थी ,जो उस तुर्की ग्रन्थ में संकलित है -
इत्रशश्फाई सन्तुल बिक्रमत्तुल फेहलमीन करिमुनं ।
यर्तफीहा वयोवस्सख विहिल्लहया समीमिनेला मोतकब्बेनरन् बिहिल्लाहा यूबी कैद मिन् होवा यफाकरू फजगल असरी नहान्स ओसिरिम् बेजेहोलीन यहा सबदुन्या कनातेफ नतेफी बिजिहलीन अतादरी बिलाला मसौरतीन फकेफ तसबहु कौन्नी एजा मजाकरलहदा वलहदा अचमीमन ,बुरूकन ,कड तोलुहो वसस्तरू बिहिल्लाहा याकाजिबैनाना बालैकुल्ले अमरेना फहेया जौनबिल् अमरे बिक्रमतून
--- सैर उल् ओकुल ,पृष्ठ ३१५ ।
कविता का अर्थ इस प्रकार है --
"भाग्यशाली हैं वे जो विक्रमादित्य के शासन में जन्में (या जीवित रहे ) वह सुशील ,उदार ,कर्तव्यपरायण शासक प्रजाहित में दक्ष था । किन्तु उस समय हम अरब परमात्मा का अस्तित्व भूलकर वासनासक्त जीवन व्यतीत करते थे । हममें दूसरों को नीचे खींचने की और छल की प्रवृत्ति बनी हुई थी । अज्ञान का अंधेरा हमारे पूरे प्रदेश पर छा गया था । भेड़िये के पँजे में तड़पडाने वाली भेड़ की भाँति हम अज्ञान में फँसे थे । अमावस्या जैसा घना अंधकार सारे (अरब) प्रदेश में फैल गया था । किन्तु उस दयालु विक्रम राजा की देन है जिसने हम पराए होते हुए भी हमसे कोई भेदभाव नहीं बरता । उसने निजी पवित्र (वैदिक) संस्कृति हममें फैलाई और निजी देश (भारत) से यहां ऐसे विद्वान ,पण्डित ,पुरोहित आदि भेजे जिन्होंने निजी विद्वत्ता से हमारा देश चमकाया । यह विद्वान पण्डित और धर्मगुरु आदि ,जिनकी कृपा से हमारी नास्तिकता नष्ट हुई ,हमें पवित्र ज्ञान की प्राप्ति हुई और सत्य का मार्ग दिखा वे हमारे प्रदेश में विद्यादान और संस्कृति प्रसार के लिए पधारे थे । "
उपरोक्त कविता में अरबी कवि बिनतोई ने विक्रमादित्य के शासन को उदार ,कर्तव्यपरायण प्रजाहित दक्ष कहकर विक्रमादित्य के शासनकी महिमा गायी है ,स्पष्ट होता है विक्रमादित्य का शासन प्रत्यक्ष रूप से सुदूर अरब-तुर्क-यूरोप तक फैला हुआ था ,लेकिन यूरोपियों की तरह तुर्कोंने इसे छिपाया नहीं ,बल्कि सऊदी अरब में स्वर्ण प्लेट पर अंकित करके यशगान किया था ।✍🏻वरुण शिवाय
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