उठ रही दीवार
बौना हो रहा आँगन
कोठियों के धौल अपने आप
भसके लग रहे
लाल परदे देवता के
बहुत मसके लग रहे
जली धरती को भिंगाता
अब नहीं सावन।
देह में घर में गली में
भूत पैठा है
बिचारों की चटाई
विद्रूप बैठा है
हवा में ही हो गया है
व्यप्त सा रावण।
बरगदों की शाख मे
लगने लगे हैं घुन
शिरोहों की वेदना भी
हो रही अनसुन
फैसला करना कठिन है
कौन है पावन।
क्या नही हो सकेगा
युग धर्म से आगे
परिधि से बाहर निकल
शुभ कर्म के आगे
कभी तो कोई बने
समदृष्टि का आँजन।
रामकृष्ण
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