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मिथिला की दुहिता महान दार्शनिक और मर्मज्ञ - गार्गी वाचक्नवी

मिथिला की दुहिता महान दार्शनिक और मर्मज्ञ - गार्गी वाचक्नवी

- मनोज मिश्र
प्राचीन भारतीय दर्शन शास्त्र में गार्गी वाचक्नवी का नाम प्रसिद्ध है। उनका जन्म ईसा से 700 वर्ष पूर्व का बताया गया है परंतु भारत मे त्रेता युग का काल 432000 वर्षों का है और उसमें भी भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व माना गया है अतः गार्गी का जन्म 700 ईसा पूर्व सही प्रतीत नहीं होता क्योंकि वे राजा जनक की सभा में दार्शनिक थीं। वैदिक साहित्य में विदुषी गार्गी को महान प्राकृतिक दार्शनिक, ब्रह्म विद्या ज्ञान युक्त ब्रह्मवादी कहा गया है। उनका नाम प्रमुखता से बृहदारण्यक उपनिषद के 6ठी और 8वीं ब्राह्मण में आता है। उन्होंने राजा जनक द्वारा आयोजित दार्शनिक बहस ब्राह्मणी में भाग लिया था और आत्मा संयम के बारे में याज्ञवल्क्य जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। ऋग्वेद में उनके लिखे कई भजन हैं। वेद और उपनिषद की वे ज्ञाता थीं। मूल नाम वचकन्वि था जो कालांतर में गार्गी गोत्र में उत्पन्न कन्या होने के कारण गार्गी कहलायी।
गार्गी को शास्त्रों में स्थान उनके और ऋषि याज्ञवल्क्य जी के बीच हुए शास्त्रार्थ हेतु मिला है। बृहदारण्यक उपनिषद में इस शास्त्रार्थ का वर्णन है।
एक बार राजा जनक ने श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की खोज के लिए एक सभा आयोजित की और एक सहस्त्र सवत्सा सुवर्ण की गौवें बनाकर खड़ी कर दीं। सभा में घोषणा करवाई गई कि जो ब्रह्मज्ञानी हों वे इन्हें सजीव बनाकर अपने साथ ले जाइए।इस तरह की गौवों को देखकर इच्छा तो सबकी हुई पर आत्मश्लाघा के भय से कोई प्रस्तुत न हुआ। राजा जनक सभा की स्थिति से अप्रसन्न हो गए। तब ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने अपने शिष्य को इन गौवों को हांकने का आदेश दिया। चूंकि हिचक टूट गयी थी अतः सभा में उपस्थित सभी ऋषि मुनि याज्ञवल्क्य जी से शास्त्रार्थ करने लगे। याज्ञवल्क्य जी ने सभी को यथाविधि उत्तर देकर संतुष्ट कर दिया परन्तु राजा जनक का मन आनंदित न हो सका।तब उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी को बुलाया गया। सबके पश्चात शास्त्रार्थ के लिए गार्गी ने आसन लिया।
गार्गी ने पूछा - भगवन! क्या आप अपने को सबसे बड़ा ज्ञानी मानते हैं, जो आपने गायों को हांकने के लिए अपने शिष्यों को आदेश दे दिया?
याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया - मां! मैं स्वयं को ज्ञानी नहीं मानता, परन्तु इन गायों को देख मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है अन्यान्य कोई इनपर अपना अधिकार भी नहीं जता रहा था अतः मैंने अपने शिष्य को उन्हें ले चलने के लिए कहा।
गार्गी - आपका मोह इस पारितोषिक को प्राप्त करने का योग्य कारण नहीं है। अगर सभी सभासदों की आज्ञा हो तो मैँ आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहूंगी। अगर आप अपने उत्तरों से मुझे संतुष्ट कर पाए और सभा को लगे कि आप इस के स्वाभाविक अधिकारी हैं, सभी में श्रेष्ठ है तो अवश्य आप इन गायों को ले जाएं।' ऐसा माना जाता है कि स्वयं को जानने के लिए, विद्याध्ययन हेतु, आत्मविद्या के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है परंतु आप ब्रह्मचारी नहीं हैं, आपने दो दो विवाह किया है, ऐसे में नहीं लगता कि आप समाज के सम्मुख एक अनुचित उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
याज्ञवल्क्य ने प्रति प्रश्न किया - ब्रह्मचारी कौन है गार्गी।
गार्गी ने तत्क्षण उत्तर दिया - जो परम सत्य की खोज में लीन रहे वही ब्रह्मचारी है।
याज्ञवल्क्य - तो ऐसा क्यों मानती हो कि ग्रहस्थ परम सत्य की खोज नहीं कर सकता।
गार्गी - मुनिवर सत्य की खोज तो वही कर सकता है जो स्वतंत्र है और विवाह तो स्वयं में एक बंधन है।
याज्ञवल्क्य - क्या विवाह बंधन है?
गार्गी - निःसंदेह ।
याज्ञवल्क्य - ऐसा मानने का कारण?
गार्गी - विवाह में व्यक्ति को स्वयं से ज्यादा औरों का ध्यान रखना पड़ता है। विवाहोपरांत मन निरंतर किसी न किसी चिंता में आतुर रहता है। अगर संतान भी हो जाये तो चिंता का एक और कारण खड़ा हो जाता है। ऐसे मन मन सत्य को खोजने हेतु मुक्त ही किधर है? अतः विवाह निःसंदेह एक बंधन है मान्यवर।


याज्ञवल्क्य - किसी की चिंता करना इसे हम बंधन की जगह प्रेम भी तो कह सकते हैं।
गार्गी - परंतु प्रेम भी तो एक बंधन ही है ना ऋषिवर।
याज्ञवल्क्य - कन्या ! प्रेम निःस्वार्थ हो तो मुक्त कर देता है। जब प्रेम में स्वार्थ प्रधान हो जाये यह बंधन का कारण बन जाता है अतः मूल समस्या प्रेम नहीं अपितु स्वार्थ है।
गार्गी प्रेम सदा स्वार्थी ही होता है महर्षि।
याज्ञवल्क्य - प्रेम से आशाएं जुड़ने लगती हैं, इच्छाएं जुड़ने लगती हैं उन आशाओं और इच्छाओं के वशीभूत होकर हम किसी भी कीमत पर उसे प्राप्त करना चाहते हैं तब स्वार्थ का जन्म होता है। ऐसा प्रेम अवश्य ही बंधन है। जिस प्रेम में अपेक्षाएं न हों, इच्छाएं न हों ऐसा प्रेम जो केवल देना जानता है वही प्रेम मुक्त करता है। मत भूलो कि हम राजा जनक के सभागार में वाद विवाद कर रहे हैं जिन्हें विदेह भी कहा जाता है इससे ये तो नहीं है कि उन्हें अपनी प्रजा या पुत्रियों से प्रेम नहीं है।
गार्गी - महर्षि आपके शब्द प्रभावित तो बहुत करते हैं परंतु क्या आप इस प्रेम का कोई अन्य उदाहरण दे सकते हैं?
याज्ञवल्क्य - पहले अपने नेत्रों को बंद करो पुनः अपने हृदय में अपने ज्ञानचक्षुओं को खोलो, अब नेत्रों को खोल कर देखो यह समस्त जगत निःस्वार्थ प्रेम का स्वयं सिद्ध प्रमाण है। ये प्रकृति निःस्वार्थता का सबसे बड़ा उदाहरण है। सूर्य रश्मियां, ऊष्मा, उसका प्रकाश इस प्रितजवी पर आता है तो यहां जीवन के अंकुर खिलते हैं। पृथ्वी तो कभी सूर्य से कुछ नहीं मांगती, बस उसकी उपस्थिति मात्र से उसके प्रेम में खिल उठती है। सूर्य भी पृथ्वी से बदले में कुछ नहीं चाहता वह अपना सर्वस्व किए अपेक्षा में नहीं लुटाता, किसी वर्चस्व की कामना नहीं रखता बस स्वयं को जलाकर समस्त संसार को जीवन देता है यही निःस्वार्थ प्रेम है गार्गी!
प्रकृति और पुरुष की लीला और जीवन उनके सच्चे प्रेम का फल है। हम सभी उसी निःस्वार्थता से उसी प्रेम से जन्मे हैं, घर मे जब शिशु का आगमन होता है तो पति पत्नी एक दूसरे के अधिकार के बारे मे नहीं सोचते सिर्फ उस अनुभूति को हृदय में रखते हैं जो शिशु के आगमन ने उनके आंगन में ईश्वर ने फ़ैलायीं है। अतः सत्य को खोजने में प्रेम गार्हस्थ्य बाधा नहीं, मार्ग भी हो सकता है।
महर्षि याज्ञवल्क्य के उत्तरों ने गार्गी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया।


महर्षि अब हम मूल विषय पर आते है, कृपा कर कहें कि -
जल में हर पदार्थ घुलमिल जाता है तो आप यह बताएं कि जल किस चीज से ओतप्रोत है?
यूँ तो प्रश्न सरल प्रतीत होता था परंतु जितना याज्ञवल्क्य जी सोचते गए उतना ही इसमें उलझते गए। एक साधारण सी दिखने वाली ये दुहिता सांसारिक प्रश्न से विलग इतनीं विदुषी होगी उन्होंने सोचा न था। उधर सभा इस प्रश्न पर गार्गी की जय जयकार करने लगी। याज्ञवल्क्य के क्रोध का पारावार न रहा परंतु प्रश्न पहला ही था और अनंत संभावनाएं सामने थीं अतः उन्होंने अपने चित्त को एकाग्र किया, प्रश्नकर्ता की आयु परिवेश और ज्ञान को परे कर स्वयं पर केंद्रित हुए तथा उत्तर दिया - जल का जन्म और उसका विलयन अगर हम गौर से देखें तो पाएंगे कि जल वायु में ओतप्रोत है।
सभा में शांति छा गई। विद्वतजन अब सभा में रस लेने लगे और विदेह भी उत्सुकता से अगले प्रश्न की प्रतीक्षा करने लगे।
गार्गी - मुनिवर ये कहें कि वायु किसमे ओतप्रोत है।
याज्ञवल्क्य - हमारा यह संसार इस व्यापक अंतरिक्ष का हिस्सा है अतः वायु व्योम(अंतरिक्ष) में ओतप्रोत है।
गार्गी- अन्तरिक्ष किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्य- अन्तरिक्ष गन्धर्वलोक में ओतप्रोत है।
गार्गी- गन्धर्वलोक किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्य- गन्धर्वलोक आदित्यलोक में ओतप्रोत है।
गार्गी- आदित्यलोक किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्य- आदित्यलोक चन्द्रलोक में ओतप्रोत है।
गार्गी- चन्द्रलोक किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्य- नक्षत्रलोक में ओतप्रोत है।
गार्गी- नक्षत्रलोक किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्य- देवलोक में ओतप्रोत है।
गार्गी- देवलोक किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्य- प्रजापतिलोक में ओतप्रोत है।
गार्गी- प्रजापतिलोक किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्य- ब्रह्मलोक में ओतप्रोत है।
गार्गी- ब्रह्मलोक किसमें ओतप्रोत है?
अब याज्ञवल्क्य जी क्रोधित हो बोल उठे - 'गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’। अर्थात गार्गी, इतने प्रश्न मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा मस्तक फट जाए। अच्छा वक्ता वही होता है जिसे पता होता है कि कब बोलना और कब चुप रहना है।
गार्गी अच्छी वक्ता थी इसीलिए क्रोधित याज्ञवल्क्य की फटकार चुपचाप सुनती रही।
गार्गी ने पूछा, 'ऋषिवर! जिस प्रकार काशी या अयोध्या का राजा अपने एक साथ दो अचूक बाणों को धनुष पर चढ़ाकर अपने दुश्मन पर लक्ष्य साधता है, वैसे ही मैं आपसे दो प्रश्न पूछती हूं।'

याज्ञवल्क्य ने कहा- हे गार्गी, पूछो।

गार्गी ने पूछा, 'स्वर्गलोक से ऊपर जो कुछ भी है और पृथ्वी से नीचे जो कुछ भी है और इन दोनों के मध्य जो कुछ भी है, और जो हो चुका है और जो अभी होना है, ये दोनों किसमें ओतप्रोत हैं?'
गार्गी ने बाण की तरह पैने इन दो प्रश्नों के जरिए यह पूछ लिया कि सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है?

याज्ञवल्क्य ने कहा- एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी।’ यानी कोई अक्षर, अविनाशी तत्व है जिसके प्रशासन में, अनुशासन में सभी कुछ ओतप्रोत है।
गार्गी ने पूछा कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था- अक्षरतत्व के! इस बार याज्ञवल्क्य ने अक्षरतत्व के बारे में विस्तार से समझाया।
इस बार गार्गी अपने प्रश्नों के जवाब से इतनी प्रभावित हुई कि जनक की राजसभा में उसने याज्ञवल्क्य को परम ब्रह्मिष्ठ मान लिया। इसके बाद गार्गी ने याज्ञवल्क्य की प्रशंसा कर अपनी बात खत्म की तो सभी ने माना कि गार्गी में जरा भी अहंकार नहीं है। गार्गी ने याज्ञवल्क्य को प्रणाम किया और सभा से विदा ली। ऐसी अनेक विदुषी नारियों ने अर्वाचीन भारत के महिमामंडल को सुशोभित किया है जिनके बारे में वर्तमान पीढ़ी अभी भी अनभिज्ञ है। अतः यह प्रयास वर्तमान पीढ़ी को अतीत के गौरव के जोड़ने की एक कड़ी मात्र है।
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