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मेरे आँगंन में सुख -दुख के

मेरे आँगंन में सुख -दुख के

 बीज लगे अँखुआने। 

पढी लिखी बहुएँ कल्याणी
सपने बुनती हैं
सुबिधाओं की आधुनिकी  में
अवसर चुनती हैं
आवश्यकता के पीढ़े पर
लगती हैं बतियाने। 

आँगन में संगीत हमारे
कुल की परम्परा
किंतु  पुरानी और आज का
सुर है अलग जरा
बीते दिन चौहट जतसारी
लगते हैं समझाने। 

सिल लोढे घर के चौके
इतिहास हो गये हैं
स्नेह ,हँसी खुशियाँ कब के
उपहास हो गये हैं
अब तो केवल दोष दोष ही 
लगते हैं गिनवाने। 

राम भरत लक्ष्मण से अनुपम
पुत्र कहाँ असली
हैं तो  सभी खिलौने  जैसे
लेकिन सब नकली
अधिकारी  धन के हैं लेकिन
अब तो कलह खजाने।
रामकृष्ण
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