इस बस्ती में कितने नट बस पाएँगे
नये सपोले कितनै पाले जाएँगे
गली गली में ,घर घर में तिकड़म होता
मिट्टी-पानी में विद्वेषी भ्रम सोता
वेसे भी दूषित हो चुकी हवाओं से
कब तक अमृत सा माधुर्य बनाएँगे।
धरती -आसमान कब्जाने वालों का
नया हौसला नहीं क्रूरता कहलाने का
सदियों से है खेल चल रहे धोखे के
हम अपनी क्या साख बचा भी पाएँगे।
नक्शे पर क्यों हम ही सिमट रहे हर दिन
भावुकता क्या अपने खाते में सब दिन
प्यासी तलवारो की जिद तोड़ा जाए
कब तक छद्म बंधुता राग। सनाएँगे।रामकृष्ण
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