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चाहतें तन्हाइयों की जब बढ़ने लगे

चाहतें तन्हाइयों की जब बढ़ने लगे,

रिश्तों के दरम्यां भी दरारें पड़ने लगें।
बस स्वार्थ की ही बात चारों ओर हो,
तब घरों को तोड़कर मकां बनने लगे।

होने लगी दीवार अब आंगन में खड़ी,
भाई से भाई, मां बाप जुदा होने लगे।
मकान जब से बनाया सपनों का अपने,
फूलों की बगिया में नागफनी बढने लगे।

सभी सुख साधन मगर, भोगने वाला नही,
मिल बांट खाना पीना, ख्वाब से लगने लगे।
दादी दादा राह तकते, द्वार पर आये कोई,
तकते तकते राह, मां बाप भी थकने लगे।

अ कीर्ति वर्द्धन
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