सीबीआई के गौरव की याद
(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने कुछ स्वयत्तशासी संस्थाओं को भी लोकतंत्र की रक्षा के रूप मंे बनाया था। ये संस्थाएं भी पूरी तरह से तो स्वतंत्र नहीं हैं क्योंकि लोकतंत्र में पूर्ण स्वतंत्रता भी एक तरह की तानाशाही होती है। इसीलिए सत्तापक्ष और विपक्ष मंे संतुलन की बात कही जाती है। लोकतंत्र के समान अधिकार वाले तीन स्तम्भ भी इसीलिए बनाये गये हैं। अफसोस यह कि संविधान निर्माताओं की भावना के साथ विधायिका ने खिलवाड़ किया। इसका नतीजा यह रहा कि स्वायत्तशासी संस्थाएं सत्तापक्ष की मुखापेक्षी हो गयीं। केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) का उल्लेख इस संदर्भ मंे अक्सर किया जाता है। देश की सबसे बड़ी अदालत अर्थात् सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजरक मंे बंद सुग्गा (तोता) बताया था। चुनाव आयोग को लेकर भी दबे स्वर मंे ही सही, लेकिन इसी प्रकार की प्रतिक्रिया जनता करती है लेकिन ऐसा भी नहीं कि इनका कभी गौरव नहीं रहा है। चुनाव आयोग मंे आज भी मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को याद किया जाता है। राजनीति के महारथी भी चुनाव आयोग से थर-थर कांपते थे। इसी तरह सीबीआई मंे भी डीपी कोहली जैसे अधिकारियों को आज भी याद किया जाता है। डीपी कोहली सीबीआई के संस्थापक निदेशक थे। देश के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण ने डीपी कोहली के बनाये आदर्श पर चलने की सलाह सीबीआई को दी है।
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने यूं ही नहीं कहा कि देश में इस वक्त एक स्वतंत्र संस्था स्थापित करने की आवश्यकता है, जिसके नीचे केंद्रीय जांच एजेंसियां काम कर सकें। उनके मुताबिक सीबीआई और अन्य एजेंसियों जैसे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ) को एक छत के नीचे लाना चाहिए। उन्होंने कहा इससे इन एजेंसियों पर ये आरोप नहीं लगेंगे कि इनका इस्तेमाल राजनीतिक उत्पीड़न के तौर पर किया जा रहा है। प्रधान न्यायाधीश सीबीआई के 19वें डीपी कोहली स्मृति व्याख्यान में ‘लोकतंत्र: जांच एजेंसियों की भूमिका और जिम्मेदारियां’ विषय पर बोल रहे थे। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने कहा, ‘सीबीआई, गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जैसी विभिन्न एजेंसियों को एक छत के नीचे लाने के लिए छतरी संस्था के गठन की तत्काल आवश्यकता है। एक कानून बनाया जाना चाहिए जो स्पष्ट रूप से इसकी शक्तियों, कार्यों और कर्तव्यों को परिभाषित करे। उन्होंने कहा, ‘संस्था के प्रमुख को विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ प्रतिनियुक्तियों द्वारा सहायता प्रदान की जा सकती है। यह छतरी संस्था कार्यवाही के दोहराव को समाप्त करेगी।’ प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमण ने कहा कि केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की विश्वसनीयता समय बीतने के साथ सार्वजनिक जांच के घेरे में आ गई है क्योंकि इसकी कार्रवाई और निष्क्रियता ने कुछ मामलों में सवाल खड़े किए हैं। न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि पुलिस और जांच एजेंसियों के पास वास्तविक वैधता हो सकती है, लेकिन फिर भी संस्थाओं के रूप में उन्हें अभी भी सामाजिक वैधता हासिल करनी है। उन्होंने कहा, ‘पुलिस को निष्पक्ष होकर काम करना चाहिए और अपराध की रोकथाम पर ध्यान देना चाहिए। उन्हें समाज में कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए जनता के सहयोग से भी काम करना चाहिए। ’ न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि एक संस्था के रूप में सीबीआई के पास कई उपलब्धियां हैं और इस प्रक्रिया में उसके कई कर्मियों ने अपने स्वास्थ्य और जीवन को खतरे में डाल लिया है। प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘कुछ ने तो सर्वोच्च बलिदान भी दिया है। इन सबके बावजूद यह विडंबना ही है कि लोग निराशा के समय पुलिस के पास जाने से कतराते हैं। भ्रष्टाचार, पुलिस ज्यादती, निष्पक्षता की कमी और राजनीतिक वर्ग के साथ घनिष्ठता के आरोपों से पुलिस की संस्था की छवि खेदजनक रूप से धूमिल हुई है।’ न्यायमूर्ति रमण ने सीबीआई के संस्थापक निदेशक डी पी कोहली को श्रद्धांजलि दी और कहा कि वह एक अनुकरणीय अधिकारी थे। उन्होंने कहा, ‘कोहली अपने साहस, दृढ़ विश्वास और उल्लेखनीय दक्षता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी दृष्टि ने सीबीआई को भारत की प्रमुख जांच एजेंसी में बदल दिया। उनकी निर्विवाद सत्यनिष्ठा के किस्से दूर-दूर तक सुनाए गए।’
ध्यान रहे कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की उत्पत्ति भारत सरकार द्वारा सन् 1941 में स्थापित विशेष पुलिस प्रतिष्ठान से हुई है। उस समय विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का कार्य द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय युद्ध और आपूर्ति विभाग में लेन-देन में घूसखोरी और भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करना था। विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का अधीक्षण युद्ध विभाग के जिम्मे था। युद्ध समाप्ति के बाद भी, केन्द्र सरकार के कर्मचारियों द्वारा घूसखोरी और भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने हेतु एक केन्द्रीय सरकारी एजेंसी की जरूरत महसूस की गई। इसीलिए सन् 1946 में दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम लागू किया गया। इस अधिनियम के द्वारा विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का अधीक्षण गृह विभाग को हस्तांतरित हो गया और इसके कामकाज को विस्तार करके भारत सरकार के सभी विभागों को कवर कर लिया गया। विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का क्षेत्राधिकार सभी संघ राज्य क्षेत्रों तक विस्तृत कर दिया गया और सम्बन्धित राज्य सरकार की सहमति से राज्यों तक भी इसका विस्तार किया जा सकता था। दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान को इसका लोकप्रिय नाम ‘केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो’ गृह मंत्रालय संकल्प दिनांक 1 अप्रैल, 1963 द्वारा मिला था। आरम्भ में केन्द्र सरकार द्वारा सूचित अपराध केवल केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा भ्रष्टाचार से ही सम्बन्धित था। धीरे-धीरे, बड़ी संख्या में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्थापना के साथ ही इन उपक्रमों के कर्मचारियों को भी केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के क्षेत्र के अधीन लाया गया। इसी प्रकार, सन् 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और उनके कर्मचारी भी केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के क्षेत्र के अधीन आ गए। सीबीआई एक निदेशक, पुलिस महानिदेशक या पुलिस (राज्य) के आयुक्त के रैंक के एक आईपीएस अधिकारी के नेतृत्व में है। निदेशक सीवीसी अधिनियम 2003 के द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के आधार पर चुना जाता है और 2 साल की अवधि है।
सीबीआई की वार्षिक रिपोर्ट कर्मचारी के अनुसार आमतौर पर अनुसचिवीय कर्मचारी, पूर्व संवर्ग पदों है जो तकनीकी प्रकृति, कार्यकारी स्टाफ और ईडीपी स्टाफ के आम तौर पर कर रहे हैं के बीच विभाजित है। हिन्दी भाषा स्टाफ आधिकारिक भाषाओं में से विभाग के अंतर्गत आता है। केन्द्रीय अनुसंधान ब्यूरो प्रायः विवादों और आरोपों से घिरी रहती है। इस पर केन्द्रीय सरकार के एजेंट के रूप में पक्षपातपूर्ण काम करने का आरोप लगता है। सीआरपीसी की धारा 197 (जो न केवल सीबीआई को भी, लेकिन पुलिस के लिए लागू होता है) से पहले सरकारी मंजूरी अभियोजन पक्ष के लिए अनिवार्य बनाता है। पूर्व सीबीआई निदेशकों के समूह ने सुझाव दिया है कि इस जरूरत में संशोधन करने के लिए और शक्ति लोकपाल को दी जानी चाहिए। यूपी सरकार के समय कोल आवंटन घोटाले मंे सरकार को रिपोर्ट दिखाने पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को अधिकार देने को कहा था।
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