सम्पूर्ण देवभाव का आश्रय व आधार पृथ्वी माता -अशोक “प्रवृद्ध”
भारतीय संस्कृति में पृथ्वी अर्थात धरती को सबसे बड़ा देव माना गया है। पृथ्वी ही सम्पूर्ण देवभाव (देवत्वभाव) का आधार है, और देवभाव के समस्त प्रतीक वृक्ष, प्रस्तर प्रतिमा, मृदमूर्ति, गिरिराज शील व शालिग्राम आदि अंतत: पृथ्वी के ही रुप हैं। जीवन को धारण करने के कारण यह धरती है, जन्म से मृत्यु तक सब कुछ इसी पर होने के कारण यह भू है। सबका भार सहन करने के कारण वह संवर्सहा है, तथा समर्थ होने के कारण वह क्षमा है। पृथ्वी पर ही जल, थल, नदी, समुद्र, पहाड़, वन, द्वीप-द्वीपांतर, देश, जनपद, पुर, नगर तथा ग्राम का विस्तार है। वही विश्वंभरा है। सबको अन्न देने के कारण वह अन्नदा और अन्नपूर्णा है। पत्थर, औषधि तथा रत्नों की खान होने के कारण वह रत्नगर्भा और वसुंधरा है।
यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारतीय प्रातःकाल जागकर पृथ्वी से प्रार्थना करते हैं कि हे धरती देवी, तुम सम्पूर्ण लोक की आधार हो, तू मुझे भी धारण कर, मैं तुम पर पैर रख रहा हूँ, इस अपराध को क्षमा कर। भारतीय मान्यतानुसार श्री और भूमि विष्णु की देवियाँ हैं। पौराणिक आख्यानों में लक्ष्मी कहती हैं कि मैं ही पृथ्वी बनकर चराचर जीवों एवं नदी, पर्वत और समुद्रों को धारण करती हूँ। मैं ही अन्नादि को उत्पन्न करती हूँ तथा अग्नि और सूर्य के रुप में मैं ही प्रकाश करती हूँ तथा फल आदि को पकाती हूँ। वेदों में तो भूमि और पृथ्वी आदि को स्वयं परमात्मा का ही नाम व स्वरूप बताया गया है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में भूमि शब्द का अर्थ प्रकट करते हुए यजुर्वेद 13/18 के मन्त्र को उद्धृत कर कहा है कि भवन्ति भूतानि यस्यां सा भूमिः अर्थात- जिसमें सब भूत प्राणी होते हैं, इसलिए ईश्वर का नाम भूमि है। इसी समुल्लास में पृथ्वी शब्द की व्याख्या करते हुए स्वामी दयानन्द ने कहा है कि पृथु विस्तारे इस धातु से पृथ्वी शब्द सिद्ध होता है। यः पर्थति सर्वं जगद्विस्तृणाति तस्मात् स पृथ्वी अर्थात- जो सब विस्तृत जगत् का विस्तार करने वाला है, इसलिए उस ईश्वर का नाम पृथ्वी है। पौराणिक मान्यतानुसार भी पृथ्वी शब्द महाराज पृथु के नाम से जुड़ा हुआ है। पृथु इस धरती के प्रथम सम्राट थे। उस समय धरती ऊबड़- खाबड़ थी, जिसे महाराज पृथु ने ही समतल बनाकर कृषि योग्य बनाया। कथा के अनुसार एक बार जब वृक्षों पर फल नहीं रहे, तो भूख से व्याकुल होकर प्रजा पृथु के पास पहुँची। महाराज पृथु ने तभी से कृषि कार्य का सूत्रपात किया। इस घटना को पौराणिक ग्रन्थों में पृथ्वी दोहन के नाम से जाना जाता है। इसमें धरती गाय बनी, स्वायंभुव मनु ने बछड़ा बनकर सस्य धान्यों को दुहा। उस समय ॠषियों ने वेदरुपी दूध दुहा, देवताओं ने अमृत तथा मनोबल रुप दूध पाया, दैत्य-दानवों ने मदिरा-आसव रुपी दूध पाया, गंधर्व और अप्सराओं ने संगीत-माधुर्य और सौंदर्य पाया, पशुओं ने तृण रुप भोजन पाया तथा वृक्षों ने विविध प्रकार के रस रुपी दूध को प्राप्त किया। महाराज पृथु ने धरती को समतल करवाकर गाँव, कस्बे, नगर, अहीरों की बस्ती (घोष) खेठ, खर्वटों का निर्माण किया। कहा जाता है कि पृथु से पहले पुर-ग्राम आदि का विभाग नहीं था। जैन परम्परा के अनुसार पूर्व में मनुष्यों के यथेष्ट फल प्रदान करने वाले कल्पवृक्ष थे। जब कल्पवृक्षों ने अपनी महिमा का संवरण कर लिया तब भगवान् ॠषभदेव ने कृषि सभ्यता की स्थापना की, और वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया। मान्यतानुसार पृथ्वी के गर्भ से मंगल नाम के ग्रह की उत्पत्ति होने के कार मंगल को भौम भी कहते हैं। मधु और कैटभ नामक दैत्यों के मेद से उत्पन्न होने के कारण धरती मेदिनी कहलाती है, ब्रह्मा की सृष्टि होने के कारण धरती ब्रह्मा की पुत्री है। पृथ्वी की इसी धार्मिक- आध्यात्मिक महत्व के कारण आदिकाल से ही भारतीय जन पृथ्वी को माता मान उसकी देवभाव से पूजा और उसके प्रति आदर का भाव प्रकट करते रहे हैं, परन्तु अब सम्पूर्ण विश्व में पृथ्वी की महता और उसके संरक्षण, संवर्द्धन के प्रति एक नवीन चेतना उत्पन्न हुई है, और अब समस्त संसार में पृथ्वी और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस का वार्षिक आयोजन किया जाने लगा है। 1970 में पर्यावरण शिक्षा के रूप में अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा स्थापित पृथ्वी दिवस अब192 से अधिक देशों में प्रति वर्ष 22 अप्रैल को मनाया जाता है। यह 22 अप्रैल की तिथि उत्तरी गोलार्द्ध में खगोलीय मध्य वसन्त और दक्षिणी गोलार्द्ध में खगोलीय मध्य पतझड़ अर्थात शरद का मौसम है। वर्तमान में पृथ्वी दिवस का महत्व इसलिए अत्यधिक बढ़ जाता है क्योंकि, इससे हमें ग्लोबल वार्मिंग के बारे में पर्यावरणविदों के माध्यम से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का पता चलता है। पृथ्वी दिवस जीवन संपदा को बचाने व पर्यावरण को ठीक रखने के बारे में जागरूक करता है। जनसंख्या वृद्धि ने प्राकृतिक संसाधनों पर अनावश्यक बोझ डाला है, संसाधनों के सही इस्तेमाल के लिए पृथ्वी दिवस जैसे कार्यक्रमों का महत्व बढ़ गया है।
दरअसल भारतीय परम्परा में पर्यावरण की चिंता आदि सनातन काल से ही की गयई है। यहाँ समस्त प्रकृति ही पूज्य मानी गई है। प्रकृति की महता, संरक्षता, पूजा के अनेक प्रसंग वैदिक ग्रन्थों में अंकित प्राप्य है। यजुर्वेद के एक लोकप्रिय मंत्र36/17 में समूचे पर्यावरण को शान्तिमय बनाने की अद्भुत स्तुति है। स्वस्तिवाचन की इस अद्भुत ऋचा में द्युलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी से शान्ति की भावप्रवण प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि जल शान्ति दे, औषधियां-वनस्पतियां शान्ति दें, प्रकृति की शक्तियां - विश्वदेव, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शान्ति दे। सब तरफ शान्ति हो, शान्ति भी हमें शान्ति दें।
यहां शान्ति भी एक देवता के रूप में वर्णित हैं। ऋग्वेद 1/99/6,7,8 में वायु, सरिता जल, और पृथ्वी के कण कण को मधुर होने की कामना करते हुए कहा गया है कि वायु मधुमय है। नदियों का पानी मधुर हो, औषधियां, वनस्पतियां मधुर हों। माता पृथ्वी के रज कण मधुर हों, पिता आकाश मधुर हों, सूर्य रश्मियां भी मधुर हों, गाएं मधु दुग्ध दें। अथर्ववेद के एक पूर्ण सूक्त -भूमि सूक्त में पृथ्वी की माता के रूप में वंदना करते हुए मनुष्य के लिए अपने ग्रह, पृथ्वी तथा पर्यावरण की महता, आवश्यकता के प्रति शाश्वत्त ज्ञान प्रदान किया गया है। इस भूमि सूक्त में मातृ पृथ्वी को नमस्कार करते हुए उसकी स्तुति में कहा गया है कि सत्य, ब्रह्मांडीय दैवीय नियमों, सर्वशक्तिमान परब्रह्म में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति, ऋषियों- मुनियों की समर्पण भाव से किये गये यज्ञ और तप, इन सब ने माता धरती को युगों-युगों से संरक्षित और संधारित किया है। पृथ्वी हमारे लिए भूत और भविष्य की सह्चरी है, साक्षी है, हमारी आत्मा को अपनी पवित्रता और व्यापकता के माध्यम से इस लोक से उस दिव्य ब्रह्मांडीय जीवन की और ले जाये। अपने पर्वत, ढलान और मैदानों के माध्यम से मनुष्यों तथा समस्त जीवों के लिए निर्बाध स्वतंत्रता अर्थात बाहरी और आंतरिक दोनों स्वतन्त्रता प्रदान करने वाली धरती माता कई पौधों और विभिन्न क्षमता के औषधीय जड़ी बूटी को जन्म देती है, उन्हें परिपोषित करती है। वह हमें समृद्ध करे और हमें स्वस्थ बनाय। अथर्ववेद 12/1 द्यावापृथ्वी नाम से विख्यात यह सूक्त भूमि, अर्थात धारण करने वाली धरित्री के महत्व को दर्शाता है। इसी के एक मन्त्र में में अंकित छंद -माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या:। के अनुसार धरती जननशक्ति, माँ है, धात्री है। पक्षियों को वही फल दैती है तथा मनुष्यों को भी उसी से धान और फलादि प्राप्त होते हैं। भारतीय धारणानुसार एक अंकुर के रुप में सृष्टि का आविर्भाव हुआ, और अंकुर से दो पत्ते फूटे, एक पात माता धरती बनी और दूसरा पात मेघ पिता। लोकमानस धरती और मेघ के बीच पति- पत्नी का संबंध मानता है। जिस प्रकार स्त्री की शोभा पति और पुत्र से होती है, उसी प्रकार धरती की शोभा बरसनेवाले मेघ और बीज से है। धरती आषाढ़ में आर्द्रा नक्षत्र में ॠतुमती होती है और मेघ से ॠतु दान माँगती है। मेघों का देवता इंद्र माना जाता है, इसलिए एक धारणा यह भी है कि इंद्र रस प्रदान करता है तथा धरती रस को ग्रहण करती है।
आदि सनातन काल से ही पृथ्वी को माता स्वरूप मनाने जाने के कारण ही भारतीय संस्कृति में पृथ्वी माता, धरती मैया आदि भूमि की माँ से तुलनात्मक अवधारणा गाँव- गाँव में गहरे तक व्याप्त हे। माता के पुत्र के आश्रय व आधार होने की भांति ही धरती भी आश्रय और आधार मानी गई है। प्राणिमात्र का जन्म धरती से ही होता है, जीवन की ऊर्जा के रुप में भोजन धरती से ही प्राप्त होता है और धरती में ही उनका लय हो जाता है। पृथ्वी माता को वन्दना करने की सनातन परिपाटी के कारण ही वन्दे मातरम् की अवधारणा भी भारतीय मानस की इसी भावभूमि पर समादृत होने का परिचायक है। धरती सम्पूर्ण अनुष्ठानों का आधार है। यज्ञारम्भ में भूमि शोधन, मार्जन, लेपन करके रंग-बिरंगी धातुओं से चौक पूरण, मकान निर्माण करने व कुआँ खोदने से पूर्व भूमि-पूजन और हरे गोबर व पीली मिट्टी से मंडप लीपकर कलश धरे जाने की परिपाटी है। नवदुर्गा पूजन के निमित्त वेदी बनाने के लिए स्त्रियाँ मंगल गायन करते हुए पीली मिट्टी लेने जाती हैं। किसान बीजवपन अर्थात वामनी के लिए खेत पर पहुँच बीज की गठरी को सिर से उतारकर शीघ्र उसी खेत का एक ढेल धरती मैया कहकर गठरी में रख स्याबड़ करता है। सैश बरकत के लिए यह अन्नपूर्णा का ही एक अनुष्ठान है। गाँवों में स्रियाँ पोता मिट्टी के पांच ढ़ेले अथवा धोंधा और पाँच काली मिट्टी के धोंधा बनाकर उसकी पूजा करती हैं। विवाहादि में घूरे की पूजा करते समय जौ आखर धरे जाते हैं, यह पृथ्वी पूजन का ही एक रूप है। सभी मांगलिक कार्यों में पीली मिट्टी के ढेल पर मौली लपेटकर उसे गणपति के रुप में प्रतिष्ठित करने, मिट्टी की ही गौर बनाकर सौभाग्य की कामना के साथ पूजा करने, धरती की पुत्री गगन वासिनी गाजपनमेसुरी को पोतामिट्टी से मानवाकृति रुप में थाली में प्रतिष्ठित करने तथा आसचौथ का चित्रण पट्टे पर मिट्टी घोलकर किये जाने की परम्परा आज भी भारत में देखने को मिलते हैं है। इस तरह भारतीयों के अनेकशः व्यक्तिगत, पारिवारिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अनुष्ठान मिट्टी, धरती, पृथ्वी आदि अनेक नामों से सम्बोधित की जाने वाली भूमि से अन्योन्याश्रय रूप से आदिकाल से ही जुडी हुई है, और इन कार्यों के निष्पादन के पूर्व धरती के देवत्व भाव को भारतीयों का समर्पण वर्तमान में भी निश्चित रूप से देखा जा सकता है। जात और परिक्रमा आदि की भारतीयों में प्रचलित परम्पराएँ भी धरती के प्रति देवभाव की ही अभिव्यक्ति है। एक आख्यान के अनुसार देवताओं में प्रथम पूज्य होने का निर्णय भी पृथ्वी की परिक्रमा सर्वप्रथम पूर्ण करने के आधार पर ही लिया गया था। पृथ्वी की परिक्रमा असम्भव होने की स्थिति में ही पृथ्वी परिक्रमा के स्थान पर अक्षय नवमी पर की जाने वाली मथुरा की पंचकोसी परिक्रमा, आदिवाराह की परिक्रमा, ब्रज चौरीसी कोस, वृंदावन, गरुड़गोविंद, गोवर्द्धन तथा अंतरगेही परिक्रमा और अंततः किसी भी मन्दिर आदि की अवधारणा भारतीयों में चल पड़ी हैं, यह सब परिक्रमा धरती के प्रति देवभाव के प्रकट करती है। हज पर गए इस्लाम के अनुयायियों द्वरा की जाने वाली परिक्रमा को भी इसी रूप में देखा जा सकता है। भारतीयों में मिट्टी के प्रति शुद्धि की धारणा होने अर्थात धरती को पवित्र माने जाने की प्रवृत्ति होने के कारण ही आंक पवित्तर, ढाक पवित्तर और पवित्तर धरती नामक कहावत ही बन गई है। मिट्टी के स्पर्श से ही अशुद्ध भी शुद्ध हो जाता है। इसीलिए शौच-निवृत्ति के बाद मिट्टी से हाथ धोने का विधान है। मिट्टी स्नान अर्थात मिट्टी से शरीर को मलकर स्नान आदि विधि भी इसी रूप का परिचायक है। मंगल कलश में सात स्थानों की मिट्टी एकत्र कर रखे जाने की परिपाटी भी इसकी महता को दर्शाता है। किसी भी व्यक्ति के मरने पर उसके शव को गाड़ने, जलाने तथा जल में बहाने की प्रथा है, इस प्रकार अंतिम गति भी मिट्टी ही है। माटी में सब चीज माटी हो जाती है।
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