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खेल खेल खेल

खेल खेल खेल 

जयचंदों की वाणी होती
  कभी न अनहद नाद
भीतर और और बाहर कुछ
केवल बक संवाद   
ऐसे  कब तक निभ पाएगा 
अवक्षरवादी मेल। 

रस्सी को हम साँप मान
रह गये अंधेरा पीते
गुदरी मे पैबंद साटते 
रहे जोड़ते रिशते
जो आते सहलाने मश से
कर जाते धुरखैल। 

अखवारों मे  बड़ी बड़ी
खबरें छप जाती हैं
जो जमीन पर कभी नहीं
होतीं नप जाती हैं
कागज पर लहराई फसलें
परती रहा गुलेल। 

बालू की सोदेवाजी में
 नदियाँ सूख गयीं
भाषण के स्वर्णिम विहान में
माँगे भूल गयीं
वादों के नारे में महका
मादक तेल फूलेल।
रामकृष्ण
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