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कमलेश पुण्यार्क “गुरु जी “ का आशीर्वचन “ दिव्यरश्मि ” के लिए

कमलेश पुण्यार्क “गुरु जी “ का आशीर्वचन “ दिव्यरश्मि ” के लिए

अतिशय आनन्द की बात है कि दिनांक २८ मई २०२२ ई. को धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का सम्यक् संवाहक सुयोग्य सम्पादक डॉ.राकेशदत्त मिश्र जी के सम्पादकत्व में, पवनसुत सर्वांगीण विकास केन्द्र के स्वामित्व में प्रकाशित मासिक पत्रिका “दिव्यरश्मि ” ने अपने जीवन के आठवें पायदान पर दिव्य आलोक विखेरते हुए सुदृढ़ कदम बढ़ा लिए हैं।

शास्त्र कहते हैं कि आठवें वर्ष से ही पौगण्डावस्था का प्रारम्भ होता है। द्विजों में, विशेष कर ब्राह्मणों में वेदाध्ययनाधिकार हेतु इसी पौगण्डावस्था को प्राथमिकता दी गयी है, ताकि भावी जीवन में सम्यक् सुदृढ़ता आ सके। ज्योतिषशास्त्रानुसार इसी अवस्था में बालारिष्टों की प्रभावधि समाप्त हो जाती है। इसे यदि समाजशास्त्र की दृष्टि से देखें, तो कह सकते हैं कि बचपन की छोटी-मोटी बाधाओं को अब निःशंक पार कर लिया गया है।

किन्तु इसका ये अर्थ भी नहीं कि आगे की चुनौतियाँ निरस्त हो गयी हैं। कर्त्तव्यनिष्ठा का भारी बोझ अभी वहन करना शेष है किशोरावस्था से प्रौढ़ावस्था तक । यानी अधिक सजग, अधिक सचेष्ट, अधिक कर्मठ, अधिक सतर्क रहने की जरुरत है। एक बात और ध्यान में रखने योग्य है कि धन हो या मान—इसकी बढ़ोत्तरी पड़ोसी से सही नहीं जाती। व्यावसायिक शैली में कहें तो कह सकते हैं कि प्रतिस्पर्द्धा के झंझाबातों को धैर्य और साहज पूर्वक झेलने की आवश्यकता है।

देखादेखी वाली संक्रामक सामाजिक व्याधि के विकट दौर में, आए दिन छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं का जन्म लेना कोई खास बात नहीं है। बाजार में बाढ़ है ऐसी पत्र-पत्रिकाओं का, जहाँ पाठक भी असमंजस में पड़ जाता है कि किसे खरीदूँ, किसे पढ़ूँ, किसकी आजीवन सदस्यता ग्रहण करूँ। क्योंकि ज्यादातर पत्र-पत्रिकाओं का प्रसूतिकागृह में ही प्राणान्त हो जाता है, यानी प्रवेशांक तो देखने को मिलता है— तामझाम वाले विमोचन मंच से, जिसके आकर्षण से प्रभावित होकर कुछ लोग सदस्यता भी ले ही लेते हैं, किन्तु अगला अंक फिर कभी नसीब नहीं होता पाठकों को।

ज़ाहिर है कि जोश में आकर पत्रिका का पंजीयन करा लेना और प्रवेशांक निकाल लेना तो किंचित् सहज है, किन्तु उसकी नियमितता बहुत ही संघर्षपूर्ण कार्य है, जो सबके बस की बात नहीं है।

महत्वाकांक्षा, निष्ठा और कर्मठता के साथ-साथ योग्यता और ईमानदारी की भी आवश्यकता होती है। ज़मीर बेंच कर पत्रकरिता करने का कोई औचित्य भी नहीं है। इससे तो कहीं चोर-चाण्डाल अच्छे हैं। उन्हें तो न्याय के कठघरे में भी खड़ा किया जा सकता है, जबकि पत्रकारिता का आईकार्ड लटकाए रिश्वतखोरों को न्यायिक शिकंजे में कसने में भी थोड़ी परेशानी होती है।

बड़े दुःख और चिन्ता की बात है कि आज ऐसे ही पत्र और पत्रकारों की सुनामी में समाज, राष्ट्र या कि विश्व तबाह हो रहा है। जरा खुल कर कहें तो कहना चाहिए कि चौपाए लोकतन्त्र का पहला पाया तो शुरु से ही डगमग रहा है। उससे प्रभावित होकर दूसरा और तीसरा भी डगमगाने लगा। अब तो चौथे पाए की भी दुर्गति हो गयी है।

अस्तु ! इस विकट संक्रामक परिस्थिति में भी दिव्यरश्मि पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने कर्त्तव्यपथ पर निरन्तर अग्रसर है—ये अपने आप में पत्रकारिता के इतिहास में मील का सबल पत्थर साबित होगा।

पिछले कुछ दशकों से हमारे यहाँ धर्मनिरपेक्षता की बीमारी लग गयी है। वस्तुतः एक अस्तित्त्वहीन परम्परा का बीजारोपण एक विकृत मानसिकता वाले कद्दावर नेता के मनोविकार स्वरुप भारतमाता की आँचल में जबरन उढेल दिया गया है। सच कहें तो उस मूरख को धर्म की ही परिभाषा ज्ञात नहीं, फिर तो धर्मनिरपेक्षता की बात ही बेमानी है। किन्तु अब ये बीमारी लग गयी है, जिसे सुधारना जरा कठिन है।

ऐसे तथाकथित धर्मनिर्पेक्षता वाले संक्रमणकाल में धार्मिक-आध्यामिक विचारों से ओतप्रोत, सामाजिक-राजनैतिक विचारों का संवाहक होते हुए, मुख्यतः राष्ट्रवादी विचारों और आर्यावर्तीय सनातन संस्कृति का संवहन करते हुए अलख जगाना दिव्यरश्मि का पावन लक्ष्य है—ये देख-जान-समझ कर माँ भारती का सीना अस्सीम विस्तार पाने लगता होगा।

दिव्यरश्मि पत्रिका अपने पत्रकारिता धर्म के सम्यक् निर्वहण के साथ विकास-पथ पर अग्रसर रहे, यही कामना है मेरी। जयभास्कर। हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

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