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हिन्दू समाज के समक्ष वास्तविक करणीय कार्य:--प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

हिन्दू समाज के समक्ष वास्तविक करणीय कार्य:--प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

वस्तुतः हिन्दू समाज आज भी विश्व के अन्य समाजों की तुलना में बहुत अच्छी स्थिति में है। यह अच्छी स्थिति हमारे पूर्वजों के कारण ही आई है। यह ठीक है कि हमारे सत्तालोभी कुछ पूर्वजों ने 20वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में अंग्रेजों के संकेत पर भारत को कमजोर करने के लिये भारत के भीतर ही दो शत्रु राज्य बना दिये। इसमें मुसलमानों की कोई वीरता नहीं थी। इतने मामूली उपद्रवों के आधार पर जो मुसलमानों ने उस समय किये थे, राष्ट्र का बटवारा नहीं हुआ करता। इतने सामान्य बहाने के साथ भारत राज्य को बांटना कठिन था और बहुत बड़ा उपद्रव हो जाता, इसलिये अनेक हिन्दुओं के साथ मिलकर अंग्रेजों ने मुस्लिम पापाचार की शक्ति को कई गुना बढ़ाकर प्रचारित किया और हिन्दुओं को डराने की कोशिश की। दूसरी ओर हिन्दुओं को झूठे आश्वासन भी देते रहे। पाकिस्तान के बनने पर जो वहाँ लोगों ने नारे लगाये - ‘हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिन्दुस्तान’, उससे भी तत्कालीन सच्चाई का पता चलता है। अस्तु; जो हुआ सो हुआ।
जो शेष है, वह भी कम नहीं है। इतने विशाल क्षेत्र में एक ही समाज हजारों वर्षों से एक होकर रह रहा हो, ऐसा उदाहरण विश्व में और कोई नहीं है। यही कारण है कि हिन्दुओं को चैन से रहते देखकर विश्व के सभी विकृत समूहों को ईर्ष्या और द्वेष होता है। वे चाहते हैं कि हिन्दू निरर्थक चीजों में अपनी शक्ति व्यय करते रहें और अपनी परंपरा की शक्ति के आधार पर अनुभूत जीवनशैली पर न चलें।
इसके लिये कई उपाय किये गये हैं। सर्वप्रथम तो जिन लोगों ने अंग्रेजों की योजना के अनुसार देश को बांटा, वे ही लोग उसके बाद शेष हिन्दू समाज चैन से न बैठे, इसके लिये अपने द्वारा किये गये पापपूर्ण विभाजन की स्मृति और दंश को बार-बार सजीव करते रहे। ऐसा दिखाते रहे मानो बटवारा उनकी बिना इच्छा के हुआ है और वे इसे समाप्त करना चाहते हैं। जो कि पूरी तरह झूठ था।
इस योजना से विदेशी शक्तियों की मदद से भारत में बहुत से निरर्थक किस्म के समूह निरर्थक प्रयोजनों के साथ रचे गये - जैसे हिन्द पाक एका या भारत का पुनः एकीकरण। सवाल यह है कि अभी कल आपने ही तो बटवारा किया है और अब यह क्या तमाशा हो रहा है? या तो आप कहिये कि हमने बटवारा बदमाशी में कर दिया, हमसे भूल हो गई, उसे सुधारना चाहते हैं। अगर यह करना था तो 1955-60 तक सम्पन्न हो सकता था। सैन्य बल के द्वारा भी और पूर्व और पश्चिम दोनों हिस्सों में रह रहे हिन्दुओं तथा साथ ही शांति और एकता के वास्तविक इच्छुक मुसलमानों के द्वारा जबरदस्त मांग उठाकर आवश्यक कदम उठाते हुये भी। परंतु वह नहीं किया गया। इसके स्थान पर पाकिस्तान को मुख्य शत्रु भी प्रचारित किया गया और उसे मिटाने की भी बात की जाती रही तथा भारत के पुनः एक होने की भी बात की जाती रही। इसमें यह स्पष्ट नहीं हुआ कि वस्तुतः क्या आप वहाँ के मुट्ठी भर शासकों को ही समाप्त कर अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे। यदि उन हिस्सों के मुसलमान हिन्दुओं के प्रचंड विरोधी हैं तो आप उनका क्या करेंगे? इसी प्रक्रिया में स्वयं भारत में रह गये मुसलमानों ने हिन्दुओं और हिन्दुत्व का प्रचंड विरोध शुरू कर दिया है और वर्तमान शासक 75 वर्षों से इसे संभाल नहीं पा रहे हैं। तब आप पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को कैसे संभालेंगे?
थोड़ी भी गहराई से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह थोड़े से शासकों के द्वारा लोगों को अर्थात हिन्दू लोगों को एक निरर्थक सी बात में जबरन उलझाये रखने का खेल भर है। इसका वास्तविक राजनैतिक जीवन से कोई संबंध नहीं है और हिन्दुओं के हित से भी इसका कोई संबंध नहीं है।
हिन्दुआंे को उलझाये रखने के लिये इसी तरह के दूसरे बहुत से खेल खेले जा रहे हैं। जैसे-जैसे ये साक्ष्य मिल रहे हैं कि 19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक भारत में किसी भी जाति या समुदाय के साथ कोई भी अन्याय नहीं होता था और सभी जातियों के लोग समान रूप से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा अपनी-अपनी वृत्तियों और व्यवसाय में लगे रहते थे, वैसे-वैसे शताब्दियों के शोषण और अत्याचार के नितांत झूठे किस्से हवा में फैलाये जाते रहे हैं और हिन्दुओं को प्रेरित किया जाता है कि वे इन झूठों के विरूद्ध बहस में उलझें। अर्थात् झूठ तो रचें नेता और उनके चाटुकार मीडियाकर्मी तथा बौद्धिक लोग और उसमें उलझें हिन्दू समाज। यह विचित्र स्थिति है।
इसी प्रकार अचानक अपने पाले हुये कुत्तों के द्वारा अंग्रेजांे ने और उनके उत्तराधिकारी नेहरू जी ने हवा में यह नारा फैलने दिया - ‘यह आजादी झूठी है। देश की जनता भूखी है।’ इस नारे की आड़ में अंग्रेजों द्वारा की गई सारी लूट और शोषण तथा अत्याचार पहले तो छिपा लिया गया और फिर भुला दिया गया तथा हिन्दू समाज के कथित उच्च वर्णों और ऊंची जातियों को इस भूख और गरीबी के लिये जिम्मेदार प्रचारित किया जाने लगा। इसमें दोहरा खेल था। एक छद्म किस्म का नस्लवाद था जो कथित ऊँची जातियों के, विशेषकर ब्राह्मणों के, भीषण गरीब लोगों को भी शोषक और दुष्ट तथा शेष जातियों की गरीबी के लिये जिम्मेदार प्रचारित करता था और साथ ही अंग्रेजों के पाप को छिपाता था।
जिस समय अंग्रेज यहाँ से गये, उस समय रोकड़ बही के सारे हेर-फेर और अपना माल मंहगे दामों में जबरन भारतीयों को देना और भारत का माल जबरन लगभग मुफ्त में हड़पने की 90 वर्षीय प्रक्रिया के बावजूद इंग्लैंड भारत का कर्जदार था। आज भारत पर अनेक देशों का कर्जा है।
जिस समय अंग्रेज गये, डॉलर की कीमत रूपये के बराबर थी। आज डॉलर की कीमत रूपये से 70 से 80 गुना अधिक है। यह सब खेल कांग्रेस के द्वारा योजनापूर्वक गरीबी हटाने के नारे के आवरण में किया गया और भारत से बहुत अधिक धन लगातार इंग्लैंड, अमेरिका तथा अन्य देशों को भेजा गया। 90 वर्षों में इंग्लैंड के दबाव और गलत नीतियों के द्वारा जितना धन भारत का विदेश गया था, उससे लगभग छह से आठ गुना अधिक भारत का धन 75 वर्षों में भारत की सरकारों ने विदेशों को भेजा है। देश की वास्तविक गरीबी बढ़ाई है और गरीबी हटाने का निर्लज्जता पूर्ण नारा जारी है। इसके साथ ही मध्यवर्ग में धन सम्पत्ति बढ़ी है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं होता और मध्यवर्ग में वास्तविक दानशीलता तथा उदारता कुछ घटी है, इसके कारणों की भी विवेचना नहीं होती। क्योंकि वस्तुतः इसके लिये जिम्मेदार राजनेता, शासक और प्रशासक हैं।
इन सब कुकर्मों और पापों के बाद भी उदार हृदय और धीर-गंभीर हिन्दू समाज अपने शासकों को टिकाये रखना चाहता है। क्योंकि अपने राज्य से प्रेम की हिन्दुओं की अत्यन्त प्राचीन परंपरा है। परन्तु शासक यूरो-ईसाई बुद्धि से संचालित होने के कारण हिन्दुओं की इस प्रेम भावना का सम्मान करना नहीं जानते अपितु यह समझते हैं कि हम इन्हें अच्छा मूर्ख बना रहे हैं और ये तो मूर्ख बने ही रहेेंगे, इसलिये इनकी ओर ध्यान मत दो। उत्पातियों, अराजक तत्वों, असामाजिक तत्वों और अपराधियों की खुशामद कर उन्हें पटाये रखो, यह स्पष्ट नीति सभी शासकों की 75 वर्षों से है। हिन्दुओं की जीवनशैली, त्यौहार, उत्सव, सामाजिकता, भोजन और भवन तथा धर्म और संस्कृति की सभी हिन्दू परंपराओं और संस्थाओं पर अकारण आक्रमण करने वाले अपराधियों के झुण्ड को स्वयंसेवी संगठन के नाम से न केवल अधिकार अपितु अनुदान भी सरकारों द्वारा सुलभ कराये जाते रहते हैं। इस प्रकार हमारे राज्यकर्ता हिन्दू समाज के विरूद्ध सदा युद्ध की मुद्रा में रहते हैं और युद्ध में जीतने की सामर्थ्य नहीं है, इसलिये स्वयं को शत्रु नहीं बता कर, उद्धारक दर्शाते हैं। जिस ससुरे को देखो, वही हिन्दू समाज को दो उपदेश झाड़कर चल देता है। परन्तु कोई भी ससुरा चुनाव के समय यह भाषण हिन्दू समाज को नहीं देता और न ही यह खुलकर कहता कि हमको वोट इसलिये दो कि हम शासन में जाकर तुमको रोज भाषण पिलायेंगे और तुम्हारे धर्म तथा संस्कृति को स्वयं मटियामेट करेंगे तथा मटियामेट करने वालों को सरकारी खजाने से धन देंगे।
हिन्दू समाज को तोड़ने के लिये सरकारी खजाने का और सरकारी नीतियों का खुलेआम उपयोग हो रहा है। अब तो कतिपय जातियों को विशेष अधिकार दे दिया गया है कि वे अपने से भिन्न जाति वाले प्रतिस्पर्धियों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल में डलवा दें। इस प्रक्रिया में थानेदार से लेकर मजिस्टेªेट और अन्य जज तक सताये हुये लोगों से भारी धन ऐंठकर फिर राहत देते हैं। यह सर्वविदित प्रक्रिया प्रधानमंत्री को और शासकों को नहीं पता है, यह मानना असंभव है। यह खुला भीषण अन्याय सामाजिक न्याय के नाम पर करना पाप की पराकाष्ठा है। केवल नास्तिक और धर्मशून्य लोग ही ऐसी पापपूर्ण नीतियां बना सकते हैं।
वास्तविक स्थिति यह है कि 100 करोड़ के लगभग हिन्दू बचे हुये भारत में ऐसे प्रेम और आत्मीयता से रह रहे हैं, जो विश्व में दुर्लभ है। वस्तुतः विश्व को उनसे सीखने योग्य है। क्योंकि ऐसा कोई और इतना बड़ा समाज इतने प्रेम और आत्मीयता से नहीं रहता। इसी प्रेम और आत्मीयता को तोड़ने के लिये अन्यायपूर्ण शासकीय नीतियां बनाई जाती हैं।
ऐसी स्थिति में सहज, सामान्य हिन्दुओं का एक ही कर्तव्य रह जाता है कि वे राजनैतिक कार्यकर्ताओं और मीडिया के द्वारा उछाले गये मुद्दों से दूर रहें और अपने वास्तविक, मौलिक और पारम्परिक मुद्दों पर ध्यान दें।
वस्तुतः हमारे पूर्वजों ने जो प्रचंड पुरूषार्थ किया है और अन्य देशों से भी जो कुछ सीखने योग्य था, वह सीखकर जो एक सुदृढ़ सैन्य बल तैयार किया है, उसके रहते कोई भी तात्कालिक संकट हिन्दुओं को नहीं है। सेना और शासन के लिये जो कुछ करणीय है, वह हम करते रहें। शासन तो स्वयं करा लेता है और सेना के प्रति हिन्दुओं में असीम प्यार है। अतः वह भी कोई समस्या नहीं है।
शेष समय मीडिया और सरकारी एजेंसियों द्वारा उछाले गये मुद्दों से दूरी बना लेनी चाहिये। सरकार को हम टैक्स नियमित देते हैं और इसके बाद सरकार का हमारे प्रति जो कर्तव्य बनता है, उसे वह निभाये यह देखना हमारा काम है। उनके द्वारा उछाले गये या सुझाये गये मुद्दों में उलझना हमारे कर्तव्य की श्रेणी में नहीं आता। राज्यकर्ता अपने कर्तव्य का पालन करें, ऐसा दबाव बनाना हिन्दुओं का सर्वोपरि कर्तव्य है। राज्यकर्ताओं के संरक्षण में भारत का लगातार इस्लामीकरण और ईसाईकरण हो रहा है और यह संविधान की मूल भावना के पूर्णतः विरूद्ध है। अतः शासन पर दबाव आवश्यक है।
गरीबी हटाने के नाम पर बने अनेक विभागों में अरबों रूपये सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्ते आदि के रूप में सरकारी खजाने से दिये जाते हैं। इन विभागों की समीक्षा कर इनके पुनर्गठन का दबाव बनाना आवश्यक है।
हमारा वास्तविक कर्तव्य तो सर्वप्रथम यह देखना है कि वस्तुतः शासन को सम्यक रूप से करों की अदायगी के अतिरिक्त हमारा मुख्य कार्य दैनंदिन जीवन को सामान्य रूप से सुचारू रखना है। इसके लिये परंपरा से प्राप्त बुद्धि ही टिकाऊ मार्ग दिखायेगी। हमारे जीवन में ऐसा कोई संकट नहीं है जो पश्चिमी यूरोप में या पूर्वी यूरोप में या उससे भी बढ़कर मुस्लिम देशों में या वर्तमान अफ्रीका में अथवा अमेरिका में या चीन में है। अपने पूर्वजों के पुण्य प्रताप से हम उन सब संकटों से मुक्त हैं। हमारे पास ऐसी पारंपरिक संस्थायें हैं जो इस विषय में हमें अपने जीवन को व्यवस्थित रखना सिखाती हैं। अतः उन पर ही ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है।
हमारी परंपरागत संस्थाओं और जीवनशैली को नष्ट करने के लिये शासकों और प्रशासकों के संरक्षण में अनेक मानवद्रोही और मानवीय अपराध भावना वाली संस्थायें भारत में फल-फूल रही हैं। उनका काम इतना घिनौना है कि उसे ढंकने के लिये वे तरह-तरह के झूठ रचती हैं। हमारे भोजन और जीवनशैली पर आक्रमण का अधिकार इन कमीनी संस्थाओं को शासन ने ही दे रखा है। उनपर कठोर कार्यवाही कर उन्हें दंडित करना शासन का ही कर्तव्य है।
मानवाधिकार के नाम पर आतंकवादियों, अपराधियों और हिन्दू द्रोहियों को संरक्षण देने वाली संस्थायें सरकारी संरक्षण के बिना पल भर नहीं टिक सकतीं। अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का भारत के बहुसंख्यकों के पक्ष में उपयोग शासन के लिये बहुत सरल काम है। जबकि शासन से बाहर के समाज के लिये बहुत कठिन है। परन्तु राज्यकर्ताओं ने इस काम को नहीं किया है। अतः उन पर दबाव बनाना चाहिये।
यह दबाव राज्यकर्ताओं पर बनाना हिन्दुओं का सर्वोपरि कर्तव्य है कि वे समाज के प्रतिनिधि हैं, उद्धारक नहीं। संविधान में उन्हें जनप्रतिनिधित्व का ही अधिकार दिया गया है, उद्धारक होने के अधिकार नहीं। उद्धारक होने का हर दावा संविधान में नागरिकों को दिये गये मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है। यह बात देश भर में फैलानी चाहिये और राजनीति से उद्धारकों की विदाई सुनिश्चित कर प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना चाहिये।
इसके साथ ही हिन्दू समाज को अपने निम्नांकित सहज कर्तव्य पुनः अपने हाथ में लेने चाहिये और अब तक के धर्मनिरपेक्ष शासकों द्वारा और उनके चाटुकार बौद्धिकों द्वारा तथा आश्चर्यजनक रूप से अनपढ़ भारतीय मीडिया द्वारा उछाले गये एजेंडों पर चलना पूरी तरह त्याग देना चाहिये। इसके लिये एक विराट असहयोग आंदोलन हिन्दू समाज छेड़े। जिसमें इन लोगों के द्वारा उछाले गये मुद्दों पर चर्चा में सहभागिता से सहयोग करना मुख्य है। साथ ही इनके उछाले गये मुद्दों पर तनिक भी प्रतिक्रिया नहीं करें और तनिक भी क्षोभ नहीं करें। क्योंकि इससे ही वे अपनी वैधता पाने लगते हैं। इनकी संपूर्ण उपेक्षा, तिरस्कार, निंदा, घृणा और अपमान आवश्यक है।
इसके साथ ही हिन्दू समाज के पास अपनी परंपरागत संस्थाओं को पुनः सुदृढ़ करने का बहुत बड़ा दायित्व सामने है। जाति संगठनों, न्याय की परंपरागत पंच परमेश्वर परंपरा आदि को पुनः जीवन्त बनाया जाये। साथ ही शास्त्रों का पठन पाठन, धर्माचार्यों की प्रतिष्ठिा, धर्मशास्त्रों की प्रतिष्ठा आदि आवश्यक हैं। प्रमाणपत्र और उपाधि के लिये जो पढ़ाई सरकारों ने अनिवार्य कर रखी है, उसे करते हुये साथ ही किशोर-किशोरियों तथा युवक-युवतियों को अपने स्तर की पढ़ाई के लिये भी उत्साहित किया जाये। युवा ऊर्जा का इसमें उपयोग होगा। इस विषय में आर्यसमाज के कतिपय मूढ़ लोगों की आलोचना में समय नष्ट करने की जगह, आर्य समाज के गुरूकुलों से प्रेरणा लेकर सर्टिफिकेट और डिग्री से बाहर की वास्तविक प्रामाणिक शिक्षा भी अवश्य देनी चाहिये।
इस प्रकार वस्तुतः हिन्दू समाज के समक्ष वास्तविक करणीय कार्य अपने ज्ञान परंपरा और जीवन परंपरा तथा चिंतन परंपरा को सुदृढ़ करना ही है। हिन्दू समाज की शक्ति से घबराकर अनेक लोगों ने उसकी शक्ति को विभाजित करने के लिये हिन्दू समाज के समक्ष अनेक काल्पनिक मुद्दे उछाल दिये हैं और एजेंडा थमा दिया है। उन मुद्दों और एजेंडे के प्रति तिरस्कार पूर्ण उपेक्षा के साथ हम सब स्वधर्म में प्रवृत्त हों, प्रवृत्त रहें, यही करणीय कार्य है। -प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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