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मत रोको पर समझो

मत रोको पर समझो

छम छम करती नदी बहती
टेढ़े मेढ़े ऊँचे नीचे रास्तो से। 
संग मिलकर वो चलती है
छोटी छोटी नदी नाले को। 
सबको अपना पानी देती
और देती है शीतलता। 
बहते बहते किनारों को
हराभरा वो करती जाती।। 
छम छम करती नदी चलती
टेढ़े मेड़े ऊँचे नीचे रास्ते से।। 

उदगम स्थल से देखो तो
बहुत छोटी धारा दिखती है। 
 पर जैसे जैसे आगे बहती
वैसे वैसे बढ़ती जाती है। 
फिर भी अपने स्वरूप पर
कभी घमंड नहीं करती वो। 
कितने गाँवो और शहरो की
प्यास बुझाती रहती है।। 
छम छम करती नदी बहती
टेढ़े मेढ़े ऊँचे नीचे रास्तो से।। 

जब जब रोका लोगों ने
इसके चलते रास्ते को। 
तब तब मिले है उन्हें
विनाशता के परिणाम। 
जितनी शीतलता ये देती है 
उससे ज्यादा दुख भी देती। 
इसलिए मैं कहता हूँ लोगों
मत रोको इसके रास्ते को।। 
छम छम करती नदी बहती
टेढ़े मेढ़े ऊँचे नीचे रास्ते से।। 

जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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