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साहित्यिक प्रदूषण

साहित्यिक प्रदूषण

छा रहा हर ओर साहित्यिक प्रदूषण,
पद्य   एवं   गद्य  दोनों  मर   रहे   हैं।

पंत जी का कवि नहीं होता वियोगी,
अब नहीं दिनकर व्यथायें छंद बनतीं।
अब इलाहाबाद के पथ पर निराला,
तोड़ पत्थर नारियाँ कब राह गढ़तीं!
निर्मला  होरी  गबन  गोदान  गायब,
सत्य कहने से समीक्षक डर रहे हैं।

व्यास  बाल्मीकि  तुलसीदास नानक,
तारसप्तक, चार खम्भे  खो  रहे हैं।
सूर  केशव   जायसी  भूषण बिहारी,
शुक्ल  भारतइन्दु  कबिरा  रो रहे हैं।
अब  यहाँ   कामायनी  के मनु अभागे,
कीचड़ों  के  बीच  बेबस  तर रहे हैं।

चंद   शंकरदेव   विद्यापति   महाकवि,
भास  मीरा  मैथिली   हरिऔध नाभा।
पाणिनी   कृतवास    रत्नाकर रहीमा,
है भरतमुनि सहरपा खुसरो कि आभा?
सृजन की सारी  कसौटी  तोड़ करके,
खुद बनाकर ताज,खुद सिर धर रहे हैं।

स्वर्ग  में  चिंतित   हमारे  पूर्वजों   से,
है निवेदन फिर से हमको माफ करना।
लेखनी  बिकने  लगी  बाजार में तो,
बेचकर धनपशु बने, सीखा अकड़ना।
लूटकर  साहित्य  के सम्मान को हम,
शान्ति शुचि सौहार्द पशुवत चर रहे हैं।

डॉ अवधेश कुमार अवध
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