Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

बंधे हैं दिल्ली राज्य के हाथ

बंधे हैं दिल्ली राज्य के हाथ

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
एक बार फिर यह मामला गर्म हुआ कि दिल्ली राज्य में अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार किसके पास होना चाहिए। देश की सबसे बड़ी अदालत एक बार इस पर फैसला कर चुकी थी लेकिन केन्द्र की नरेन्द्र मोदी-2 सरकार ने कानून बना दिया कि दिल्ली का सर्वेसर्वा लेफ्टीनेंट गवर्नर (उपराज्यपाल) ही होगा। यह मामला अदालत में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति बना दी। केन्द्र सरकार ने यह कानून भी उस समय बनाया था जब पांच राज्यों (यूपी, उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा) के विधानसभा चुनाव हो रहे थे। इसलिए मीडिया ने इस तरफ ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं और 2013 से अब तक वे दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आवाज भी उठा रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय राजधानी होने के चलते उनकी बात नहीं मानी गयी। संविधान की धारा 239 एए कहती है कि एलजी अर्थात लेफ्टीनेंट गवर्नर दिल्ली की चुनी हुई सरकार की सलाह मानने को बाध्य नहीं है जबकि बाकी राज्यों में राज्यपाल चुनी हुई सरकार के फैसले मानने को बाध्य है। इसलिए दिल्ली के उपराज्यपाल अरविन्द केजरीवाल की सरकार के फैसले और आदेश पलटते रहते हैं। ऐसा राजनीतिक कारणों से भी होता है, इसमें कोई संदेह नहीं क्योंकि नरेन्द्र मोदी की सरकार पूर्ववर्ती केन्द्र सरकारों से भिन्न है। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि 14 फरवरी 2019 को अधिकारों का बंटवारा करते समय चुनी हुई सरकार को ही वरीयता दी थी।

दिल्ली के अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का मसला सुप्रीम कोर्ट ने 5 जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया है। यानी दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं को कौन नियंत्रित करेगा, इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ तय करेगी। अब इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में 11 मई को सुनवाई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मामले का जल्द निपटारा किया जाएगा, साथ ही यह भी कहा कि कोई भी पक्ष सुनवाई टालने के आवेदन न दे। दिल्ली सरकार अधिकारियों पर पूर्ण नियंत्रण की मांग कर रही है। दरअसल, पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था। सिविल सर्विसेज पर नियंत्रण को लेकर दिल्ली सरकार ने केंद्र के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग के अधिकार की मांग की है। पिछली सुनवाई में ही सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया था कि वह मामले को 5 जजों के संविधानिक पीठ के पास भेज सकता है। दिल्ली सरकार की तरफ से वकील अभिषेक मनु सिंधवी ने कहा था कि इस मामले में संविधान पीठ का फैसला पहले से ही है। केंद्र सरकार 6 बार केस की सुनवाई टालने का आग्रह कर चुकी है। अब केस को बड़ी बेंच के पास भेजने की मांग कर रही है। संविधानिक पीठ के फैसले में गलती निकाली जा सकती है, इसका मतलब यह नहीं है कि मामले को फिर बड़ी बेंच के पास भेजा जाए। यह एक दुर्लभ मामला होगा। इससे पहले दिल्ली सरकार बनाम सेंट्रल गवर्नमेंट की लड़ाई पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा कि अधिकारियों के तबादलों और पोस्टिंग पर उसका नियंत्रण होना चाहिए, क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है और पूरी दुनिया भारत को दिल्ली की नजर से ही देखती है। वहीं, दिल्ली सरकार ने केंद्र के रुख पर आपत्ति जताई।

पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट में केंद्र की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने 239एए की व्याख्या करते हुए बालकृष्णन समिति की रिपोर्ट का भी जिक्र किया था और कहा था कि चूंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए यह आवश्यक है कि केंद्र के पास लोक सेवकों की नियुक्तियों और तबादलों का अधिकार हो। दिल्ली, भारत का चेहरा है। सॉलिसिटर जनरल ने शीर्ष अदालत के समक्ष केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए तर्क दिया कि दिल्ली क्लास सी राज्य है। दुनिया के लिए दिल्ली को देखना यानी भारत को देखना है। बालकृष्णन समिति की रिपोर्ट की इस सिलसिले में बड़ी अहमियत है। चूंकि यह राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए यह आवश्यक है कि केंद्र के पास अपने प्रशासन पर विशेष अधिकार हों और महत्वपूर्ण मुद्दों पर नियंत्रण हो।

गौरतलब है कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) सरकार केंद्र पर राजधानी के प्रशासन को नियंत्रित करने और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के फैसलों में उपराज्यपाल के जरिए व्यवधान उत्पन्न करने का आरोप लगाती रही है। दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच 2015 से ही चली आ रही अधिकारों की जंग को लेकर 2019 में देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में फैसला सुनाया था जिससे इस झगड़े का कोई निष्कर्ष नहीं निकला। सुप्रीम कोर्ट ने कई प्रमुख अधिकार एलजी को देते हुए इस मामले के निपटारे के लिए तीन जजों वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच को यह केस सौंप दिया। अप्रैल 2015 में दिल्ली को केजरीवाल सरकार मिली। शुरुआती दौर में दिल्ली सरकार एंटी करप्शन ब्रांच(एसीबी) के जरिए भ्रष्टाचार के खिलाफ तेजी से कार्रवाई कर रही थी। इसी बीच एक दिन एसीबी ने दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल को रिश्वत लेने के मामले में गिरफ्तार कर लिया। इसे लेकर दिल्ली सरकार और दिल्ली पुलिस में खूब खींचतान हुई। यहां तक कि केंद्र सरकार भी दिल्ली पुलिस के उस जवान के बचाव में खड़ी हो गई। तब दिल्ली सरकार से मांग की गई कि उस जवान का केस एसीबी से लेकर दिल्ली पुलिस को दे दिया जाए, लेकिन सरकार नहीं मानी। फिर क्या था, उस वक्त जो खींचतान दिल्ली और केंद्र सरकार में शुरू हुई वो आज भी जारी है।

इसके बाद मामला आया मई 2015 में दिल्ली के तत्कालीन मुख्य सचिव केके शर्मा के छुट्टी पर जाने का। शर्मा को छुट्टी पर जाना था और दिल्ली सरकार को उनकी जगह पर कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त करना था। सर्विसेज विभाग के मंत्री मनीष सिसोदिया ने आईएएस अधिकारी परिमल राय का नाम सुझाया लेकिन एलजी ने पावर सचिव शकुंतला गैमलिन को कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। इसके बाद तो दिल्ली सरकार ने उपराज्यपाल के खिलाफ पूरी तरह से मोर्चा खोल दिया। उस वक्त दिल्ली के एलजी नजीब जंग थे। सिर्फ यही नहीं उपमुख्यमंत्री सिसोदिया ने तो इसे चुनी हुई सरकार का तख्तापलट की साजिश तक करार दे दिया। इसके बाद चुनी हुई सरकार की मर्जी के बिना शकुंतला गैमलिन को मुख्य सचिव नियुक्त करने पर मुहर लगाने वाले तत्कालीन सर्विसेज के सचिव अनिंदो मजुमदार को दिल्ली सरकार ने पद से तो हटाया ही उनके दफ्तर के दरवाजे पर ताला तक जड़ दिया। केंद्र सरकार ने मई 2015 में एक नोटिफिकेशन जारी कर ये ऐलान किया था कि अब दिल्ली में सरकार का मतलब उपराज्यपाल हैं। इस नोटिफिकेशन में ये भी लिखा था कि सर्विसेज विभाग चुनी हुई सरकार के अधिकार में नहीं है बल्कि उपराज्यपाल के अधीन होगा। केंद्र के इसी नोटिफिकेशन में ये बात भी थी कि अब दिल्ली सरकार की एंटी करप्शन ब्रांच को उपराज्यपाल के हवाले कर दिया गया है और एसीबी को किसी भी केंद्र सरकार के तहत आने वाले अधिकारी या कर्मचारी पर कार्रवाई न करने का आदेश दिया। इस तरह से दिल्ली सरकार के हाथ से सभी बड़े अधिकार निकल गए और इसके विरोध में सरकार दिल्ली हाई कोर्ट चली गई और वहीं से दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल की कानूनी लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने दिसम्बर 2019 में काफी हद तक केजरीवाल के हक में फैसला सुनाया था।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ