आज जब भी कलम पकड़ता हूँ
उंगलियों में
क से कलम और
ज्ञ से ज्ञानी तक
याद आ जाता है।
अ से अक्षर दौड़ते हुये
अः पर थम जाता है।
मस्तिष्क झंकृत हो उठता है
एकबारगी
मानो कोई कह रहा हो "बाबू"
आज याद कर लेना सब
शाम को चाकलेट दूँगा।
मुड़कर पीछे देखता हूँ
बैठकखाने बाबूजी की तस्वीर
विहँस रही होती है
मेरी आड़ी तिरछी लेखनी को
देखकर।
मैं आँखें बंद कर लेता हूँ
मन ही मन नमन निवेदित करता हूँ
ह्रदय की वेदना छलक आती है
आँखों से
मौन मुख सिर्फ इतना ही कह पाता हूँ
बाबूजी सब आपका दिया आशीर्वाद है
आपकी ही कीर्ति को आगे बढ़ा रहा हूँ
स्वीकार करें ये शब्दपुष्प
जो आपकी चरणों पे चढ़ा रहा हूँ।
.....मनोज कुमार मिश्र "पद्मनाभ"।हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें|
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