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दूर देश मत जा।


दूर देश मत जा।

( आचार्य राधामोहन मिश्र माधव )
दूर देश मत जा।
धरती हुई है ऋतुमती अबही
जगा तीव्र अभिलाष है तबही
बूझ रहे कांत कामना
परसत मन की कोर, भावना
ठहर -ठहर प्रकटत उद्भावना
मनपांखी बनी मनसिजा
दूर देश मत जा।

देख मेघ शिखि की इतराहत
फुल्ल भाव ठुमकत ले राहत प्रसृत पंखपट , मटकत, झटकत
नूपुर झनकत, कंकन खनकत
केंकी के कें-कें में करुणा
अनबुझ भाव भ्रमत पंजा
दूर देश मत जा।

ठहरी साँस परखत चित भामिनी
उदी- उदी निरखत गजगामिनी
आस बंधी आवन मदयामिनी
कर विभोर निज तन-मन-सुधि सब
धरा दिव्य लोक बन जा
दूर देश मत जा।
--माधव


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