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भगवान परशुराम ने अधर्म और अन्याय का प्रतिकार किया

भगवान परशुराम ने अधर्म और अन्याय का प्रतिकार किया

प्रभाकर चौबे चिंतक ब्राह्मण नेता 
भगवान परशुराम ने अधर्म और अन्याय का प्रतिकार किया। दुसरे का धन हरण करना पाप है अगर वह धन शक्ति वृत्ति से हासिल न करके तप , श्रम और साधना से हासिल की गई हो।महर्षि जमदग्नी के तप के प्रभाव से सुरभी गौ उनके आश्रम मे रहती थी।जिसे सहस्त्रबाहु जबरन हथियाना चाहता था।किसी की तप : ऊर्जा , ज्ञान ,और सिद्धि को जबरन हथियाया नही जा सकता।महर्षि वशिष्ठ के पास भी कामधेनु गाय थी। जिसको राजमद मे विश्वामित्र ने हासिल करने की कोशिश की लेकिन असफल हुए। ऋषियों के तप , ज्ञान, साधना , सिद्धि का लाभ उनके साथ सत्संग,उनकी भक्ति और सेवा से हासिल करने की परंपरा रही है। एक राजा राज्य विस्तार हेतु दुसरे राज्य को जीतता है।सभी राजा शक्ति वृत्ति से राजा बने हुए होते हैं ।इसलिए युद्ध मे हार जीत से राज्यो का विस्तार होता रहता है।दो मुक्केबाज अगर मुक्केबाजी करे तो अधर्म नही लेकिन कोई मुक्केबाज एक ऐसे व्यक्ति को चुने जो मुक्केबाज नही और लडना भी नही चाहता तो उसको मुक्केबाजी के लिए विवश करना अधर्म है। यही कार्य राजा विश्वामित्र ने किया था ।वही सहस्त्रबाहु ने भी किया।
इसतरह के कार्यव्यापार से अधर्म और अन्याय का सृजन होता है ।प्रत्येक व्यक्ति शक्ति वृत्ति धारण कर ले तो अराजकता फैल जाएगी। पूरा समाज तहस नहस हो जाएगा।लुट और भय का माहौल बन जाएगा।मानवीय जीवन, सम्पूर्ण कार्य व्यापार, व्यवस्था,प्रशासन अस्तव्यस्त हो जाएगा। बलवान व्यक्ति अगर बल के मद मे अधर्म करे तो उसके प्रतिकार हेतु संगठित होकर प्रतिकार करना चाहिए ।प्रतिकार को एक बडी हिंसा और अव्यवस्था को रोकने का प्रयास ही समझा जाना चाहिए ।अगर बणिक उधार दे और कोई व्यक्ति सेवा दे ।और आप उसका हक मार लें तो वह फिर अपनी वृत्ति त्यागकर हथियार उठायेगा ।इससे जन धन की हानि होगी । व्यापार और सेवा कर्म को हानि पहुंचेगी।इसलिए किसी के परिश्रम से हासिल धन को छिनना , ठगना और विश्वासघात करना अधर्म है। इसी अधर्म को रोकने के लिए एवं मानवीय कार्यव्यापार को संरक्षित करने के लिए भगवान परशुराम ने तप करके शिव जी से परशु एवं कई दिव्यास्त्र प्राप्त किये । गुरिल्ला युद्ध पद्धति भी सीखी।
सहस्त्रबाहु भगवान दत्तात्रेय का उपासक महान साधक था ।उसकी हजार भुजायें थी।उसने रावण तक को युद्ध मे बन्दी बना लिया था।उसे कोई मनुष्य मार नही सकता था ।इसलिए वह उपद्रवी और लुटेरा हो गया था।उसने कई राजाओ को अपने मुहिम मे शामिल कर लिया था और लोगो को लुट रहा था।ब्राह्मण जो सर्वथा निरीह होते हैं ।अपने धन का सदुपयोग दुसरे के ज्ञान और धर्म की वृद्धि हेतु एवं सत्कर्म मे करते थे ।उन्हें भी लुटने लगा। महर्षि जमदग्नी गुरूकुल चलाते थे ।उनके आश्रम को कभी धन नही दिया ।उन्होने अपने तपोबल से सुरभी को आश्रम मे प्रकट किया ।जिससे आश्रम की व्यवस्था चलती थी।गरीब ब्राह्मण के लडके वेद पढते थे और यज्ञ करते थे।महर्षि जमदग्नी जैसे त्यागी ऋषि तो सबकुछ समाज और धर्म के लिए ही करते थे।उनको तो आश्रम की व्यवस्था देखनी थी जिससे वेद , धर्म और स्मृतियां लुप्त न हो जाय।महर्षि वशिष्ठ जी भी ऐसा ही करते थे।सहस्त्रबाहु ने अपने स्वार्थ और राजमद के कारण धर्म पर प्रहार करके उसके संरक्षण और विस्तार पर रोक लगाने की कोशिश की।सुरभी माता के प्रहार से उसकी सेना नष्ट हो गई।उसे अपनी गलती समझ मे आ जानी चाहिए थी लेकिन उसके पुत्रों ने धोखे से महर्षि जमदग्नी की हत्या कर दी एवं गौ चुरा ले गये। ऋषि जमदग्नी के लडके अपने पिता के प्राणों की रक्षा नही कर पाये।भगवान परशुराम जी ब्राह्मणोचित धर्म मार्ग पर थे ।वहाँ मौजूद नही थे ।तप करने गये हुए थे।आने पर पता चला तो उन्होंने अपने मूल प्रकृति के विरूद्ध जाकर सहस्त्रबाहु के नाश का प्रण लिया और तपस्या करने चले गये।फिर भगवान शिव जी से परशु ,अस्त्र शस्त्र एवं युद्ध विद्या सीखकर आये।वे खुद सहस्त्रबाहु का सेना सहित संहार कर सकते थे ।लेकिन उन्होने ब्राह्मणों की सेना तैयार की यह शिक्षा देने के लिए कि जब शास्त्र और उपदेश से समाज नही सुधरे तो ब्राह्मण को शस्त्र उठा लेना चाहिए । उन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति ब्राह्मण सेना को सिखाई और सहस्त्रबाहु को युद्ध के लिए ललकारा । स्वयं एवं ब्राह्मणों की छोटी सी सेना इतनी बडी वरदानी सिद्ध राजा से भीड गई।
भगवान परशुराम ने ब्राह्मणों के माध्यम से पूरी मानवता के लिए संदेश दिया कि कोई किसी के कमाये वाजिब हक और उसकी सम्पत्ति का हरण न करे।अगर कोई शक्तिमद मे ऐसा करता है तो समाज को संगठित होकर उसका प्रतिकार करना चाहिए ।उससमय पुलिसिंग और कानून व्यवस्था नही थी ।आज के समय मे एकजुटता के साथ सोशलमीडिया मे अधर्म और अन्याय का विरोध , पंचायत करके अधर्म को रोकने की कोशिश के साथ कानून के मदद से धर्म और न्याय को स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिए ।आत्म, धर्म और राष्ट्ररक्षार्थ शस्त्र भी उठाना पडे तो पीछे नही हटना चाहिए । परशुराम वंशज कह कर कितने दावेदार उत्पन्न हो गये हैं जबकि मुट्ठी भर ब्राह्मण ही उनकी सेना मे थे। काफी शोध के बाद मुझे यह लगा कि परशुराम जी की जो शिक्षा थी उस आधार पर चलने वाले ही परशुराम वंशज कहलाने के योग्य हैं।पहली शर्त जो ब्राह्मण भक्त हो।गौ , वेद, ब्राह्मण, यज्ञकर्म, साधु , संतों एवं देव संस्कृति का वाहक और वीर हो।ब्राह्मण का धन हरण नही करता हो।ब्राह्मण को सताता नही हो।स्वार्थ की लडाई नही लडकर सत्य और न्याय की लडाई लडता हो। ऐसी संस्कार जिसमे हो वही परशुराम का भक्त है। इसमे मुझे कान्यकुब्ज ब्राह्मण खासकर ओझा , दुबे, और चौबे फिट बैठते हैं ।उनका संस्कार वैसा है। शासन , प्रशासन, फौज , पुलिस जहां भी हैं ।अपने उन संस्कारों के साथ हैं ।।प्रभाकर चौबे चिंतक ब्राह्मण नेता ।
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