पनशाला
लेखक कमलेश पुण्यार्क ' गुरूजी'वैशाख की चिलचिलाती धूप में दोनों हाथों में मिट्टी के दो-दो घड़े लिए ’एनरॉयडिया’ अस्त-व्यस्त-फिक़रमन्दों की तरह गर्दन टेढ़ी किए, सोढ़नदासजी बसअड्डे की ओर लपके चले जा रहे थे। सड़क की दूसरी ओर से जाते हुए मुझ पर नजर पड़ते ही आवाज लगाये — “अरे वो बबुआ ! जल्दी से जरा इधर तो आओ। मेरे कंधे की गठरी सरकी जा रही है। मैं अकेला दो हाथों वाला भला इन चार घड़ों को सम्भालूँ कि मुई इस सत्तू की गठरी को। पता नहीं कैसे आजकल के लोग गर्दन टेढ़ी किए पूरा शहर घूम लेते हैं बाइक चलाते, मोबाइल पर बतिआते हुए। ”
सड़क पार करके, सोढ़नदासजी की गठरी सम्भालते हुए मैंने कहा— दरअसल वो सब ‘मल्टीटास्क प्रैक्टिसनर’ हैं काका। एक काम सही से हो ना हो, चार काम हाथ में ले लो। रिस्क और टेन्शन ‘पानीपूड़ी’ की तरह लुभाता है इनको। न खुद गिरने-मरने की चिन्ता होती है और न दूसरे को गिराने-मारने में कोई लिहाज़। खैर छोड़िए, ये बतायें कि इस आग उगलती दोपहरी में आप हाँफते-कांपते गांव जाने की तैयारी क्यों कर दिए? और दूसरी बात ये कि वहाँ क्या घड़े नहीं मिलते, जो....।
गठरी की बोझ टल चुकी थी और गर्दन अपनी पुरानी अन्दाज में तन चुकी थी। सो, पुराने तुनुकमिज़ाज़ी अन्दाज में बोले— “नहीं रे बकलोल ! गांव भला क्यों जाऊँगा और कौन कहें कि वहाँ तरावट के लिए घड़े की जरुरत है ! बाप-दादों के बनाये कुएँ-पोखर फ्रीज-कूलर के भी बाप हैं। जब जी चाहे गला तर कर लो। जेठ की दोपहरी में भी नहाओं तो कंपकपी हो जाए। ये मुई शहर की जिन्दगी कोई जिन्दगी है ! तर-तरावट, हवा-पानी सब मोल के। बेमोल तो सिर्फ इन्सानी जिन्दगी है, जो कब किस सिरफिरे की भेंट चढ़ जाए। घर से निकलो तो हनुमान चालीसा का पाठ करके, किन्तु वो भी समय पर काम नहीं करता। ऐन वक्त पर ‘नेटवर्क’ भाग जाता है। ”
साँप की केचुली की तरह बातों की दिशा बदलती देख, मैंने टोका—तो फिर ये चार-चार घड़े लिए बस अड्डे की ओर ?
सोढ़नदासजी ने सिर हिलाते हुए कहा — “ तुम शायद भूल रहे हो। आज सतुआन है न, अरे वही सतुआन, जिसे कुछ लोग बिसुआन कहते हैं। बिसुआन के दिन सतुआ-गुड़, घी, आम और घड़े में जल दान करने से बहुत पुण्य मिलता है। चार-चार यजमानों के यहाँ न्योता था। चार घड़े और ये इतने सारे सत्तू लिए, सोच रहा हूँ दान-ग्रहण का कुछ निग्रह कर लूँ। आजकल तो लोग सिर्फ लेने के लिए हाथ पसारे रहते हैं, देने में नानी मरती है। जितना दान बटोर सको, बटोर लो। देह का मइल भी कोई मांगे तो चार बार सोचो—दूँ कि न दूँ ! देह का मैल मांगकर, कोई तन्तर-मन्तर तो नहीं कर देगा ! खैर, अच्छा हुआ तुम मिल गए। चलो मेरे साथ बसअड्डे। वहीं आज दिनभर प्याऊ चलायेंगे। एक गिलास सत्तू के शरबत के साथ-साथ जी भर ठंढ़ा पानी फ्री में पिलायेंगे यात्रियों को। तुम भी जरा मदद कर देना। तुम्हें भी कुछ पुण्य-लाभ हो ही जायेगा। ”
पुण्य-पाप, लाभ-हानी की परवाह तो मुझे नहीं थी, किन्तु सोढ़नदासजी की नायाब योजना की परवाह जरुर हो आयी—दान-ग्रहणदोष के निग्रह के लिए यात्रियों को पानी पिलाएँ—यानी सब काम कर गुजारे, जीविकोपार्जन के नाम पर, अब पुण्योपार्जन के लिए पानीपांड़े वाला काम भी कर ही लें। भूखे को अन्न और प्यासे को पानी पिलाना - है तो बहुत पुण्य का काम, किन्तु क्या इस पुण्यलाभार्जन के विचार से लोग प्याऊ चलाते हैं आजकल ? और यदि पुण्यलाभ ही उद्देश्य होता है, फिर किसी बड़े बैनर के साथ-साथ मीडियाकर्मी की जरुरत क्यों पड़ती है? चित्रगुप्त के बही-खाते में सही खतौनी के लिए फेशबुक-वाट्सऐप-इन्स्टाग्राम का फोटो और मल्टीमीडिया कमेन्ट का वीज़ा भी जरुरी होता है क्या ! संतों ने तो सीख दी है कि दाहिने हाथ का दान बायें हाथ को भी पता न चले, फिर प्रदर्शन और यादगारी का क्या तुक ! नारद के छल या कहें कलियुग का बल—एक गुप्तदान ने तो दिव्य अजन्मा विप्रों का बंटाढार कर दिया। महर्षि गौतम के साथ किए गए एक छल ने समस्त भूदेवों का सत्यानाश कर दिया, रही-सही कसर भी हम खुद पूरा कर रहे हैं, अपने करतूतों से। संस्कारहीनता का ग्राफ इतना नीचे आ चुका है कि उसे उठाने में सदियों खप जायेंगे...।
मेरे विचारों पर रोड़ा अटकाते हुए काका ने टोका— “ अब किस सोच में पड़ गए बचवा ! मेरी राय तुम्हें जँची नहीं क्या ? बिना कामना या स्वार्थ के किए गए कर्म ही असली अर्थों में कर्म हैं, बाकी तो किसी न किसी तरह की बेड़ियाँ ही हैं—पुण्य सोने वाली बेड़ी हैं, जिसे हम कंगन समझ लेते हैं और पाप लोहे वाली बेड़ी है, जो कथकड़ी सी लगती है। सच में मानवता की सेवा करनी है तो बिलकुल निःस्वार्थ होकर करो। किसने देखा, किसने नहीं देखा, किसने क्या कहा—इसकी चिन्ता क्यों? तामझाम-तमाशे और तमाशबीन की फ़िकर क्यों ? ”
काका की बातों में दम तो है, किन्तु हमलोग बे-दम हैं इसी दिखावे में। गर्मियों में पनशाला चलाना तो अच्छी बात है। पुण्य-पाप का लेखा-जोखा ना भी करो, तो भी शान्ति-सुकून तो तत्काल मिलता है—किसी की सेवा करके। अब सेवा का अर्थ अंग्रेजी वाली सेवा—सर्विस लगा लिया जाए तो बात ही दिगर है। यहाँ तो बाकायदा सरकारें भी सर्विस टैक्स वसूलती है। किसी सर्विस के लिए चार्ज लिया जाना तो आम बात है। सेवा के इस अंग्रेजी वाले भावार्थ को लेकर ही आजकल सनातनी सभी सेवाएं यहाँ तक कि दान भी सशुल्क हो गया है। पुरानी धर्मशालाएँ अपना स्वरूप और नीति बदल चुकी हैं। अन्न, जल, विद्या, औषधी आदि हमारे यहाँ महा दानों की सूची में आते हैं, किन्तु इस पुरानी मनुवादी परिभाषा से आधुनिक विकासवादी जनमानस चलना शुरु कर दे, तो फिर बड़ी-बड़ी कॉन्वेन्टी संस्थायें और नर्सिंगहोमों का शटर न गिर जाए ! यही कारण है कि सेवा और दान की परिभाषा और स्वरूप हमने बदल लिया है जमाने हिसाब से। वैसे भी सेवा का मेवा और दान का प्रतिदान इसी जनम में न मिला तो किस काम का ? कौन कहें कि अगले जनम की गारन्टी है !काका का मन रखने के लिए बसअड्डे चल ही देता हूँ। हर्ज ही क्या है पनशाला में खड़े होकर पानी पिलाने में।
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