ब्राह्मण एवं क्षत्रिय को लड़ाने की साजिश को समाप्त करने के लिए भारतीय जन महासभा के द्वारा एक अंतरराष्ट्रीय वर्चुअल मीटिंग का आयोजन किया गया ।
मीटिंग की अध्यक्षता राष्ट्रीय अध्यक्ष धर्म चंद्र पोद्दार ने की ।श्री पोद्दार ने कहा कि अनेक वर्षों से शायद अंग्रेजों के काल से ही यह भ्रांति फैलाई गई कि भगवान परशुराम के द्वारा 21 बार इस धरती को क्षत्रिय विहीन किया गया । ऐसा कैसे हो सकता है ? जब पहली बार क्षत्रिय विहीन कर दिया तो फिर दूसरी बार फिर बार-बार कैसे किया? 21 बार की बात तो असम्भव है। यह एक ज्वलंत प्रश्न है, जिसका जवाब हम सभी को खोजना चाहिए ।
भारतीय जन महासभा के वरीय राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं लोकप्रिय राष्ट्रवादी पुस्तक इनसे हैं हम के संपादक डॉ अवधेश कुमार अवध ने 'दिनकर के परशुराम और जाति भेद' को लेकर गोष्ठी में कहा कि "जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे, एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।"
साहित्य जगत के सिरमौर साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा "रश्मिरथी" में ये पंक्तियाँ विरचित हैं। सामान्य अर्थ में ये ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच अहंकार, संघर्ष और दूरी बढ़ाने के लिए बहुत पर्याप्त हैं। गुरु परशुराम अपने मेधावी शिष्य से ऐसी अपेक्षा करते हैं कि 'एक बार धरती को तुम भी क्षत्रियों से खाली कर दोगे'। है न विवाद जनक!
पावन अक्षय तृतीया के दिन भगवान परशुराम का जन्म हुआ। उनके द्वारा किए गए मानवता पूर्ण सत्कर्म के लिए उनके प्रति समस्त मानव समाज विनत है।
एक किंवदंती चली आ रही है कि भगवान परशुराम ने इक्कीस बार धरती से क्षत्रियों का नाश किया था। इस बात की पुष्टि कोई भी ग्रंथ नहीं करता। भगवान परशुराम के समकालीन सदैव ही अयोध्या में रघुकुल का शासन रहा और वह भी अच्छे सम्बंधों के साथ। इसी तरह क्षत्रियों के अन्य वंश भी शासन करते रहे थे। अतएव यह उक्ति पूर्णतः कपोल कल्पित है। कदाचित ब्राह्मणों और क्षत्रियों को आपस में लड़ाने के लिए भी गढ़ी गई हो सकती है।
दिनकर जी "रश्मिरथी" में कर्ण के माध्यम से कई बार "जाति" और "जातिवाद" पर प्रहार करते हैं। "जाति, हाय री जाति, कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला।" ...."जाति-जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखंड।" तदनंतर दिनकर जी और अधिक स्पष्ट करते हुए जाति को वैदिक आधार पर पुनः परिभाषित करते हैं-
"क्षत्रिय वही भरी हो जिसमें, निर्भयता की आग।सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप त्याग।।"
कविश्रेष्ठ द्वारा विरचित ये पंक्तियाँ पुनः सोचने हेतु विवश करती हैं कि क्या "एक बार.........क्षत्रिय कर जाओगे" का जो अर्थ हम लोग सामान्यतः निकालते हैं, वह सही है? कदापि नहीं। मेरे बड़े भाई और मित्र श्री गणेश चतुर्वेदी जी को दिनकर जी की लेखनी पर इतना अधिक भरोसा है कि उन्होंने इन पंक्तियों का निहितार्थ अलग ढंग से खोज निकाला। उनका मानना है कि "यहाँ निःक्षत्रिय' सन्धि विच्छेद में है , जिसकी सन्धि ' विसर्जनीयस्य सः' सूत्र के आधार पर 'निश्क्षत्रिय' होगा. जिसका अर्थ 'निश्छल क्षत्रिय' से है।" इस आशय को स्वीकार करने के उपरांत सारी समस्याएँ समाप्त हो जाती हैं। ऋषि जमदग्नि और राजा सहस्त्राबाहु का प्रकरण भी गाय के साथ छल केन्द्रित ही था। भगवान परशुराम का युद्ध भी "छली क्षत्रिय राजा सहस्त्राबाहु" और उसके समर्थकों से ही हुआ था। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भीष्म पितामह जैसे अजेय क्षत्रिय योद्धा भी गुरु परशुराम के क्षिष्य थे। विभेदनकारी नीति और किन्हीं दुर्भावनाओं द्वारा प्रायोजित तथाकथित इतिहास को विशुद्ध करने हेतु ही "इनसे हैं हम" पुस्तक बनाई गई है।
सिंगापुर की डॉ प्रतिभा गर्ग ने कहा कि मेरे मन में इसको लेकर हमेशा ही एक शंका रहती थी कि परशुराम जी के समक़ालीन तो राजा दशरथ और उनके पूर्वज रहे थे, राजा जनक थे और सीता जी स्वयंवर में शामिल होने वाले बहुत से क्षत्रिय थे। फिर परशुराम जी इस धरती को क्षत्रिय विहीन कब किया होगा। ये ज़रूर दो जातियों में मतभेद पैदा करने का षड्यंत्र ही है इस अंतरराष्ट्रीय वर्चुअल मीटिंग में श्री पोद्दार के अलावा संरक्षक श्री राजेंद्र कुमार अग्रवाल , मेघालय से डॉ अवधेश कुमार अवध , पटना बिहार से अंकेश कुमार , जमशेदपुर झारखंड से संतोष कुमार गनेड़ीवाला , पिंकी देवी , बसंत कुमार सिंह , सिंगापुर से डॉ प्रतिभा गर्ग एवं श्रीमती बिदेह नंदनी चौधरी , युगांडा से ए. के. जिंदल , शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश से नीलम सिंह , बक्सर बिहार से अजय कुमार सिंह , नागपुर महाराष्ट्र से अनुसूया अग्रवाल , मेरठ उत्तर प्रदेश से लक्ष्मी गुसाईं आदि मुख्य रूप से सम्मिलित थे ।।धन्यवाद ज्ञापन बक्सर बिहार के अजय कुमार सिंह ने किया ।
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