2 जून 2022 को जेठ यानि ज्येष्ठ मास की शुक्ल की तृतीया की तिथि है.
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
मेवाड़ में यह परंपरा रही है की सभी महाराणाओं एवं महापुरुषों की जयंतिया विक्रम संवत के अनुसार ही मनाई जाती है |
इसी कड़ी में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की तृतीया संवत 1597 विक्रमी को स्वाधीनता के अनन्य उपासक भारतवर्ष के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी अद्भुत शौर्य एवं स्वाभिमान के दैदीप्यमान सितारे प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप सिंह जी की जन्म जयंती पर सादर प्रणाम 🙏🙏
पग - पग महाराणा प्रताप से प्रेरणा महाराणाप्रतापजयंती
प्रात:स्मरणीय महाराणा प्रताप। उनके पुण्यस्मरण का अचूक अवसर ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया। अपने राष्ट्र की भक्ति के प्रदर्शन का अनूठा अवसर है। मेवाड़ के चप्पे-चप्पे में महाराणा के प्रताप का यशोगान होता है। मेवाड़ ही क्या, जहां भी देशभक्ति सांस लेती है, प्रताप का जयकारा लगता है। यह यश महाराणा प्रताप को उनके जिन आदर्शों के लिए मिला, वे कभी विस्मृत नहीं किए जा सकते।
महाराणा प्रताप अपने समय में ही कलमकारों के लिए आदर्श हो गए। जिस शहंशाह के दरबार में नामा और आइन लिखने के लिए कलम अपने गौरव को खो रही थी, उसी के दरबार में वे कलमें भी थीं जो अपनी मूंछे ऊंची रखना जानती थी। बार-बार वे कलमें शहंशाह को मुंह पर ही चिढ़ाती थी :
''अकबर गरव न आण, हींदू सह चाकर हुवां।
दीठो कोई दीवाण, करतो लटका कटहडै।।
सुखहित स्याल समाज, हिंदू अकबर वस हुआ।
रोसीलो मृगराज, पजै न राण प्रतापसी।।''
ये सोरठे कवि दुरसा आढा के हैं जिसने अकबर की प्रशंसा में भी लिखा मगर प्रताप के पक्ष में उसकी कलम इस तरह बेबाक बयानी करती रही - हे अकबर ! हिंदुस्तान के सारे राजाओं के तेरे अधीन हो जाने पर गर्व क्यों करते हो, क्या किसी ने महाराणा को शाही कटहरे के आगे झुक-झुक कर सलाम करते हुए देखा है ? अपने सुखों के उपभोग के लिए सारे ही लोग झुंड की तरह अधीन हो गए, मगर खिझे हुए शेर जैसा राणा प्रताप उससे कभी नहीं दबता...।
मालूम नहीं प्रताप किस मिट्टी के बने थे ? आज एक जरा सी धमकी हमारी नींद काफूर करने के लिए काफी होती है। मगर, बार-बार धमकियाें और सात-सात प्रस्तावों की आड़ में 'कीका राणा को जिंदा या मुर्दा कैद करने' की हिदायतों, कुटिलचालों से प्रताप पर क्या गुजरी होगी। अनुचर नहीं, वनचर होना स्वीकार लिया। आश्चर्य होता है कि मांडलगढ़ से लेकर मेनार तक और दीवेर से लेकर देलवाड़ा तक मेवाड़ में शाही शिकंजों, षड़यंत्रों के कठिन दौर में एक भी बंदा ऐसा नहीं मिला जिसे तोड़ा या फोड़ा जा सका। इंसान तो क्या, जानवर तक को उन महाप्राण की परवाह थी। मेवाड़वासियों की हर सांस महाराणा के लिए समर्पित थी। फख़्र होता है इस संकल्प को याद करके - महाराणा है तो मेवाड़ है और मेवाड़ है तो महाराणा है।
पांवों के लिए कदम-कदम पर कांटों वाले रास्ते, हाथों की लकीरें तलवार को धार व भाले को भार देने वाली, सिर पर जिम्मेदारियों का वजन उठाए ताज, पदतल से लेकर सिर तक लोहा जड़ा का जड़ा... और, कानों में हर बार पड़ते सावधानियों, चेतावनियों वाले बोल। चप्पा-चप्पा छान लिया, मगर इस सबने उनका संपर्क टापरी-टापरी कर दिया और यही वजह रही कि हल्दीघाटी की लड़ाई में हर घर से कोई न कोई जिम्मेदार पहुंचा। न ज्यादा आयुध न ही अभ्यास, मगर लड़ाई ठान ही ली तो जवाब देने का माद्दा, अलाव में आग जैसा.
प्रताप ने हर फैसला संकट में लिया मगर सामूहिक किया। पहला हमला करने का जिम्मा हकीम खां सूर को सौंपा अौर युद्ध की रणनीति का दायित्व तोमर राजा रामशाह को। सेना में वही सबसे वयोवृद्ध था जिसने पांच सौ सैनिकों और पुत्र-पौत्र सहित तलवार को सांस रहने तक थामे रखी...। हमशक्ल झाला मानसिंह हरसंकट से निपटने का दायित्व बखूबी जानता था...। छह घंटे की लड़ाई, पहले ही वार में शाही सैनिक भाग छूटे और हाथी के हौदे में कच्छावा मानसिंह को न पाकर राणा को युद्धक्षेत्र से सुरक्षित निकाल झाला मानसिंह ने चंवर छत्र धारण कर लिए।
मुगल सेनापति मानसिंह को क्या मिला : महज एक हाथी। न लूट में तंबू मिले न ही कोट-कंगुरे खंडित किए...। न आयुध-असला हाथ आया, न खज़ाना. न राणा मिला न ही राज। बादशाह की नाराजगी और उठानी पड़ी कि तुम्हारा ड़यौढी पर आना माफ। पराजय के नतीजतन और क्या मिलता...।
महाराणा प्रताप ने मानवाधिकारों के संरक्षण की दिशा में खास पहल की। हर सैनिक को पिता की तरह स्नेह दिया। युद्धाेन्माद के शिकारजनों का पुनर्वास किया। जल बचाया। मेवाड़ में बांधों के निर्माण की रुपरेखा रखी। नौ साल तक शाही शिकंजों से उजड़े मेवाड़ को बसाया। पर्यावरण बचाया। उनकी नीतियों की बदौलत मेवाड़ को फिर कभी जौहर की पीड़ा नहीं उठानी पड़ी। (महाराणा प्रताप का युग : श्रीकृष्ण 'जुगनू', आर्यावर्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली, 2016 ई.)
ऐसे अक्षय मूल्यों की बदौलत ही महाराणा महामानव होकर जन-जन के लिए आदर्श बने हुए हैं...। जय-जय।
महाराणा प्रताप का समय कैसा था?
... रक्ततलाई जहां 1576 ई. के जून की 18वीं तारीख को अपने मुल्क की स्वाधीनता के लिए उन ताकतों और उनके चहेतों के दरम्यां रण रचा गया जिनमें से एक हिंदुस्तान को अपनी मुट्ठी में बांध लेने को आतुर थी और दूसरी ताकत उस हथेली की लकीरों को बदलने के लिए कफन बांधकर निकली थी। गजब के हौंसले और अजब सी दीवानगी थी। जिन पहाड़ों पर आज भी चढ़ पाना दुश्वार है और जिन घाटियों को देखकर होश फाख्ता हो जाते हैं, उनमें से योद्धाओं ने निकल-निकलकर नाग जैसा व्यूह रच दिया था। घमासान भटों और सुभटों के बीच ही नहीं था, हाथियों के बीच भी हुआ। घोड़ों ने हाथियों के सिर पर लोहे की नाल जड़े खुर चस्पा कर दिए थे...।
... आखिर महाराणा प्रताप का युग कैसा था ? उस काल का समाज और संस्कृति कैसी थी ? बाबर के आक्रमण के दौरान देश की सबसे बड़ी ताकत मेवाड़ क्या हमेशा के लिए शांत हो गया ? शेरशाह के बाद, बाबर के पौत्र अकबर ने मेवाड़ के मान-मर्दन के लिए युद्ध की सारी मर्यादाएं लांघ दी मगर क्या वजह थी कि मेवाड़ के जख्मी हाथों में बलंदी के झंडे बने रहे। अकबर के कोई आधा दर्जन हमले और अभियान तथा युद्ध के बावजूद महाराणा प्रताप के हौसलेे पस्त नहीं थे।
अबुल फज़ल और फैजी जैसे कलमनिगार दिन-रात बादशाहत को जमीं पर रूहानी पेशवा साबित करने में अपना कर्तव्य समझ बैठे थे और बादशाहत के मायने बयां करने के लिए हर छोटी-छोटी बात तक लिखकर इनाम और तवज्जो अख्तियार कर रहे थे, अपना पानी बेच रहे थे, वहीं मेवाड़ अपना पानी बचाने के लिए तैयारी में लगा था। आत्म प्रशंसा में लिखने के नाम पर प्रताप ने अपने पास कुछ नहीं माना अन्यथा उसके दरबार में भी काेई अबुल फज़ल और फैजी होता। याद नहीं कि प्रताप ने अपनी प्रशंसा में काेई ग्रंथ लिखवाया हो। प्रताप के जीवनकाल में प्रशंसा की कोई पुष्पिका तक नहीं मिलती, हां चक्रपाणि मिश्र ने जरूर एकाध श्लोक प्रताप की प्रशंसा में लिखा।
अधिकांश इतिहासकारों ने प्रताप को अकबर की मुखालफत करने वाले योद्धा के रूप में ही चित्रित किया है। मुगलों द्वारा देश को एकता के सूत्र में बांधने के इरादों की राह में रोड़ा बनने वाले व्यक्तित्व के रूप में वर्णित किया है। हद तो यह भी हुई कि यह काम ऐसे इतिहासकारों ने कुछ ज्यादा ही किया है, जिन्होंने मेवाड़ को देखा ही नहीं। क्षेत्रीय स्रोतों को महत्व ही नहीं दिया। फारसी स्रोतों के आधार पर उन्होंने प्रताप के व्यक्तित्व को आंकने से ही गुरेज किया...।
... "महाराणा प्रताप का युग" कृति की रचना करते समय मैंने अपना कठोरपन बरकरार रखने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं निष्ठुरता भी दिखाई दे सकती है, मैंने भावुकता या आतुरता से परहेज ही किया है...। उनकी लिखवाई तीन कृतियां 1. विश्व वल्लभ, 2. राज्याभिषेक पद्धति और 3. मुहूर्तमाला का संपादन करके और चौथी कृति "व्यवहारादर्श" का संपादन करते हुए मैंने पाया कि प्रताप असामान्य व्यक्तित्व लिए थे।
उनके बाद, मेवाड़ में जलाशयों की शृंखला खड़ी हुई, युद्ध पीडि़तों को पुनर्वास देकर मानवाधिकार की नींव डाली गई, उनके बाद कभी जौहर जैसी त्रासदी पेश नहीं आई, फलदार वृक्षों के रोपण और पेड़ों के वैज्ञानिक अध्ययन की शुरुआत हुई... कई योगदान है प्रताप के। आज के शासन संचालन के मूल में एक बड़ी रूपरेखा प्रताप के चिंतन की मानी जानी चाहिए।
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* महाराणा प्रताप का युग - डाॅ. श्रीकृष्ण 'जुगनू', आर्यावर्त संस्कृति संस्थान,
डी, गली ३ दयालपुर, करावल नगर रोड, दिल्ली, 2010 की भूमिका।
जहां कुंवर प्रताप महाराणा बने
#गोगुंदाबावड़ी
उदयपुर जिले के गोगुंदा गांव की मुख्य बावड़ी की छतरी में कुंवर प्रताप सिंह को तिलक किया गया और वह महाराणा प्रताप बने। बात 28 फरवरी, 1572 ई. की है और अभिजित मुहूर्त की। यह फैसला मेवाड़ की मर्यादा के पक्षधर चूंडावत सामंतों और प्रताप के ननिहाल, ससुराल वालों, ग्वालियर के राजा राम शाह आदि का था और सबका एक स्वर से प्रताप के नेतृत्व में विश्वास था।
महाराणा उदय सिंह की अंत्येष्टि से लौटकर सबने जिस बावड़ी पर शुद्धि स्नान आदि किया, वहीं यह राय बनी। यह "महेश वापी" या महादेव बावड़ी के नाम से जानी जाती है और तब भी इसके यही नाम थे। उस समय गोगुंदा उत्तर दिशा में भी सेरी के रूप में फैला हुआ था और पनघट तथा बाड़ी की बावड़ी होने से यह खूब महत्व रखती थी। आज कभी कभार लोग देखने जाते हैं।
मेवाड़ के अधिकांश इलाकों को अपनी नदी धाराओं से सींचने वाला गोगुंदा इस बावड़ी पर गुमान इसलिए करता है कि अकाल के दौर में भी यह पहाड़ी संधि पर बनी होने से जलदायक बनी रही। मैंने इसे कई बार परखा और इसके दाकरगल, शिरा पतन और उगमन धराऔ आगमन को समझने का प्रयास किया है। पूरे पांच बरस तक आना जाना रहा। इसके माड दबदे पर लगे रहट के जल के धोर से महादेव की बाड़ी सिंचित भी होती। यहां फुलवारी थी और गणगौर के मौके पर गांव की बालिकाएं इसके फूलों से महेश की अर्चना करती। आज तक गणगौर यहां का मुख्य पर्व और मेला का अवसर है।
गोगुंदा की ख्यात में इस बावड़ी का विवरण है लेकिन स्थापत्य के लिहाज से यह उस मध्य युगीन शैली की है, जिस तर्ज पर अंबेरी की बावड़ी बनी। वह महाराणा मोकल के काल 1429 ई. की है और गोगुंदा की यह बावड़ी और भी पुरानी। महारावल जैत्रसिंह (1230 ई.) के समय इसका उद्धार हुआ था। इस काल के एक पदाधिकारी का संदर्भ यहां से मुझे मिला है। वसंतगढ़, चंद्रावती, आबू, जरगा मरूवास, पलासमा, नंदेशमा आदि में इस समय जल स्थापत्य का विकास हुआ।
यूं यह बावड़ी है तो एकमुखी लेकिन रहट की निरंतरता बनाए रखने के लिए इसमें मुख्य सोपान के अलावा लघु पंक्तियां भी दोनों ओर बनी है। गोगुंदा के हरे सुभाजा पत्थर का प्रयोग हुआ है और काटले, कतंगे, टूर तोड़े, मडा सबमें यही पत्थर लगा है। ऊपर चारों ही कोनों पर छतरियां इसके सौंदर्य को बढ़ाती है। इन्हीं में से एक छतरी में प्रताप का राजतिलक हुआ, राज्याभिषेक कुंभलगढ़ में कुछ बाद में मुहूर्त के अनुसार हुआ। फिर, मुगल अधिकृत क्षेत्र में टीकादौड़ रखी गई जो कइयों की नाराज़गी की वज़ह बनी...।
इस बावड़ी पर राजतिलक के पीछे बड़ा कारण यहां जन मौजूदगी और जन जुड़ाव रहा। जलस्रोत की साक्षी और शोक संतप्त वेला में संघर्ष का बीज रखा गया लेकिन यहीं से बड़ा जन समूह गोगुंदा के महल की तरफ बढ़ा। संवेदना के लिए सबको वहां बैठना ही था। बैठने के बहाने ही इस बल के बूते सामंतों ने धीरकुंवर के जाये जगमाल को बेदखल कर दिया और उसने इसका बदला लेने मुगल मार्ग पकड़ा जो आमेर के मानसिंह के सहयोग से ही संभव था। मानसिंह उसका मौसा था...।
( मित्रों के आग्रह पर प्रताप के जुड़े स्थानों के ऐतिहासिक संदर्भ की खोजबीन)
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संदर्भ :
• भारतीय ऐतिहासिक प्रशस्ति परंपरा,
• राज्याभिषेक पद्धति,
• राष्ट्ररत्न महाराणा प्रताप,
• महाराणा प्रताप का युग,
• गोगुंदा की ख्यात आदि।
महाराणा प्रताप की चुनौतियां और मुकाबले की सार्वकालिक नीतियां
महाराणा प्रताप के काल में दो तरह की चुनौतियां सामने थी- अांतरिक और बाहरी। दोनों का जो स्वरूप रहा वह विद्रूप और विकराल ही ज्यादा था। लोहा लेना भी तो लोहा मनवाना भी। प्रताप ने आसन्न चुनौतियों का मुकाबला अपनी जिन नीतियों और योजनाओं के तहत किया, वे उनके जीवनकाल में तो सफलतादायी रही हीं, उनके बाद भी सफलधर्मा होकर मेवाड़ शासन के लिए आदर्श बनीं। उनका चरित्र जिस सांचे में ढलकर सामने आया, वह चुनौतियों के ताप में तपकर प्रतापी हुआ और यही वजह है कि प्रताप को सदियों बाद भी चुनौतियों से मुकाबला करने वाले सफल नायक की हैसियत से जाना जाता है।
प्रताप के कुमारकाल में ही, 1568 ई. में अकबर ने चित्तौड़ विजय की जिसको मेवाड़ में 'सबसे बड़े पाप' के रूप में जाना जाता है जबकि इतिहास में यह बहुत मामूली तौर पर उल्लिखित है। यह इतना खौफनाक मंजर था कि जिसे सुनकर ही रौंगटे खड़े हो जाते थे। बाद के ताम्रपत्रों में राजाज्ञा के उल्लंघन पर 'चित्तौड़ मारया का पाप' लगेगा, ऐसा लिखा जाने लगा। इस घटना में साबात व्यूह से जंग, आमने सामने मुकाबला, कत्लेआम, जौहर जैसे मंजर पेश आए। चित्तौड़ में बार-बार पेश आने वाली ऐसी चुनौती का प्रतिकार महाराणा प्रताप ने ऐसा किया कि उसके बाद मेवाड़ में फिर कभी जौहर जैसी त्रासदी सामने नहीं आई। किले में बंदी होकर मौत का रास्ता चुनने की बजाय खुले तौर पर मुकाबले और बाजू-ए-कातिल की आजमाइश करने की आजादी मिली।
उन्होंने हालात से घबराने की बजाय मुकाबला करते रहने की नीति अख्तियार की। महाराणा सांगा के बाद भी जिस वीरवर के नेतृत्व में ग्वालियर के राजा रामसिंह तोमर, सूर वंशी हकीम खां आदि यकीन बनाए हुए थे, वह राणा प्रताप थे। इस दौर की प्राकृतिक चुनौती आए साल पड़ने वाले अकाल थे। अबुल फ़ज़ल ने इस अकाल के खौफनाक मंजर को लिखा है। अकाल के प्रबंधन के लिए प्रताप ने जो प्रयास किए, वे 'विश्ववल्लभ' जैसे ग्रंथ में द्रष्टव्य है। दुर्भिक्ष के निवारण के लिए यह पहली औपायिक कृति है। इसका सुदीर्घ प्रभाव पड़ा और पेड़, वन सहित पानी की बूंद-बूंद बचाने का पुरजोर प्रयास किया जाने लगा।
प्रताप ने युद्ध और उन्माद पीडि़तों के पुनर्वास सहित उनके प्रति हमदर्दी पर व्यक्तिगत ध्यान देकर मानवाधिकारों की रक्षा की मजबूत पहल की। सहिष्णुता का जो वातावरण विकसित किया, उसमें हकीम खां सूर ही नहीं, निसारूद्दीन जैसा चित्रकार भी प्रतापाश्रय को निरापद मानकर मेवाड़ में रहा और चावंड चित्रशैली का प्रवर्तक बना। कई मुस्लिम सिलावट यहां आकर बसे और राजकीय निर्माण कार्यों को अंजाम देते रहे। यह वातावरण इतना भयरहित था कि बाद में शहजादा खुर्रम तक को मेवाड़ ही भाया...।
चुनौतियों को चुनौती देने वाली नीतियों की बदौलत प्रताप आज तक प्रासंगिक बने हुए हैं।
(महाराणा प्रताप स्मारक, उदयपुर में 29 नवंबर, 2015 को आयोजित '16वीं शताब्दी की चुनौतियां और उनका प्रतिकार' विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में पठित श्रीकृष्ण 'जुगनू' के शोधपत्र के कुछ अंश।
पलासमा : महाराणा प्रताप का प्रिय गांव
#प्रतापसेजुड़े_स्थल
मेवाड़ में सबसे ऊंची पर्वत चोटी है जरगा। इसके पास बसा हुआ एक बहुत सुंदर गांव है पलासमा। इसे पलाशमा भी कहते हैं। महाराणा प्रताप को बहुत प्रिय रहा। पड़ाव, शिकार के लिए ही नहीं, पाली, सिरोही, गोगुंदा के रास्ते में कुंभलगढ़ के बाद पहले पड़ाव का शामियाना यहीं लगता था। गांव वालों की सेवा का तो कहना ही क्या? कुंभलगढ़ प्रशस्ति में पहाड़ी नालों यानी रास्तों के केंद्र होने से इसे ब्रह्मस्थान के समान माना गया है - इसे पद्मनाथ का स्थान ही कहा गया है। ब्रह्मा का मन्दिर यहां रहा भी। जंगल भी ख्यातिलब्ध है।
जरगा पर्वत के लिए चढ़ाई यहीं से शुरू होती है और चूंकि बनास, खारी, कोठारी जैसी ज्यादातर नदियां इसी जगह से निकली है ऐसे में यह जलदाय वाला गांव भी माना जाता है। वर्षा काल में जब पहाड़ झरते हैं, तब यहां का मन्दिर भी झरता है। इसी मौके का जलझूलनी, भादौ शुक्ला एकादशी पर्व पलासमा में मेले का अवसर बनकर आता है। विष्णु की यहां पद्मनाथ के नाम से स्थापना है, मूलत: यहां पंचायतन मन्दिर रहा है। सूर्य मन्दिर का एक प्राचीन अभिलेख मैंने पढ़ा है जिस पर संवत् 1232 की अक्षय तृतीया तिथि है। एक अन्य लेख 1366 की अक्षय तृतीया का भी है। ( राजस्थान की ऐतिहासिक प्रशस्तियां एवं ताम्रपत्र पृष्ठ 42)
धार्मिक ही नहीं, आर्थिक समृद्धि का भी यह केंद्र रहा तभी यहां 12 वीं 13 वीं सदी से ही भव्य मन्दिर बनने लगे। मारवाड़ के रास्ते पर सायरा के विकास से पहले सेमड पालासमा ही बड़े केंद्र थे जिनसे प्राप्त राजस्व का जिक्र "आईन ए अकबरी" में हुआ है। यह मेवाड़ के तत्कालीन प्रमुख लाभदायक गांव था। ईख खूब होता और गुड़ खूब बनता।
इस गांव की सुंदरता और मन्दिर कला व उसकी महिमा जानकर मैं कई बार पलासमा और जरगा में रहा भी। इसके आसपास अनेक गांवों के ताम्रपत्र और अभिलेख मिले जिन्होंने मेरा ज्ञान बढ़ाया। यहां का एक ताम्रपत्र महाराणा भीमसिंह का मुझे मिला है। संवत् 1859 की कार्तिक शुक्ल नवमी, गुरुवार का यह प्रमाण नवज्ञात है। यह अभिलेख मेरे लिए खास महत्व का निकला है। इसमें लिखा है कि महाराणा प्रताप के अंत समय में, जब देहोत्सर्जन नहीं हो पा रहा था, तब ग्रामदान के रूप में उनका प्रिय पलासमा गांव बड़ा पालीवाल पुरोहित गणेश को दिया गया। शासकों के अंत समय में दान के ऐसे अभिलेख मिलते हैं। यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप के जीवन के एक अनूठे पक्ष को उजागर करता है। इसमें गांव से होने वाली आय आदि का संपूर्ण विवरण भी है जिसको भीम सिंह के काल में नवीकृत किया गया।
संदर्भ :
१. महाराणा प्रताप के जीवन के प्रेरक प्रसंग।
२. महाराणा प्रताप का युग।
विश्व जल दिवस - महाराणा का स्मरण
#World_Water_Day
विश्व जल दिवस... मानव के लिए जीवनदायी, एकमेव, विकल्पहीन संसाधन है जल और उस जल के संरक्षण, स्राेतों की सुरक्षा व संवर्धन लिए संर्वांगतया सोचने का यह अवसर है। सोचने ही नहीं, कुछ संकल्प लेने का भी समय है। मौका है तो बात कहने, चर्चा करने का अवसर भी है।
इस मौके पर याद आते हैं महाराणा प्रताप (1572-97 ईस्वी)। यूं तो अपने दौर में दुनिया के सबसे ताकतवर बादशाह से प्राण रहने तक संघर्ष के लिए ही याद किए जाते हैं, मगर, यह बड़ा सच है कि महाराणा प्रताप ने ही शासकों के सामने जल नीति के विकास का ध्येय रखा था।
उन्होंने अपने अपने क्षेत्र में पानी को सर्वसंभव बचाने पर जोर दिया। यही नहीं, अपने-अपने क्षेत्र में भूमिगत जल की खोज, उस जल की पहचान करवाने वाले पेड़-पौधों के संरक्षण, कम से कम व्यय में अधिकाधिक जलस्रोतों के निर्माण, जल के उपयोग के लिए नहरों, कुल्याओं के जाल बिछाने तथा पहाड़ों और मैदानी इलाकों में पानी की खोज कैसे हो सकती है,,, इस संबंध में आज्ञा देकर विशेषज्ञों को नियुक्त किया। प्रताप के बालसखा और दरबारी पंडित चक्रपाणि मिश्र को इस राज्याज्ञा के अनुसार ग्रंथ तैयार करने का श्रेय है।
पंडित चक्रपाणि ने यूं तो 'प्रताप वल्लभ' नाम दिया, मगर महाराणा प्रताप का विचार था कि ये प्रिय व रुचिकर मन्तव्य अकेले मेवाड़ के लिए नहीं है, यह दुनियाभर के लिए है। अत: कृति प्रताप वल्लभ नहीं, बल्कि '' विश्व वल्लभ'' होनी चाहिए। पुस्तक 'विश्व वल्लभ' हो गई। विश्ववासियों के नाम भारत से लिखी पहली अपीलीय पुस्तक। प्रकृतिप्रदत्त पानी, पेड़-पौधे, प्राणी प्राण और पर्यावरण के संबंधों पर अनूठा वैज्ञानिक अवदान...।
है न प्रताप का योगदान महान। वे महारांणा थे, उनको महाराणा (महार्णव, शाब्दिक आशय है महासागर) नाम को भी तो सार्थक करना था। उनकी देखरेख में ही झीलों की नगरी उदयपुर बसी और फिर सौ, सवा सौ सालों में मेवाड़ में झीलों की शृंखला खड़ी हो गई। ये झीलें कलात्मक भी हैं और जलात्मक भी। शासकों ने, यहां तक कि पिता-पुत्र ने भी प्रतिस्पर्द्धा के रूप में झीलों का निर्माण करवाया। जयसमंद तो अब तक एशिया की दूसरी बड़ी मानव निर्मित झील है...।
भारतीय परंपराओं के आलाेक में एक सर्वोपयोगी विचार। 2003 में जब यह ग्रंथ, रचना के करीब चार सौ साल बाद पहली बार सामने रखा तो प्रताप को पानी संचय के प्रेरणापुंज के रूप में पहचाना गया और लोगों ने मुझे भी बधाइयां दीं, ये तो आज तक मिल रही हैं, कल ही तो प्रियात्म विश्वविजयसिंह सिसोदिया ने पूना से दी..।
हल्दीघाटी महायुद्ध के बाद, 1577 ईस्वी में इस ग्रंथ का प्रणयन हुआ और मेवाड़ ही नहीं, तत्कालीन राजाओं के सामने एक आदर्श स्थापित हुआ कि हम अपने-अपने क्षेत्र के वर्षाकालीन जल काे बचाएं तथा उसकी बूंद बूंद का उपयोग करें। ये जलस्रोत दूषित न हो। यदि पानी बचा तो अकाल नहीं पड़ेगा, जल देखकर किसी राष्ट्र की समृद्धि का अनुमान होगा। है न पानीदार प्रताप का पानीदार प्रतापी कार्य...।
जय-जय।✍🏻श्रीकृष्ण जुगनु जी की पोस्टों से संग्रहीत
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