बढा रहे हैं मुहब्बत
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र'अणु'
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पहली बार
जब मैं उसे देखा
तभी लगी थी वो मुझे
अपने भविष्य की रेखा
फिर धीरे-धीरे
होती रही बात और
हम कहते सुनते रहे जज्बात
मिलता गया मन
होता गया समर्पण
होते-होते मन की बात
लगातार दिन पर दिन रात
हर कदम का संघर्ष
पतन से लेकर उत्कर्ष
विषाद से लेकर हर्ष
गुजरता रहा दिन माह वर्ष
बढती गई नजदीकियां
खुलते रहे सभी बंद दरवाजे
और उपर की खिडकियों
देख लो तुम आज
यहाँ दफन नहीं है कुछ राज
जो कुछ भी है वो सब है सम्मुख
चाहे वह सुख रहा या फिर दुख
हम बढते रहे एक साथ
पकड एक दुसरे का हाथ
भूलकर गम,द्वेष और नफरत
हम बढा रहे हैं मुहब्बत
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