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नदी और बाढ़

नदी और बाढ़

जय प्रकाश कुँवर
मैं तो हूं एक बहती नदिया,
बहना मेरा काम ।
अविरल पथ पर चलते रहना,
यही मेरी पहचान ।।
निकली थी मैं हिमालय से,
सागर था,मेरा मुकाम ।
स्वच्छंद मुझे भ्रमण करना था,
तुमने कसा लगाम ।।
बांध बनाये,पुल बनाये,
रोका मेरे राहों को ।
अपना स्वार्थ साधने वास्ते,
गिना न मेरे आहों को। ।।
कलकल छलछल बहती थी मैं,
रहती अपनी सीमा में ।
भला सदा करती तुम सबका,
साल के, सभी महीनों में। ।।
जब से तुमने बांधना सीखा,
टुटा मेरा सब्र तमाम ।
फैल गई गांवों शहरों में,
जीना हुआ तेरा हराम ।।
अब कहते तुम बाढ़ आ गई,
बाढ़ नहीं बदला पथ है ।
मेरा रथ तब, वैसे चलता था,
अब ऐसे चलता रथ है। ।।
यौवन सावन भादो का तुम,
कभी न रोकने पाओगे ।
आयेगी जब यह विनाश तो,
बहुत बहुत पछताओगे। ।।
ज़मीं नहीं जंगल पहाड़ में,
है तुमने मुझको घेरा ।
रही नहीं मेरी गहराई,
तुमने जगह जगह,डाला डेरा। ।।
मैं तो सीधी सादी ही थी,
तुमने उग्र बनाया मुझको ।
फर्क न समझा नदी नाले में,
घेर बांध तड़पाया मुझको। ।।
तब सिंचती थी, खेतों को,
अब मैं खेत डूबोती हूं ।
सब बिगाड़ती हूं अब तेरा,
फिर भी खुद पर रोती हूं। ।।
तुम कहते हो माता मुझको,
मां निर्दयी नहीं होती ।
मनमानी न किये होते तुम,
तो, मैं ऐसे ना रोती। ।।
मैं,प्रक‌ति हूं, तुम मानव हो,
अब ऐसे मत खिलवाड़ कऱो ।
खुब विकास करो तुम,पर
कुछ तो ईश्वर से भी डरो। ।।
जितना कऱो विकास खुश मैं,
मुझको भी खुश रहने दो ।
डैम बनाओ,पुल बनाओ,
मुझको भी अविरल बहने दो। ।।
बहुत बुद्धि ही है,बाधा तेरी,
बाढ़ तो एक तमाचा है ।
बांधों का क्रम ऐसे चला तो,
प्रलय की भी आशा है। ।।
बंद करो प्रकृति से लड़ना,
खुद पर तो तुम रहम करो ।
क्या गति होगी,भावी पीढ़ी का,
ऐसा सोच, ईश्वर से डरो। ।।
मन में कुछ प्रतिशोध नहीं है,
तुमने जितना भी जख्म दिया ।
याद करो इतिहास मानवों, मां ने कभी है बदला लिया ? ।।
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