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पर्यावरण संरक्षण एवं सनातन संस्कृति।

पर्यावरण संरक्षण एवं सनातन संस्कृति।

मनोज कुमार मिश्र "पद्मनाभ"
आज पाँच जून है।आज के दिन सरकारी घोषणा के हिसाब से विश्वस्तरीय पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।विभिन्न कार्यस्थलों पर अनेक कार्यक्रम आयोजित किये जाने की भी परंपरा आज के दिन रही है।"वृक्ष लगाओ पर्यावरण बचाओ"का नारा भी दिया गया है।प्रकृति के वाम होते स्वरूप को परिवर्तित करने का एक बढ़िया माध्यम वृक्ष को माना गया है।वैज्ञानिकों की दृष्टि में भी जीवन रक्षक आक्सीजन का माध्यम वृक्षों को ही माना गया है।शायद यही कारण रहा कि आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ पौधे लगाने और उन्हें संरक्षित करने की बात सरकारी या गैरसरकारी स्तर पर की जा रही है वो बातें हमारी सनातन परंपरा में सृष्टि के आरंभ से ही विद्यमान हैं।ये अलग बात है कि
तब इसके प्रचार प्रसार का तरीका अलग था।विभिन्न त्योहारों के माध्यम से इसके प्रचार किये और कराये जाते थे।इन त्योहारों के अवसर पर कथाओं के माध्यम से आम जनमानस में वृक्षों,पादपों का महत्व बताया जाता था।धार्मिक अनुष्ठानों में इनके प्रयोग पर बल देकर इनकी महत्ता प्रतिपादित की जाती थी।कमोवेश आज भी समाज में वो परंपरायें जीवंत देखने को मिलती हैं।वैसे कुछ अल्पज्ञानी पत्रकारों ,राजनीतिज्ञों के द्वारा युगों से चली आ रही इन परंपरागत त्योहारों पर लगातार कटाक्ष भी किये जाते रहे।इन्हें मनुवादी, ब्राह्मणवादी,दकियानूसी और न जाने किन किन उपाधियों से विभूषित किया जाता रहा है।इनके ऐसे आचरण ही आज वृक्षों का क्षरण करवा प्रकृति को प्रदूषित करने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं।
वटसावित्रीव्रत, सोमवती अमाश्याव्रत,अक्षयनवमीव्रत,(आँवला नौमी),गुरुवार को कदली पूजन, नवरात्र की सप्तमी को विल्वाभिमंत्रण ,गया श्राद्व में आम्रवृक्षसिंचन,कन्यविवाह में वटपत्रछेदन,विभिन्न अनुष्ठानों मेंआम्रपत्र,कदली पत्र,तांबूल पत्र,पूँगीफल,विजयापत्र,पंचपल्लव,शिवार्चन में गिलोय ,विल्वफल ,विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधों आदि के उपयोग की चर्चा त्योहार विशेष की कथाओं में की गई है।इन त्योहारों, अनुष्ठानों एवं कथाओं का उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण का प्रचार प्रसार ही रहा था।आज के बदलते परिवेश और आम जनजीवन पर प्रभावी होती पाश्चात्य संस्कृति और बड़बोले वामपंथी अल्पज्ञानियों की विचाराभिव्यक्ति ने धीरे धीरे इनका महत्व कम कर दिया।नदी,तालाब, कूओं,पर्वतों की पूजन परम्परा विलुप्तप्राय सी होती चली गईं।आज यदि हमारी ये आर्ष परंपरायें जीवित होतीं तो पर्यावरण संरक्षण के नाम प्रचार प्रसार पर सरकारी खजाने खाली नहीं होते।पर्यवरण संरक्षण के नाम पर लूट की संस्कृति का उदय नहीं होता।नदी तालाब कूयें नहीं सूखते।वन विटप दो बूँद पानी को आँसू नहीं बहाते।जलसंकट नहीं गहराता।घरों के आँगन से तुलसी लुप्त नहीं होती।पानी के बूँद बूँद बचाओ जैसे आत्मतोषी नारों की आवश्यकता नहीं पड़ती।अब भी समय है हम अपनी चेतना को जाग्रत करें वापस अपनी आर्ष परंपरा से जुड़ें पर्यावरण संरक्षण के बहाने ही सही उपरोक्त त्योहारों ,परंपराओं को अपने जीवन में आत्मसात करें ।धरती विहँस उठेगी।जीवन कुसुम खिल जायेगा।...।
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