भागवत जी के भाषण पर विमर्श:-रामेश्वर मिश्र पंकज
परम पूज्य सरसंघचालक श्री मोहन राव भागवत जी के भाषण को लेकर जो स्थिति आ रही है, उससे निम्नांकित बिंदु बहुत महत्वपूर्ण होकर उभर रहे हैं:-
- नेहरू प्रवर्तित और आज तक चली आ रही सोवियत संघ मॉडल वाली शिक्षा के कारण हिंदू शिक्षित मस्तिष्क लगभग कम्युनिस्ट सांचे में ढल गया है।कम्युनिस्ट होने का अर्थ ही है ईसाइयत और इस्लाम के बिल्कुल निकट चले जाना क्योंकि कम्युनिज्म ईसाइयत का एक उप उत्पाद है ।इसलिए नव शिक्षित हिंदू लोग सदा पैगंबर की तलाश में रहने लगे हैं जो कि हिंदू धर्म में कभी भी नहीं कहा गया था।
- नेहरू ने गांधी को पैगंबर या मसीहा बनाने की कोशिश की क्योंकि गांधी को अच्छी तरह डकारने के बाद वह गांधी के तोड़े मरोड़े गए प्रचार का उपयोग अपने पक्ष में करना चाह रहे थे ।
- उसके बाद से जो सोवियत किस्म की शिक्षा प्रणाली में पढ़े हुए हिंदू निकले ,उनमें से जो विशेष प्रतिभावान नहीं थे ,वे सब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सरसंघ संचालक को कोई पैगंबर या मसीहा मानने लगे।
- उनको लगता है कि जो कह दिया तो उसके अनुसार चलना है या उसकी निंदा करनी है ।
- जबकि दोनों ही बातें गलत है।
- मैं पूज्य सरसंघ चालक जी को बहुत अच्छी तरह जानता हूं ।आप उनका विश्लेषण करिए जिसमें आवश्यकता पड़ने पर आलोचना करना भी शामिल है,तो उससे वे प्रसन्न ही होते हैं । व्यक्तिगत कटाक्ष उन पर करना तो सभ्य जनोचित नहीं है।
- हिन्दू समाज एक विशाल समुद्र ,या विशाल झील है ।संघ उसकी एक महातरँग है।
- उन्होंने कंकर फेंक दिया है. झील में लहरें उठ रही हैं और वह देख रहे हैं ।
- अब आप चाहें तो कह सकते हैं :,"कंकरिया मार के जगाया "
- अथवा यह कह सकते हैं कि यह क्या बच्चों जैसा खेल खेल रहे हैं।
- दोनों में जिस प्रकार भी लें उसमें कोई समस्या नहीं है ।
- पर यह सदा याद रहे कि हिंदू समाज एक विशाल महासागर है ,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसकी अत्यंत सशक्त तरङ्ग है ।लेकिन सरसंघचालक या कोई भी:- शंकराचार्य भी ,बड़े से बड़े अन्य महामंडलेश्वर भी, कोई पैगंबर या मशीहा नहीं है।यह अलग ही समाज है।इसका अलग ही इतिहास है। वे कोई शास्ता नहीं है । शास्ता के भी कहने पर यह सम्पूर्ण समाज कब चला है,? बहुत से लोग चलते हैं, बहुत से लोग नहीं चलते। एक ही समय में एक साथ अनेक शास्ता अलग-अलग समूहों को शासित करते रहे हैं।
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राजनीतिक संगठन है और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में अत्यधिक सफल रहा है। अपने भावी लक्ष्यों के लिए भी वह राजनीतिक खेल खेल सकता है ।इस विषय में वही सक्षम है।वे खेल सदा अलग तरह से करते रहे हैं ।
- जनता तो कोई सरकार ना बनाती थी, ना बना रही है ,ना बनाएगी।
- अब अगर आप इस भ्रम में पड़ रहे हैं कि जनता ही सरकार बनाती है तो इसका क्या कहा जाए ?
- सरकार बनाने के लिए सक्रिय समूहों में से किसी एक को जनता चुनती है बस।
- समाज में मंथन चलने दीजिए।
- उसमें व्यक्तिगत कटाक्ष की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए और हिंदू समाज कोई घोंघा नहीं है कि वह किसी के कथन से चलने लगेगा।
- जहां तक सत्ता समीकरण की बात है ,उसके नियम अलग है,खेल अलग ।
- सरकार बनाने के लिए सक्रिय समूहों में से किसी एक को जनता चुनती है। वे समूह कहाँ से प्रेरित हैं?
- आधुनिक राजनीतिक दलों का जो गठन हैं उसमें वे समूह जनता से कोई आदेश नहीं लेते ,जनता से कोई प्रेरणा नहीं ,लेते। भारत के सभीदल किसी न किसी विशेष विदेशी मतवाद से प्रेरित हैं क्योंकि आधुनिक शिक्षा उन्हें विदेशी मतवादो का गुलाम बनाती है और अपने अपने विदेशी मतवाद के लिए वह विशेषकर हिंदू जनता का समर्थन लेते हैं।
- उसमें विदेशी मत वादों से प्रेरणा लेने के बाद भी सब है तो हिंदू ही इसलिए हर दल में कुछ कुछ ना कुछ हिंदू संस्कार का अंश रहता है या कोई अवशेष रहता है।
- इस पूरी जटिल प्रक्रिया को समझना चाहिए ।
- जहां तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बात है वह एक दीर्घकालिक राजनीतिक संगठन है और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में वह अत्यधिक सफल रहा है और अब वह सत्ता में है तो सत्ता के भविष्य को ध्यान में रखकर वह तरह तरह के राजनीतिक खेल भी खेलेगा और समाज में अपना आधार भी अधिक बढ़ाएगा, व्यापक करेगा।
- किसी भी संगठन को यदि आप संतुलित और सम्यक रूप में समझने का प्रयास नहीं करते और संगठन को कोई हिंदू समाज का पैगंबर या मसीहा मान लेते हैं तो यह आपकी बुद्धि का दोष है और आपकी दृष्टि का दोष है। संगठन तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए कार्य कर रहा है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह प्रमाणित कर दिया है कि सत्ता प्राप्ति के अपने राजनीतिक लक्ष्य के लिए वह एक अत्यंत कुशल संगठन सिद्ध हुआ है ।
- विद्या की साधना संगठन ने कभी भी न तो घोषणा की थी और ना ही साधना की है ।
- इसलिए जो लोग विद्या और बुद्धि के क्षेत्र में सक्रिय हैं उन्हें इतनी बुद्धि होनी चाहिए कि विद्या और बौद्धिकता की कसौटी पर संघ को न कसें।
- पहली बात तो यह है कि हिंदू धर्म के कोई भी समूह अपरा विद्याओं के क्षेत्र में अभी तक बहुत आगे बढ़े ही नहीं हैं ।
- परा विद्या में तो हमारे पूज्य धर्माचार्य साधु संत और सन्यासी बहुत आगे हैं।
- परंतु अपरा विद्या में मालवीय जी का प्रयास भी बाधित कर दिया गया और आज तक कोई व्यापक प्रयास नहीं हुआ है ।इसलिए सचमुच हिंदू समाज के राजनीतिक लक्ष्य क्या हैं अथवा क्या-क्या हैं औरक्या होने चाहिए इसका कोई भी बड़ा फलक 75 वर्षों से सामने नहीं है और इसीलिए हिंदू समाज के सामने कोई भी बड़ा राजनीतिक आदर्श व्यवस्थित रुप में उपस्थित नहीं है ।केवल भावात्मक रूप में चारों तरफ छाया हुआ है यानी भावमय भाषणों और नारों के रूप में ढेरों बातें चारों ओर फैली हुई हैं लेकिन व्यवस्थित बौद्धिक कार्य केवल विदेशी मत वादों के अनुसरण में ही हो रहा है। सनातन धर्म के अनुसरण में अपरा विद्या का कोई भी विस्तृत कार्य कहीं नहीं हुआ है। इसलिए संघ को जो सूझता है ,अपने राजनीतिक लक्ष्य के लिए वह करता है। आप उस में सहयोग दे सकते हैं या उसकी समीक्षा कर सकते हैं और उससे आदर पूर्वक असहमति दिखा सकते हैं ।परंतु यह असहमति तथ्य पूर्ण और तर्क पूर्ण होगी तो ही हिंदू समाज में सुनी जाएगी।
- अगर आप संघ के राजनीतिक लक्ष्यों में बाधा डालने को ही बड़ा पुरुषार्थ मानते हैं तो हिंदू समाज आप की उपेक्षा कर देगा।
- ऐसा मेरा अब तक का अध्ययन के आधार पर निकला हुआ अनुभव है।
- हिंदू बुद्धि ने कांग्रेस को बहुत लंबा समय दिया। कांग्रेस ने कुछ अच्छे काम किए और बहुत से आधारभूत रूप से गलत काम किए। गलत कामों की समीक्षा करते हुए समाज में क्षोभ जगाते हुए संघ सत्ता पर पहुंचा है।
- अतः सत्ता की राजनीति उसे भली-भांति आती है।राष्ट्र की राजनीति क्या होगी, इस पर ना तो कोई बहुत व्यापक विचार व्यवस्थित रूप में देश के सामने उपस्थित है और ना ही उसकी कहीं देश में चर्चा है।
- वह काम अगर शुरू भी होगा तो कुछ वर्ष लगेंगे उसे रूप लेने में ।
- ऐसी स्थिति में संघ के सरसंघचालक के किसी भी कथन को लेकर उसके आधार पर मूल बातों पर गंभीर विचार विमर्श करना तो बहुत ही उपयोगी हैं परंतु सरसंघचालक के किसी कथन को पैगंबर का फतवा मानना और फिर उसका उग्र विरोध करना मूर्खता के सिवाय कुछ भी नहीं है।
- हिंदू समाज आज भी संघ के अनुशासन में नहीं चल रहा है और राष्ट्र जीवन के विषय में संघ का कोई अनुशासन है भी नहीं ।राष्ट्रभक्ति के विषय में अवश्य उसका अनुशासन है ।
- परंतु ,जाति रहेगी या नहीं?नहीं रहेगी तो उसकी जगह क्या आएगा?लोक व्यवहार के प्रामाणिक आधार क्या है? न्याय की भारतीय परंपरा क्या है ? वह कभी आएगी या सदा के लिए समाप्त हो गई हैं? मानव जीवन के लक्ष्य क्याहैं और क्या होने चाहिए? चेतना के कितने स्तर पर सामान्य मनुष्य तथा विशेष मनुष्य जीते हैं और स्वयं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के चेतना के कितने स्तर हैं और किस स्तर के स्वयंसेवक अथवा अधिकारी की क्या भूमिका है? आदि प्रश्नों पर कोई भी दार्शनिक विवेचन आज तक नहीं हुआ है ।संघ को यह सब आवश्यक भी नहीं लगता। अतः हिंदू समाज जीवन के विषय में संघ का अपना कोई भी चित्र या विचार या खाका नहीं है।।
- यूरोप के विभिन्न समूह भारत सहित दुनिया को अपने-अपने सांचे में ढालने के लिए जो कुछ कर रहे हैं, हिंदू समाज के अलग-अलग समूह उससे समायोजन करते हुए कुछ-कुछ अपना देसी पन साथ में चला रहे हैं।
- ऐसी स्थिति में सत्य यह है कि विशिष्ट यूरोपी अमेरिकी योजनाओं के समक्ष हिंदुओं की कोई व्यापक योजना नहीं है।फिर भी संस्कार बहुत गहरे हैं, बहुत व्यापक हैं ,बहुत उदार हैं और बहुत प्रभावशाली हैं । संसार के भी श्रेष्ठ लोगों को उनमें बहुत शक्ति दिखती है और प्राण दिखता है और वे समय-समय पर उसकी प्रशंसा भी करते रहते हैं और उससे प्रेरणा भी लेते रहें व रहते हैं। इस तरह का एक बहुआयामी गतिशील लोक वर्तन चल रहा है ।संघ उसका एक महत्वपूर्ण परंतु छोटा सा हिस्सा है ।
कल को हिंदू समाज क्या रूप लेगा ,यह केवल महाकाल जानते हैं। परंतु यूरोपीय अमेरिकी प्रवाह क्या क्या प्रयास कर रहे हैं और उनके उत्तर में हिंदुओं सहित संघ के विविध समूह क्या क्या कर रहे हैं तथा उनसे किस प्रकार की अंतः क्रिया कर रहे हैं ,यह भली-भांति समझा जा सकता है । इन सब को देखकर यही कहा जा सकता है कि महाकाल की गति कोई नहीं जानता । सरसंघचालक या किसी भी व्यक्ति अथवा प्रधानमंत्री के भी किसी कथन पर कुछ इस तरह विचलित होना मानो सारा देश उनके पीछे बस चलने ही वाला है ,हिंदू समाज की प्रकृति को नहीं समझना है। निश्चय ही हर महत्वपूर्ण कथन की विवेचना और समीक्षा होनी चाहिए। परंतु प्रशांत विवेक के साथ। एक विचित्र तरह की बेचैनी और हड़बड़ाहट से हर कथन को लेना और उसके पक्ष या विरोध में खड़े होना बौद्धिक दैन्यका लक्षण है। सरसंघचालक ने अभी अभी जो भाषण दिया है ,वह संघ की राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। संघ उस रास्ते पर चलने वाला है । उससे हिंदू समाज को कोई हानि भी नहीं होगी। हिंदू समाज को सबसे बड़ी हानि इस बात में हैं कि लोग सरसंघचालक के किसी भी कथन को हिंदू समाज के लिए कोई ऋषि वाक्य या शास्ता का कथन मान ले। शास्ता तो अपने समय में भगवान बुद्ध हुए हैं और शंकराचार्य हुए हैं और उनका भी कथन समस्त हिंदू समाज ने कभी नहीं माना । एक बड़े अंश ने माना। एक बड़े अंश में नहीं माना । इतना अकाट्य ऐतिहासिक प्रमाण होने पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राजनीतिक संगठन के सरसंघचालक के वक्तव्य पर विचलित हो जाना सामान्य नहीं है । उनके कथन को एक गंभीर चर्चा का आधार और अवसर बना लेना तो उचित ही है। परंतु यह घबराने लगना कि अब संघ हिंदू समाज को मरवाएगा , यह ना तो हिंदू समाज को समझने का प्रमाण है और ना ही संघ को समझने का । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनिवार्य रूप से हित हिंदू समाज से जुड़ा हुआ है । अगर सरसंघचालक कोई गलती भी करते हैं तो वह गलती होगी ।बद नीयती नहीं होगी। क्योंकि आत्मघात का कोई भी लक्षण संघ में नजर नहीं आता। इसलिए वह उनकी या तो सफल कूटनीति होगी या विफल कूटनीति होगी । इससे अधिक कुछ उसे मानने की कोई आवश्यकता मेरी समझ से नहीं है।
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