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लोग मरने को मजबूर होगा

लोग मरने को मजबूर होगा:- डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"

ढल गया है धरा से सुरज, 
   अब हो गई शाम। 
  छा गया घोर तिमिर, 
   खुब करो आराम। 

काट रहे हो नित्य वन, 
 बंजर हो रही  धरती। 
मिट रही है हरियाली, 
खेत रह जाते हैं परती। 
 
नित् हो रहे लाखों छिद्र, 
  इस धरती के पेट में। 
 तरस रहे हैं लोग यहाँ
   सिचाई को खेत में। 

   देख कर बादलों को, 
    उड़ती थी तितलियां । 
 बूंदों को लेकर आगोश में, 
प्रफुल्लित होती थी कलियां । 

  निज स्वार्थ में धरती से, 
  मिट जायेगी हरियाली। 
इस तरह यूं ही फुरसत से, 
 जलाते रहो खुब पराली।

 सूखी हुई नदियाँ होंगी,
 ताल तलैया सूखे होंगे।
अन्न के लिए तड़प होगा, 
सबलोग यहाँ भूखे होंगे। 

न फूलों की खुशबु होगी, 
 न चमन में बहार होगा। 
न कोयल की कूक होगी,
 न पपीहे का पीक होगा।

  स्वयं ही सुख जायेंगे, 
  बचे जो भी पेड़ होंगे। 
   बीज भी नहीं उगेंगे, 
 सिर्फ मेंड़ ही मेंड़ होंगे।

 धरती के प्रचंड तपिश से
हर तरफ धूल ही धूल होगा।
  भूगर्भ जल के दोहन से, 
लोग मरने को मजबूर होगा।
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