सब चाहता है
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र 'अणु'
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सब चाहता है
मैं सदैव
उसके हिसाब से चलूं
उसको तो बस
अपना लाभ दिखता है
मेरा नहीं
भले कपार पीटूं
या फिर हाथ मलूं
मैं बचना चाहता हूँ
हमेशा ऐसे हालात से
पर लात का भूत
कहीं भागा है बात बात से
बस वो अड जाता है
एकदम आकर सामने
कि तेरे कहने से
अपनी छाती पर खुद
अपने से मूंग दलूं
मैं करूंगा अपनी मनमर्जी
कारण की तुम हो अलगर्जी
मेरा कहना करना होगा
नहीं तो साबित कर दूंगा फर्जी
सुनकर होता हूँ दंग
देखकर उसका रंगढंग
देखकर हाल
कर रहा हूँ सवाल
सोच समझकर देना जवाब
हमें क्या करना चाहिए
प्रतिकार या फिर
उसके मनमुताबिक ढलूं
यदि करने लगूंगा
उसके मनमुताबिक
तो ये भी नहीं होगा ठीक
कारण की एक दिन का सरह
बन जायेगा फिर लीक
मैं समझता हूं
जिसका जिंदा है स्वाभिमान
उसके आगे हार मानकर
झुक जाता है बडा से बडा तूफान
भले दर दर की खा लेगें ठोकर
पर कभी नहीं करेगें उसकी जी हुजूरी
मरना मंजूर होगा मुझे
उस स्थिति में
जो किसीके टूकडे पर पलूं
जिसको जो करना है करे
खजाना खाली कर दे या भरे
मैं करूंगा अपना काम
बिना किये किसीका खुशामद
मुझे क्या लेना देना है उससे
रहे बडा या छोटा कद
चला रहा है काम
या फिर कर रहा है बदनाम
उसका ठीक नहीं है नियत
और कर रहा है सबको दिक्कत
शायद ये सोचकर कि
लोगों को तकलीफ हो तो हो
पर मैं जहां कहीं
जब कभी निकलूं
बस बाबू बनकर निकलूं
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