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अब तो सपना हो गेल

अब तो सपना हो गेल

मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"
खपड़पोस दूरा पर 
ढिबरी बरैत देखला
पोरा बिछल बिछौना
आऊ मटपर के आग उठौना
बाबा के गोदी में बैठ के 
रजाई मे झाँकल देह सुनैत
परियन के खिस्सा पहाड़ा
बीस एकम बिस्सा
भेल साँझ मामा के झँकल अँचरा से
देखवैत सँझौत
मैया के कुलदेउतन से
मनवैत मनौत
बरखा में चुऐत ओसरा के ओरी
बगैचा में आम के अमोरी
चुऐत तार के फेदा
इयाद आव हे यदा कदा
बंधल गोशाला में गैयन के घंटी के
धुन कहाँ सुना हे 
गांव भी शहर हो गेल एही बुझा हे।
.....मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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