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शिक्षा और समाज

शिक्षा और समाज

जय प्रकाश कुँवर
भारतवर्ष इस साल के अगले महीने के 15 तारीख को अपनी आजादी का 75 वां वर्ष पूरा करने जा रहा है और इसे अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है । आजादी के अमृत महोत्सव का महत्व भारत की आजादी को 75 वर्ष पूर्ण होना है । अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के आह्वान पर 1 अगस्त को स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाया जाएगा । जैसा कि समाचार से मालूम होता है। आइये इस अवसर पर देश में चल रही वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से होने वाले कुछ बातों एवं उनके परिणामों पर ध्यान देते हैं ।
आजादी के बाद विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों से समायोजित इस देश को संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है । लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष देश में शिक्षा की भूमिका क्या होनी चाहिए इस पर शायद भविष्य के लिए बहुत ज्यादा चिंतन नहीं किया गया है और व्यवहारिक रूप से वर्तमान शिक्षा नीति में कमी लगता है रह गई है । ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा से ही राष्ट्र का निर्माण होता है और समाज आगे बढ़ता है । आज देश शिक्षा नीति के व्यवहारिक नहीं होने का खामियाजा लगता है भुगत रहा है । और देश धार्मिक तथा जाति एवं वर्ग आधार पर तरह तरह की हिंसक गतिविधियों का सामना कर रहा है।
स्वतंत्रता के बाद धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान में जगह दिया गया है परंतु भारतीय संविधान के अंतर्गत अन्य मूल्यों को परितोषण करने के लिए शिक्षा की सुचारू व्यवस्था करना भी आवश्यक था । संविधान के अनुसार सरकारी अनुदान वाले सभी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने पर पाबंदी लगाई तो गई परंतु इसकी समुचित निगरानी भी आवश्यक था । धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से शिक्षा द्वारा प्रचारित करना आवश्यक होता है । इस सिद्धांत का तथा नैतिक मूल्यों का समावेश शिक्षा में करना आवश्यक होता है । हालांकि विभिन्न आयोगों और समितियों ने सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से शिक्षा देने पर बल दिया है । परंतु जब धर्म कट्टरता एवं अंधविश्वास के मकड़जाल में फंस जाता है तो संकुचित मनोवृत्ति उपजती है एवं समाज तथा लोगों में संघर्ष की उत्पत्ति होती है । विभिन्न घटनाओं के विगत आधार पर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इस देश में आजादी के बाद भी धर्म एवं जाति से संबंधित हिंसा का साक्ष्य अधिक है । क्योंकि शिक्षा में अगर धर्म की बातों को गलत रूप से प्रचारित किया जाता है तो धर्म की बातों को लोग बिना सोचे समझे ग्रहण कर लेते हैं जिससे नफरत और अंधविश्वास समाज में फैलता है और समाज में अशांति फैलती है।
नैतिकता, सदाचार,दया, बंधुभाव, समानता तथा सहअस्तित्व हमारे मानव जीवन के लिए अति आवश्यक है । और यह सब शिक्षा के बिना संभव नहीं है । संस्कृति का विकास शिक्षा के द्वारा ही किया जा सकता है । अतः शिक्षा और धर्म का अंत्यंत घनिष्ठ संबंध है । संकुचित मनोवृत्तियों पर बल देने वाले विषयवस्तु को पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं करना चाहिए । वसुधैव कुटुंबकम् की भावनाओं का विकास करने में शिक्षा एक अद्भुत शक्ति के रूप में कार्य करती है ।
शिक्षा की सहायता से धार्मिक समानता बनाए रखना आज के वर्तमान समाज की नितांत आवश्यकता है । धर्म संस्कृति का अभिन्न अंग है एवं शिक्षा संस्कृति की वाहिका है । इसलिए शिक्षा पर अधिक जवाबदेही आती है । संवैधानिक मूल्यों का परितोषण शिक्षा की सहायता से ही संभव है । शिक्षा में जाति धर्म एवं क्षेत्र में गलत भावना पैदा करने वाला पाठ्यक्रम होना ही नहीं चाहिए । धर्म और जाति से उपर उठकर मानव कल्याण एवं जन कल्याण शिक्षा का प्रधान उद्देश्य होना चाहिए । धर्मनिरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से शिक्षा द्वारा प्रचारित करना चाहिए । अतः आज के इस वर्तमान भारत वर्ष में शिक्षा नीति एवं पाठ्यक्रम पर चिंतन करना तथा उसे कार्यान्वित करना सरकार का मुख्य दायित्व होता है , ताकि सर्वधर्म समभाव आधारित शिक्षा का प्रसार एवं अनुपालन हो सके एवं देश में पूर्ण शांति स्थापित होने में मदद मिल सके । इससे आजादी के अमृत महोत्सव का मूल्य और भी बढ़ जाएगा और देश में अमन-चैन का माहौल विकसित होगा ।
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