भारतीय संस्कार ,संस्कृति और शिक्षा डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
भारतीय संस्कृति ही सनातन -शिक्षा है जो अपने संस्कार के बल पर पशु को मानव एवं मानव को
महान बनाती है । विश्व में सबसे पहले इस संस्कार पूर्ण शिक्षा का प्रकाश भारत हीं फैला था,
, फिर भारत ने इससे जगत को प्रकाशित किया । हमारे शास्त्र कहते हैं -विद्ययाऽमृतमश्नुते॥
शुक्ल यजुर्वेद 40/14, ईशोपनिषद् 1/11, एवं मनुस्मृति 12/103। की घोषणा- "सा विद्या या विमुक्तय" विष्णु पुराण 1/19 /41, या सर्वे भद्राणि पश्यंतु या सर्वे संतु निरामयाः. या वसुधैव कुटुम्बकम् आदि सूक्ति -वाक्य संस्कृत भाषा को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं मिलते। संस्कृत भाषा जो संस्कार पर आधारित हुआ करती थी ,इस आर्यावर्त, जो आज भारत है की राष्ट्रभाषा हुआ करती थी। आज भी बाहर में भारतीय डिग्रियों की धूम मची रहती हैं। भारतीयता के जागरण -पुरोधा आचार्य चाणक्य ने एक चरवाहे को सम्राट बना दिया ,यह कथा सर्व बिदित है ।यह भी अनाबृत है कि चार्य चाणक्य महल में नहीं रहकर एक कुटियट में रहते थे जो गंगा किनारे थी ।वे उस पाटलीपुत्र राज्य के महामात्य भी हुआ करते थे ।सम्राट चाणक्य को जब उनसे यानी अपने ही साम्राज्य के माहामात्य (महामंत्री ) से मिलना होता तो वे सूर्योदय के पूर्ब गंगा में स्नान कर एकबस्त्रा होकर ही उनसे अनुमति लेकर मिलते थे ।यह थी बारत की संस्कृति । इन्हीं संस्कारों के आधारपर भारत विश्वगुरु कहलाता था । विद्वान होने का अर्थ है संस्कारवान होना यानी संस्कृत होना ,संस्कृत का जानकार होना। इन्हीं गुणों के वशीभूत होकर इंग्लैंड के शासक बिलियन जोंस भारतीय शिक्षा पर इतना मुग्ध हुए थे कि उन्हें भारत दर्शन की बेचैनी हो गई थी । उन्होने भारतीय संस्कृति -संस्कार, साहित्य और दर्शन की ख्याति सुन रक्खी थी, इसलिए वे भारतीय साहित्य एवं दर्शन को आदर्श मानते थे और वे भारत के अध्यात्म साहित्य, संस्कृति, दर्शन एवं शिक्षा पद्धति का अध्ययन करना चाहते थे। वे हमारी आर्ष परम्परा ,हमारे रीति -रिवाज ,हमारी संस्कृति पर शोध करना चाहते थै ।इसके लिए वे इंडियन एडमिनिस्ट्रेशन में भाग लेकर या किसी विध भारत आना चाहते थे। बहुत दिनों के बाद एक लंबे प्रयास के उपरांत उन्हें यह अवसर मिल गया और वे भारत के सुप्रीम कोर्ट के न्ययाधीश होकर कोलकाता आ गए। उन दिनों इन्डिया का सुप्रीम कोर्ट कोलकाता में हुआ करता था। कहा जाता है कि कोलकाता में समुद्र से उतरने के बाद उन्होंने भारत की मिट्टी को प्रणाम किया, फिर उस मिट्टी का तिलक लगाया तब उन्होंने यहां की धरती पर अपने पैर रक्खे। भारत प्रवास के पहले ही दिन से उन्होने भारत की संस्कृति और संस्कार जानने की इच्छा प्रकट की, परंतु सूत्रों ने बताया कि वह सभी ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं। उनके अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा की जानकारी आवश्यक है। अब उनकी खोज एक गुरु की हो गई जो संस्कृत पढ़ा सकें। कोई भी संस्कृत के पंडित अंग्रेजों के रहन-सहन, असन बसन, भोजन-भजन की अशुद्धता के कारण उनके संपर्क में नहीं आना चाहते थे। तीन महीने बीत गए, किंतु विलियम जॉन्स को एक संस्कृत सिखाने वाले शिक्षक नहीं मिले। इसी क्रम में कोलकाता के कृष्णा नगर के महाराज शिवचंद सिंह जी से इनकी मित्रता हो गई। महाराज शिव चंद्र सिंह को उन्होंने यह कार्य, एक गुरु खोजने का कार्य सौंप दिया। परंतु राजा साहब इस कार्य में सफल नहीं हुए। तीन महीने का अवसर यूँ ही चला गया। राजा साहब
के अथक प्रयास के बाद कवि भूषण जी ने यह कार्य सशर्त स्वीकारा। प्रथम मुलाकात में ही पंडित कवि भूषण जी ने स्वीकृति के पूर्व निम्नांकित शर्तें रखी -
1. आप भारतीय शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं तो शिक्षा की तरह आपको भी भारतीय गुण अपनाने होंगे।
2. जहां हम आपको शिक्षा देंगे वह कमरा भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण होना चाहिए।
3. पढ़ने का कक्ष नित गंगाजल से धोया जाना चाहिए। पवित्रीकरण आवश्यक होगा।
4. गुरु आसन (आचार्य जी का आसन) ऊंचा होना चाहिए। आपको जमीन पर बैठकर पढ़ना होगा
5. गुरु आसन सहित कमरे की सफाई एवं गंगाजल से पवित्रीकरण के उपरांत उसे अष्टगंध से सुगंधयुक्त करना होगा।
6. अध्ययन के पूर्व गंगा में स्नान कर दो वस्त्रों में ही आना होगा और आपको अध्ययन करना होगा। इसमें धोती और एक चादर होगी।।
7. अध्ययन काल में आपको मांस, मदिरा, धूम्रपान आदि का सेवन बंद रखना होगा। हो सकता है यह आदेश सदा के लिए मानना पड़े।
8. अध्ययन काल में चोटी रखनी होगी। इसे अध्ययन के बाद बांधना होगा।
9. गुरु का अनुशासन सर्वश्रेष्ठ माना जाएगा।
10. इतना करने के आप विद्वान नहीं हो जाएँगे,हाँ ! इसके उपरांत आपको तीन चीजें आएंगी -श्रद्धा, तत्परता सक्रियता।
जान्स साहब को सीखने की ऐसी तत्परता थी कि उन्होंने आचार्य कवि भूषण जी की सारी शर्तें मान लीं। आनन-फानन में व्यवस्था की गई। नीचे का पूरा तल्ला भारतीय ढंग से तैयार कराया गया। गंगा जल से धोया गया। नित्य सुगंधित धूप की व्यवस्था की गई। गुरुजी का उच्चासन तैयार किया गया। उनकी जमीन पर आसन लगाई गई। पूरी कोठी को अभक्ष्य भोजन से मुक्त कर दिया गया। यहां तक कि मदिरा सेवन भी बंद करा दिया गया। विद्या अध्यन का मुहुर्त देखा गया। माघ शुक्ल पंचमी को विद्याध्यन आरंभ किया गया। पूर्ण भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण कोठरी में गुरुजी ने आसन जमाया। गंगा में स्नान कर एक धोती और एक चादर में जॉन्स साहब बिना कुछ लिए ही गुरु जी को प्रणाम करते। उनकी आज्ञा से मात्र एक कप चाय लेकर अध्ययन में जुट जाते। गुरु कृपा ऐसी हुई कि कुछ ही दिनों में जॉन्स साहेब संस्कृत के विद्वान बन गए । वे संस्कृत की विशेषता पर मुख्य थे। उन्होंने कई संस्कृत की पुस्तकों का प्रणयण किया। कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद किया। संस्कृत के प्रभाव के कारण सर विलियम जॉन्स ने लंदन की रॉयल सोसाइटी, तथा एसिया में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। भारत में श्रद्धा रखने के कारण जॉन्स साहब ने 1884 में कोलकाता में भी एसियाटिक सोसाइटी की स्थापना कर डाली। यह विवरण लार्ड टीन माउथन द्वारा सर विलियम जोंस पर लिखी पुस्तकों में विस्तार से मिलता हैं जो छः जिल्दों में प्रकाशित है। इनकी अंग्रेजी में अनूदित कालिदास द्वारा रचित शकुंतला नाटक को बेस्ट बुक ऑफ वर्ल्ड का खिताब मिल चुका है। भारतीय मसालों के प्रति विशेष अभिरुचि के कारण उन्होंने मशालों पर ही एक अच्छी पुस्तक भी लिखी जिसे बर्ल्ड सोसाइटी ऑफ यूनिटी ने सम्मानित किया। इससे हमारे युवा बंधुओं को सीख लेनी चाहिए जो विदेशी भाषा, भाषण, भूषा, भूषण, भोजन, भजन के दिवानें हो जाते हैं। भारतीयता को भूलकर पश्चिम
की सभ्यता को अपनाने में अपनी गरिमा समझते हैं। गुरु के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं रखते हैं, विद्या नहीं प्रमाण पत्र के पीछे दौड़ते हैं और संस्कार को भुलाकर पाश्चात्य शैली में जीवन जीना चाहते हैं। यह भारतीयता, भारत, भारती की कृपा, भारत की भाषा का प्रभाव तथा उसका चमत्कार ही है। यही है अपना अजेय भारत और इसकी प्राच्य सभ्यता । दूसरी ओर है आर्थिक रूप से संपन्न पश्चिमी सभ्यता जो पतन का रास्ता भी है ।इसके वशीभूत होकर लोग नसे में जी रहे हैं ।यह नशा है एकल् परिवार की । परिवार समाज की प्राथमिक संस्था है। परिवार से घर बनता है, परिवार से समाज बनता है, परिवार से गांव बनता है, परिवार से राष्ट्र बनता है। हमारे आर्ष ग्रंथों ने तो डंके की चोट पर घोषणा की है कि परिवार से विश्व की रचना होती है -वसुधैव कुटुंबकम। सारी सृष्टि ही परिवार है। इसीलिए हमारे ऋषियों ने परिवार बसाने और बचाने के लिए ग्रंथों की रचना की थी। परंतु दुर्भाग्य है कि हमने उन ग्रंथों को दीमक के हवाले कर दिया और निश्चिंत होकर एकल् परिवार का जाप करने लगे। जहां परिवार है वहां एकल् कैसे हो सकता है? पश्चिमी सभ्यता में लोग शादी करना पसंद नहीं करते। इससे अवैध संबंधों को बढ़ावा मिल रहा है। फिर लिव इन रिलेशनशिप नाम की एक नई कुरीति समाज में आ गई है। इससे परिवार श्रृंखला टूटती जा रही है। अवैध बच्चों की संख्या बढ़ रही है। चर्च में सेवा भाव से ऐसे बच्चे रख दिए जाते हैं जो भविष्य में क्रिश्चियनिटी के शिकार करवाए जाते हैं। इससे उनकी संख्या बढ़ रही है। हिंदू धर्म, समाज के पतन का कारण यही परिवार है। जनसंख्या की बढ़ती प्रवृत्ति के भय के कारण परिवार विखंडित हो रहा है। हिंदू परिवार का अर्थ होता है रक्त पर आधारित रिश्ते। इसमें पिता -माता, चाचा-चाची, बुआ -फूफा, मामा -मामी, मौसी-मौसा, बहन -बहनोई, पत्नी, साले(श्याला) , ससुर -सास सभी होते हैं, परंतु आज हम -दो हमारे -दो के नारे में यह परिवार श्रृंखला लुप्तप्राय हो गया है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है - पुत्र -दो +पुत्री दो =बचे रिश्ते 5 पुत्र दो +पुत्री एक =बचे रिश्ते 4 (इसमें मौसी नहीं होगी) पुत्र एक +पुत्री दो =बचे रिश्ते 3 (चाचा, ताऊ नाम के कोई जंतु नहीं होंगे) पुत्र एक +पुत्री एक =बचे रिश्ते 2( चाचा, ताऊ, मौसा, मौसी नहीं, सभी गायब)
पुत्र एक+ पुत्री नहीं =परिवार में कोई नहीं पुत्र नहीं + पुत्री एक = परिवार में कोई नहीं तीसरी पीढ़ी तक आते-आते सिंगल चाइल्ड फैमिली परिवार को पूरा प्रभावित करेगा। यह विश्लेषण सरकारी आंकड़े के आधार पर किया गया है। आपका पौत्र परिवार में अकेला खड़ा नजर आएगा। परिवार में रक्त से संबंधित रिश्तेदार कोई कहीं नहीं बचेगा। वह अकेला जीवन जीने को मजबूर होगा। यह स्थिति हिंदू परिवार की है और हिंदू परिवार के कमजोर होने का या हिंदू धर्म के पतन का भी यही कारण बनेगा।
विविधता की गंध भारत में है, चाहे वह संप्रदाय की विविधता हो, जाति की हो, धर्म की हो, संस्कार या संस्कृति की हो, दूसरे देशों में यह विविधता इस स्तर पर देखने को नहीं मिलती है। यही भारत की विविधता में एकता का संस्कार और संस्कृति भारत को अन्य देशों से श्रेष्ठ बनाती है, बताती है। त्योहारों की विविधता क्षेत्रीय वातावरण और उपलब्धता पर निर्भर होती है। दक्षिण के पर्व उत्तर के पर्वों
से भिन्न होते हैं। पर्वों, त्यौहारों और व्रतों से एक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस ऊर्जा का आनंद अन्य देशों में प्राप्य नहीं है। इसीलिए संप्रदाय, धर्म, जाति, पर्व, त्यौहार का परिवेश अन्य देश तोड़ना चाहते हैं। हमारे रीति रिवाज पर अन्य देश शोध कर रहे हैं और हम उनके त्यक्त फैसन पर फिदा होकर उसे गले लगा कर इतराए फिरते हैं। कौन से कारण हैं कि भारत में शादी विवाह बिना किसी लिखित अनुबंध के होते हैं जिसमें समूह बांधकर संपूर्ण समाज आनंदित होता है और यह बंधन आजीवन ऊंच-नीच, दुःख-सुख, झगडा -झंझट सहते हुए एक साथ आजीवन बना रहता है। दो अनजान परिवार एक साथ जुटते हैं और यह सम्बन्ध व्यक्ति, परिवार से लेकर संपूर्ण गाँव तक जुड़ जाता है। इस संबंध में 1913-14 में जनरल स्मट्स ने एक कानून बनाया कि हिन्दू रीति -रिवाज से होने वाले विवाह पूर्णतः अवैध हैं। सबसे तो आश्चर्ययह है कि उस समय इसका जोरदार बिरोध नहीं हुआ। उसी समय एक मुसलिम महिला हिन्दुस्तान से फिनिक्स गई। उसे बन्दरगाह पर ही रोक दिया गया था। उसने इसके बिरुद्ध मुकदमा दायर किया था। सुप्रिम कोर्ट के जस्टिस मि॰ सरले ने इस मामले में फैसला दिया था कि जो विवाह ईसाई पद्दति से नहीं हुए हैं वे अमान्य हैं क्यों कि उनके पास कोई प्रमान पत्र नहीं हैं। और एक झटके में दस हजार से अधिक मुसलिम एवं पारसी दम्पति अवैध हो गए। उस आदेश के अनुसार बच्चे भी अवैध हो गए। "बच्चों को उनके माता-पिता का बारिस भी नहीं माना जाएगा। बीबीयों को देश निकाला दे दिया जाएगा। कल कोई भी सिपाही किसी की घरवाली के पास आकर सो सकता है। "। ईसाई परम्परा से नहीं होने से विवाह को अवैध करार दिए जाने के कारण अनगिनत अमीर और गरीब परिवार अंधाधुंध जुर्माने एवं अपमान का घूंट पी रहे थे। इस फैसले से एक नई चिनगारी का उदय हुआ, लोगों में नई उर्जा का संचार हुआ। प्रतिफल कि हिन्दुस्तान में यह कानून सफल नहीं हो सका। दूसरी और इस्लाम के मौजूद परिवारिक श्रृंखला के कारण वह बलवान हो रहा था और आज भी हो रहा है । वह अपनी परिवार -पद्धति को मजबूर एवं अविभाजित बनाए हुए
है और यही कारण है कि पश्चिमी दुनिया फैमिली सिस्टम के टूटने के कारण तबाह हो रही है और इस्लामिक देशों से लगातार हार रही है। डेबिट सेंलबॉर्न ने एक किताब लिखी है -लुजिंग बैटल विद इस्लाम (The losing battle with Islam इसमें मात्र इसी की व्याख्या है -पश्चिमी दुनिया इस्लाम से हार रही है। इसी से संदर्भित विलबार्नर ने भी एक पुस्तक लिखी है। इसमें लिखा है कि देर सबेर पश्चिम इस मजबूत फैमिली सिस्टम के अभाव में इस्लाम से हार जाएगा। देर सवेर हार के कई कारण हैं इसमें परिवार का विखंडन भी एक कारण है। " ओल्ड एज होम "इसी की देन है। अब तो राजनीतिक पार्टियाँ परिवार को बचाने का वादा चुनावी घोषणा पत्र में भी करने लगी हैं। आस्ट्रेलिया में तो फैमिली फर्स्ट नाम की एक पॉलीटिकल पार्टी ही बना ली गई है। लेकिन सम्प्रति स्थिति उससे भी भयानक दिखती है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय, संसद एवं सरकारें सभी बाहरी देशों के साथ खड़ी दिखती हैं। अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय का एक आदेश आया है जिसने वनवासियों -आदिवासियों के जीवन में हलचल पैदा कर दिया है। जंगल की संस्कृति आदिवासियों के गुण हैं। अगर उसके जंगल को विकास के नाम पर छीन लिया जाता है और उसे शहरी बंगले भी दे दिए जाते हैं तो भी उनकी खुशी और जीवन की आजादी नहीं लौट सकती । उन्हें स्वतंत्रता प्रिय है। जंगल, पेड़ -पौधे, जंगली जानवर उनके मित्र हैं। हवा का झोंका उनकी पीठ सहलाता है, उन्हें शक्तिमान बनाता है। शिकार की प्रवृत्ति उन्हें सामान्य जीवन में आरोग्य प्रदान करती है। इसलिए उनके जीवन से छेड़छाड़ मंहगा पड़ेगा। यह रोग हिंदुओं में भी घुस गया है। जो बच्चे पढ़ने घर से दूर जाते हैं, उनमें से कुछ लिव इन रिलेशनशिप को अपना लेते हैं। वे इस भारतीय पद्दति को विवाह शादी के नाम पर व्यर्थ का अर्थ दोहन समझ रहे हैं। इस माध्यम से असांस्कृतिक परिवेश तथा असंवैधानिक संबन्धों को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्री वेडिंग सिरोमनी भी इसी का एक नवीनतम महारोग है ।हमने अपनी संस्कृति खो दी है, हमारे संस्कारों का हवन हो गया है। हम धन दौलत की दौड़ में इतना आगे बढ़ चले हैं कि अपनी पहचान ही भूल गए हैं। परिणाम बाढ़ सुखाड़ और अंत में भीषण कोरोनावायरस। कई लोगों को 100 ग्राम ऑक्सीजन के अभाव में प्राण त्यागते हमने देखा है । पहली लहर ने शहर को निशाना बनाया था, बृद्धों, पहले से बीमार लोगों की जाने गई थीं। दूसरी लहर ने शहर के मोहल्ला साफ कर दिया, मित्रों के मित्र चले गए। इसने धनी -गरीब, अरि -मित्र, समर्थ-असहाय, राजा-प्रजा किसी का ख्याल नहीं किया। जिस देश में जितनी अधिक विलासिता रअी,वह देश उतना ही तबाह हुआ ।उसके आगे विज्ञान की तीसरी लहर की चेतावनी । धन -दौलत, पद -प्रतिष्ठा इस तबाही में कोई काम नहीं आए। यह विचारणीय है कि हमारे पास ॠषियों का शोध-प्रसाद आयुर्वेद ऐसे ग्रंथ हैं, जीवन दायिनी संजीवनी सदृश औषधियां हैं, बुजुर्गों के पके जीवन के अनुभव हैं, समाज का परस्पर सहयोग है, गांव की अमराई के कुँए का जल है, फिर बीमारी कैसे फैल रही है ! इसका एकमात्र कारण है घर घर नहीं रहा, गांव गांव नहीं रहा, समाज समाज नहीं रहा, यहां तक कि हमारा भारत भारत नहीं रहा। हम विश्वबैंक के चंगुल में फँसकर चौधरी की चौधराहट के शिकार हो गए हैं। संस्कारहीन देह को ही जीव माननेवाली अज्ञानी विदेशी ऐश्वर्यसत्ता
ने हमारे युवा वर्ग को वशीभूत कर लिया है। फलस्वरूप स्वतंत्रता से अधिक स्वछंदता को हमने अपना लिया है। उपार्जन विलासिता के केन्द्राभिसारी हो गया है। हमारे आदि ॠषि जंगलों में रहते थे। आचार्य चाणक्य ने एक राजतंत्र का उदय ही कर दिया। एक राजतंत्र की स्थापना करनेवाला चाणक्य एक झोपड़ी में रहते थै। राजा चंद्रगुप्त को आवश्यकता होती तो वहीं राजा के पास मिलने जाते थे। महामात्य से मिलने के लिए राजा पहले गंगा में स्नान करते थे और एकवस्त्री होकर दरवाजे पर खड़े रहते थे। समय पाकर आज्ञा मिलती थी और वे महाराज महामात्य से मिलते थे। ऐश्वर्य के बिलासी मिति से दूर रहने वाला ही असली स्थाई सुख का हकदार होता है। कहा जाता है कि ज्ञान प्राप्त होने के बाद
माहाराज जनक अपने सौध सदन में कुटिया बना कर रहते थे। उसी कुटिया में उन्हें राजमहल का सुख मिलता था। कई ऐसे हमारे मित्र हैं जिनके पास अपार धन है, अरबों का टर्न- ओवर है, परंतु एक पाव ऑसीजन के अभाव में उनकी मृत्यु हो गई है । ऐसी सूचनाएँ सबके पास होंगी। यहां तक की मृत्यु के उपरांत होने वाले संस्कारों में पुत्र नहीं सम्मिलित हो पाए हैं। अगर होते हैं तो कोई निश्चित नहीं कि वे अस्वस्थ नहीं हुए हों। इसलिए आवश्यक है कि गांव को गांव रहने दिया जाए। वन संपदा का दोहन शहर बसाने के लिए नहीं हो। आवश्यकता से अधिक जंगल उजाड़े नहीं जाएँ। अगर आवश्यकता हो तो 10 पेंड़ की कटाई पर 20 पेंड़ लगाए जाएँ। प्रकृति ने हवा, पानी मुफ्त में स्वतंत्र होकर दिया है, उसे स्वतंत्र ही रहने दिया जाए। पीपल, नीम, बरगद सांप्रदायिक रंग में रंगे जा रहे हैं, जिनसे मिलने वाले ऑक्सीजन की कीमत कोई वैज्ञानिक भी नहीं लगा सकता, इसे प्रकृति के रंग में ही रहने दिया जाए। है । इसलिए इस संस्कार,संस्कृति और सनातनी परंपरा के विरुद्ध फैलने वाले इस महारोग की जानकारी लोगों को चौक चौराहे, पान की गुमटी, चाय स्टॉल पर भी उसी तरह देनी चाहिए जैसे कोविड -19 की दी गई है। नासमझ लोग तो हंसी उड़ा सकते हैं परंतु कुछ लोगों की इस जानकारी की आवश्यकता है, ऐसा भी हो सकता है। इसलिए - एक बार फिर जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली को बंधन की चाह हो! आनन्द विहार कुञ्ज, माड़नपुर ,गया -823001
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