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आखरी सत्य

आखरी सत्य

बहुत दिनों से मेरी 
फड़क रही थी आँखे। 
कोई शुभ संदेश अब
शायद मिलने वाला है। 
फिर एकका एक तुम्हें 
आज यहाँ पर देखकर। 
अचंभित हो गया मैं
तुम्हें सामने देखकर।। 

रुलाया है बहुतो को
जवानी के दिनों में। 
कुछ तो अभी भी जिंदा है
तेरे नाम को जपकर। 
भले ही लटक गये है 
अब पैर कब्र में जाने को। 
पर उम्मीदें आज भी जिंदा 
रखे हुये है अपने दिलमें।। 

यहाँ पर सबको आना है
एक दिन जलने गढ़ने को। 
कितने तो पहले ही यहाँ
आकर जल गढ़ चुके है। 
तो तुम कैसे बच पाओगें
जीवन के अंतिम सत्य से। 
मिला है यहाँ पर सबको 
समानता का अधिकार।। 

यहाँ पर जलते गड़ते रहते है
सुंदर मानव शरीर के ढाचे। 
जिस पर घमंड करते थे और
लोगों को तड़पाया करते थे। 
पर अब तुम्हें जीवन का 
सत्य समझ आ गया है। 
इसलिए तो अंत में अपने
चाहने वालों के बीच आये हो।। 

जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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