अर्जुन के पंडितों-सरीखे प्रश्नों का जवाब
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-अर्जुन के कौन-से वचनों को लक्ष्य करके भगवान् ने यह कहा है कि तुम पण्डितों-सरीखी बातें कह रहे हो?
उत्तर-पहले अध्याय में इकतीसवें से चैवालीसवें और दूसरे अध्याय में चैथे से छठे श्लोक तक अर्जुन ने कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले महान् पाप का वर्णन करते हुए अहंकार पूर्वक दुर्योधनादि की नीचता और अपनी धर्मज्ञता की बातें कहकर अनेकों प्रकार की युक्तियों से युद्ध का अनौचित्य सिद्ध किया है; उन्हीं सब वचनों को लक्ष्य करके भगवान् ने यह कहा कि तुम पण्डितों-सरीखी बातें कह रहे हो।
प्रश्न-‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ किनका वाचक है तथा ‘उनके लिये पण्डित जन शोक नहीं करते’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिनके प्राण चले गये हों, उनके ‘गतासु’ और जिनके प्राण न गये हों, उनको ‘अगतासु’ कहते हैं। ‘उनके लिये पण्डित जन शोक नहीं करते’ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार तुम अपने पिता और पितामह आदि मरकर परलोक में गये हुए पितरों के लिए चिन्ता कर रहे हो कि युद्ध के परिणाम में हमारे कुल का नाश हो जाने पर वर्णसंकरता फैल जाने से हमारे पितर लोग नरक में गिर जायँगे इत्यादि। तथा सामने खड़े हुए बन्धु-बान्धवों के लिये भी चिन्ता कर रहे हो कि इन सबके बिना हम राज्य और भोगों को लेकर ही क्या करेंगे। कुल का संहार हो जाने से स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जायँगी इत्यादि। इस प्रकार की चिन्ता पण्डित लोग नहीं करते क्योंकि पण्डितों की दृष्टि में एक सच्चिदानन्द धन ब्रह्म ही नित्य और सत् वस्तु है, उससे भिन्न कोई वस्तु ही नहीं है, वही सबका आत्मा है, उसका कभी किसी प्रकार भी नाश हो नहीं सकता और शरीर अनित्य है, वह रह नहीं सकता तथा आत्मा और शरीर का संयोग-वियोग व्यावहारिक दृष्टि से अनिवार्य होते हुए भी वास्तव में स्वप्न की भाँति कल्पित है; फिर वे किसके लिये शोक करंे और क्यों करें। किन्तु तुम शोक कर रहे हो, इसलिये जान पड़ता है तुम पण्डित नहीं हो, केवल पण्डितों की सी बातंे ही कर रहे हो।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।। 12।।
प्रश्न-इस श्लोक में भगवान् के कथन का कया अभिप्राय है?
उत्तर-इसमें भगवान् से आत्मरूप सबकी नित्यता सिद्ध करके यह भाव दिखलाया है कि तुम जिनके नाश की आशंका कर रहे हो, उन सबका या तुम्हारा-हमारा कभी किसी भी काल में अभाव नहीं है। वर्तमान शरीरों की उत्पत्ति के पहले भी हम सब थे और पीछे भी रहेंगे। शरीरों के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता; अतएव नाश की आशंका से इन सबके लिये शोक करना उचित नहीं है।
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिधींरस्तत्र न मुह्यति ।। 13।।
प्रश्न-‘इस श्लोक में भगवान् के कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इसमें आत्मा को बिकारी मानकर एक शरीर से दूसरे शरीर में जाते-आते समय उसे कष्ट होने की आशंका से जो अज्ञानीजन शोक किया करते हैं, उसको भगवान् ने अनुचित बतलाया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार बालकपन, जवानी और जरा अवस्थाएँ वास्तव में आत्मा की नहीं होती, स्थूल शरीर की होती हैं और आत्मा में उनका आरोप किया जाता है, उसी प्रकार एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना-आना भी वास्तव में आत्मा का नहीं होता, सूक्ष्म शरीर का ही होता है और उसका आरोप आत्मा में किया जाता है। अतएव इस तत्व को न जानने वाले अज्ञानीजन ही देहान्तर की प्राप्ति में शोक करते हैं, धीर पुरुष नहीं करते, क्योंकि उनकी दृष्टि में आत्मा का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुः खदाः।
आगमापयिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।। 14।।
प्रश्न-‘मात्रास्पर्शाः’ पद यहाँ किनका वाचक है?
उत्तर-जिनके द्वारा किसी वस्तु का माप किया जाय-उसके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे ‘मात्रा’ कहते है; अतः ‘मात्रा’ से यहाँ अन्तःकरण सहित सभी इन्द्रियों का लक्ष्य है। और स्पर्श कहते हैं सम्बन्ध या संयोग को। अन्तःकरण सहित इन्द्रियों का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि उनके विषयों के साथ जो सम्बन्ध है, उसी को यहाँ ‘मात्रा स्पर्शाः’ पद से व्यक्त किया गया है।
प्रश्न-उन सबको ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-शीत-उष्ण और सुख-दुुःख शब्द यहाँ सभी द्वन्द्धों के उपलक्षण हैं। अतः विषय और इन्द्रियों के सम्बन्धों को ‘शीतोष्ण सुखदुःखदाः‘ कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वे समस्त विषय ही इन्द्रियों के साथ संयोग होने पर शीत-उष्ण, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि समस्त द्वन्द्वों को उत्पन्न करने वाले हैं। उनमें नित्यत्व-बुद्धि होने से ही नाना प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है, अतएव उनको अनित्य समझकर उनके संग से तुम्हें किसी प्रकार भी विकार युक्त नहीं होना चाहिये।
प्रश्न-इन्द्रियों के साथ विषयों के संयोगों को उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य कहकर अर्जुन को उन्हें सहन करने की आज्ञा देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-ऐसी आज्ञा देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि सुख-दुःख देने वाले जो इन्द्रियों के विषयों के साथ संयोग है, वे क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसलिये उनमें वास्तविक सुख का लेश भी नहीं है। अतः तुम उनको सहन करो अर्थात् उनको अनित्य समझकर उनके आने-जाने में रागद्वेष और हर्ष-शोक मत करो। बन्धु-बान्धवों का संयेाग भी इसी में आता है। क्योंकि अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा ही अन्य विषयों की भाँति उनके साथ संयोग-वियोग होता है। अतः यहाँ सभी प्रकार संयोग-वियोग के परिणाम स्वरूप सुख-दुःखों की सहन करने के लिये भगवान् का कहना है-यह बात समझ लेनी चाहिये।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्शभ।
समदुःस्वसरवं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। 15।।
प्रश्न-यहाँ ‘हि’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘हि’ यहाँ हेतु के अर्थ में है। अभिप्राय यह है कि इन्द्रियों के साथ विषयों के संयोगों को किसलिये सहन करना चाहिये, यह बात इस श्लोक में बतलायी जाती है।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com