मेरी खिड़की के सम्मुख उसकी खिड़की है,
सूरज की पहली किरणों से जो खुलती है।
दिन भर की उर्जा पल में मुझको मिल जाती,
खिड़की से जब मुझको वो देखा करती है।
अब तो मैं भी राह निहारूं, कब आयेगी,
बारिश की बूंदें होंगीं, वह छत पर जायेगी।
भूल गया हूं खाना पीना, तन्हां राह निहारूं,
बिस्तर पर जल्दी जाता, ख्वाबों में आयेगी।
कभी कभी वह खिली धूप सी, खिड़की में आ जाती,
कभी चहकती चिड़िया जैसी, उसकी बातें सुन जाती।
घिरी घटा सी कभी दिखती, वह नीले नीले नभ में,
जब भीगे बालों को सुलझाती, मुझको वह दिख जाती।
कैसे उससे बात करूं, मैं अक्सर सोचा करता,
चाहत का इजहार करूं, मैं अक्सर सोचा करता।
व्याकुलता बढ़ती जाती थी, सोच सोच कर उसको,
कब कैसे हो प्रणय निवेदन, मैं अक्सर सोचा करता।
टूटी डाल कोई आंधी से, जैसे दूर चली गई,
मर्यादाओं में बंधी हुई, वैसे ही वह छली गई।
धड़कन को भूलूं कैसे, दिल को कैसे समझाऊं,
नागफनी उग आये मन में, जब से मेरी कली गई।
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