कर्तव्य में समभाव है कर्मयोग
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘इमाम्’ पद किस बुद्धि का वाचक है और अब तू इसको योग के विषय में सुन, इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-‘इमाम्’ पद भी उसी पूर्व श्लोक में वर्णित समभाव रूप बुद्धि का वाचक है। अतः उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वही समभाव कर्मयोग के साधन में किस प्रकार होता है, कर्मयोगी को किस प्रकार समभाव रखना चाहिये और उस समता का क्या फल है-ये सब बातें मैं अब अगले श्लोक में तुम्हें बतलाना आरंभ करता हूँ; अतएव तू उन्हें सुनने के लिये सावधान हो जा।
प्रश्न-यदि यही बात है तो इकतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक का प्रकरण किसलिये है?
उत्तर-वह प्रकरण अर्जुन को यह समझाने के लिये है कि तुम क्षत्रिय हो, युद्ध तुम्हारा स्वधर्म है, उसका त्याग तुम्हारे लिये सर्वथा अनुचित है और उसका करना सर्वथा लाभप्रद है और अड़तीसवें श्लोक में यह बात समझायी गयी है कि जब युद्ध करना ही है तो उसे ऐसी युक्ति से करना चाहिये जिससे वह बन्धन का हेतु न बन सके। इसीलिये ज्ञान योग और कर्मयोग-इन दोनों ही साधनों में समभाव से युक्त होना आवश्यक बतलाया गया है। और इस श्लोक में उस समभाव का दोनों प्रकार के साधनों के साथ देहली-दीपकन्याय से सम्बन्ध दिखलाया गया है।
प्रश्न-यहाँ ‘कर्मबन्धम्’ पद का क्या अर्थ है और उपर्युक्त समबुद्धि से उसका नाश कर देना क्या है?
उत्तर-जन्म-जन्मान्तर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों से यह जीव बंधा है तथा इस मनुष्य शरीर में पुनः अहंता, ममता, आसक्ति और कामना से नये-नये कर्म करके और भी अधिक जकड़ा जाता है। अतः यहाँ इस जीवात्मा को बार-बार नाना प्रकार की योनियों में जन्म-मृत्यु रूपी संसार चक्र में घुमाने के हेतु भूत जन्म-जन्मान्तर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों के संचित संस्कार समुदाय का वाचक ‘कर्मबन्धम्’ पद है। कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके तथा सिद्धि और असिद्धि में सम होकर यानी राग-द्वेष और हर्ष-शोक आदि विकारों से रहित होकर जो इस जन्म और जन्मान्तर में किये हुए तथा वर्तमान में किये जाने वाले समस्त कर्मों में फल उत्पन्न करने की शक्ति को नष्ट कर देना-उन कर्मों को भूने हुए बीज की भाँति कर देना है-यही समवुद्धि से कर्मबन्धन को सर्वथा नष्ट कर डालना है।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।40।।
प्रश्न-इस कर्मयोग में आरम्भ का नाश नहीं है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि यदि मनुष्य इस कर्मयोग के साधन का आरम्भ करके उसके पूर्ण होने के पहले बीच में ही त्याग कर दे तो जिस प्रकार किसी खेती करने वाले मनुष्य के खेत में बीज बोकर उसकी रक्षा न करने से या उसमें जल न सींचने से वे बीज नष्ट हो जाते हैं उस प्रकार इस कर्मयोग के आरम्भ का नाश नहीं होता, इसके संस्कार साधक के अन्तःकरण में स्थित हो जाते हैं और वे साधक को दूसरे जन्म में जबरदस्ती पुनः साधन में लगा देते हैं। इसका विनाश नहीं होता, इसीलिये भगवान् ने कर्मयोग को सत् कहा है।
प्रश्न-इसमें प्रत्यवाय यानी उल्टा फलरूप दोष भी नहीं है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि जहाँ कामनायुक्त कर्म होता है, वहीं उसके अच्छे-बुरे फल की सम्भावना होती है; इसमें कामना का सर्वथा अभाव है, इसीलिये इसमें प्रत्यवाय अर्थात् विपरीत फल भी नहीं होता। सकाम भाव से देव, पितृ, मनुष्य आदि की सेवा में किसी कारण वश त्रुटि हो जाने पर उनके रुष्ट होने से साधक का अनिष्ट भी हो सकता है; किनतु स्वार्थ रहित यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि कार्यों के पालन में त्रुटि रहने पर भी उसका विपरीत फलरूप अनिष्ट नहीं होता। अथवा जैसे रोग नाश के लिये सेवन की हुई औषधि अनुकूल न पड़ने से रोग का नाश करने वाली न होकर रोग को बढ़ाने वाली हो जाती है, उस प्रकार इस कर्मयोग के साधन का विपरीत परिणाम नहीं होता। अर्थात् यदि वह पूर्ण न होने के कारण इस जन्म में साधक को परम पद की प्राप्ति न करा सके तो भी उसके पालन करने वाले मनुष्य को न तो पूर्वकृत पापों के फलस्वरूप या इस जन्म में होने वाले आनुषांगिक हिंसादि के फल स्वरूप तिर्यक्योनि या नरकों का ही भोग करना पड़ता है और न अपने पूर्वकृत शुभ कर्मों के फलरूप इस लोक या परलोक के सुख भोग से वंचित ही रहना पड़ता है। वह पुरुष पुण्यवानों के उत्तम लोकांे को ही प्राप्त होता है और वहाँ बहुत काल तक निवास करके पुनः विशुद्ध श्रीमानोें के घर में जन्म लेता है अथवा योगी कुल में जन्म लेता है और पहले के अभ्यास से पुनः उस साधन में प्रवृत्त हो जाता है।
प्रश्न-‘प्रत्यवायो न विद्यते’ का अर्थ कर्मयोग में विघ्नबाधा-रुकावट नहीं आती, ऐसा ले लिया जाय तो क्या आपत्ति है?
उत्तर-पूर्वजन्म के पाप के कारण विषय भोगों का एवं प्रमादी, विषयी और नास्तिक पुरुषों का संग होने से साधन में विघ्न-बाधा-रुकावट तो आ सकती है; किन्तु निष्काम कर्म का परिणाम बुरा नहीं होता। इसलिये विपरीत फलरूप दोष नहीं होता, यही अर्थ लेना ठीक है।
प्रश्न-‘अस्य’ विशेषण के सहित ‘धर्मस्य’ पद यहाँ किसका वाचक है?
उत्तर-पूर्व श्लोक में ‘योग’ के नाम से जिसका वर्णन किया गया है, उसी कर्मयोग का वाचक है।
प्रश्न-कर्मयोग किसको कहते हैं? उत्तर-शास्त्र विहित उत्तम क्रिया का नाम ‘कर्म’ है और समभाव का नाम ‘योग’ है। अतः ममता-आसक्ति, काम-क्रोध और लोभ-मोह आदि से रहित होकर जो समतापूर्वक अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार शास्त्र विहित कर्तव्य-कर्मों का आचरण करना है, वही कर्मयोग है। इसी को समत्वयोग, बुद्धियोग, तदर्थ कर्म, मदर्थकर्म और मत्कर्म भी कहते हैं।
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