भविष्य बतायेगा कि नया सियासी गठबंधन कितना सार्थक होगा और बदलाव लाएगी
दिव्य रश्मि संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा की खबर |
बिहार को अभी सिर्फ मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री चला रहे हैं, वह भी एक पटना में और एक दिल्ली में रहकर। उप मुख्यमंत्री अन्य मंत्रियों के चयन के लिए भाग-दौर कर रहे हैं तो एक मुख्यमंत्री अपनी सफाई देने में लगे हैं।
उप मुख्यमंत्री का कहना है कि बिहार में बदलाव से गरीबों के चेहरे पर मुस्कान है, तो दूसरी तरफ महिलाओं में भय व्याप्त है, लड़कियों की आजादी पर लगाम का डर है, राह चलते बोलने-छेड़ने..... की आजादी है।
असुरक्षित उपमुख्यमंत्री को जेड प्लस की सुरक्षा दी जा रही है, इसके अतिरिक्त पर्सनल सिक्यूरिटी अफसर हर वक्त सुरक्षा में मौजूद रहने की व्यवस्था हो रही है। वहीं, सुरक्षित मुख्यमंत्री 2020 विधान सभा चुनाव के बाद सीएम नहीं बनना चाहते थे, वह कहते हैं कि हमारी पार्टी भाजपा को जीताने में लगी थी और वो लोग हमारी पार्टी के प्रत्याशियों को हराने में लगे थे। हमारी पार्टी के लोगों को उनके साथ रहने की इच्छा नहीं थी, की सफाई दे रहे हैं।
उपमुख्यमंत्री को डर भी सता रहा है कि विपक्ष मजबूती से आगे बढ़ने का कोशिश करेगा। देखा जाय तो जदयू का एनडीए का साथ छोड़कर राजद के साथ चला जाना सही मायने में 2020 में जनादेश के साथ विश्वासघात है।
2014 में लगे झटके के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को बिहार की कुर्सी सौंप दी थी लेकिन कुछ ही दिनों के बाद उनसे कुर्सी वापस छीन ली। 2015 में उन्होंने आरजेडी और कांग्रेस के साथ महागठबंधन के सीएम के चेहरे के तौर पर चुनाव लड़ा लेकिन दो वर्ष बाद ही उनका साथ छोड़ दिया। उसके बाद उन्होंने एनडीए के साथ आये और अब एनडीए भी छोड़ दिया। इनकी तो अपनी पार्टी में भी नहीं बनती है। अब देख लिया जाय तो जदयू और समता पार्टी में अपने साथियों में जॉर्ज फर्नाडिस, शरद यादव और अभी हाल ही में आरसीपी सिंह से नहीं बनी।
यहां तक की मुसलमानों के सामने भी उन्होंने खुद को उनके हितैषी बने रहने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। एनडीए में रहने के बाद भी नागरिकात संशोधन अधिनयम के खिलाफ सबसे बड़े विरोध का गवाह बने रहे।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तेजस्वी को दूसरी बार उपमुख्यमंत्री बनाने का जो फैसला लिया है, इससे पहले तेजस्वी एक सशक्त विपक्ष के नेता के रूप में प्रभाव छोड़ रहे थे और अपने पिता लालू प्रसाद के कट्टर प्रतिद्वंदी के नेतृत्व वाली सरकार को विधान सभा से लेकर सड़क तक चुनौती से सरकार को घेर रखा था। सरकार की नई गठबंधन से पहले इसी का परिणाम था कि राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी ने कांग्रेस और वाम दलों के साथ मिलकर केन्द्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध मार्च निकाला था और स्पष्ट संकेत दिया था कि राज्य में विपक्ष के पास संघर्ष की भूख अभी है।
विरोध की राजनीति ने राज्य का बंटाधार कर रखा है। राजनेताओं का यह दस्तूर हो गया है कि सत्ता हर हाल में बनी रहनी चाहिए, बेशक विरोधियों को ही गले क्यों न लगाना पड़े। एनडीए छोड़ने के बाद आंकड़ा पुरा करने के लिए कांग्रेस को भी सत्ता में शामिल कर लिया है। आज मतदाता इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम से अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है।
आलोचक यह सोचने पर मजबूर है कि तेजस्वी ने तात्कालिक लाभ के लिए उप मुख्यमंत्री बनना स्वीकार कर लिया है। जबकि अगर वे इंतजार करते तो उनकी विपक्ष की भूमिका को देखते हुए निश्चित ही अगली चुनाव में मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल जाती।
बिहार में नया सियासी गठबंधन कितना सार्थक होगा और कितना बदलाव लाएगी, यह भविष्य पर छोड़ देना ही उचित होगा। मौकापरस्ती और अवसरवादी की राजनीति राज्य के लिए अच्छा नहीं होता है यह सर्वविदित है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य में शराब बंदी को सफल नहीं बना सके, किसान त्राहिमाम है, युवक बेरोजगारी से बेहाल है, राज्य की लगभग सभी प्रमुख सड़को पर अतिक्रमण चरम पर है, विधि व्यवस्था की क्या कहना, ऐसा कोई विभाग नही दिखता जहां रिक्तिया न हो या अनुबंध पर लोग काम नहीं कर रहे हो। देखिए आगे-आगे होता है क्या?
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