सावन की इठलाती धूप
बिचड़े सब जार गयी।
बगुलापंखी बादल
झूठ मूठ मँड़राये
कभी कभी छाया - सी
दिखा - दिखा इतराये।
जाने कितने थारे रूप
आशा खुद हार गयी।
विश्वासों का छौना
उछला फिर बैठ गया,
श्रम का सारा यौवन
पंकिल-सा पैठ गया।
कजरी के खोये स्वरुप
बर्षा बहार गयी।
पेड़ों की शाखाएँ
मालकौश गारहीं,
खुलकर बोले कैसे
फत्तियाँ लजा रहीं।
प्रकृति की विडंबना अनूप
्बिपदाएँ झार गयी।
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