महान समन्वयकारी तुलसी।
मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"
लोकनायकों की गौरवमयी परम्परा में महामना तुलसी एक देदिप्यमान नक्षत्र हैं जिनकी शृंखला यदुकुल नंदन कृष्ण से अद्यावधि विद्यमान है।इतिहास द्रष्टव्य है जब जब भी विश्रृंखलता के कारण समाज की गति अवरुद्ध होती सड़ांध उत्पन्न करने लगती है तब तब किसी न किसी महापुरुष का आविर्भाव होता है जो समाज में व्याप्त विद्धवंशकारी तत्वों से उत्पन्न गतिरोधों का परिष्कार कर समाज को एकसूत्र में पिरोकर पारस्परिक सहयोग और एकत्व का भाव उत्पन्न करता है।
विभिन्न साहित्याचार्यों के मतानुसार "लोकनायक"की उपाधि से वही विभूषित हो सकता है जो समन्वय कर सके।विपरीत परिस्थितियों में भी जो समाज म़े एकत्व का भाव पैदा कर सके।भारतीय समाज विभिन्न विरोधिनी संस्कृतियों ,साधनाओं, जातियों,आचार,निष्ठा और विचार पद्धतियों में विभक्त है।कृष्ण,राम,बुद्ध सभी समन्वयकारी रहे हैं।रामायण, गीता,त्रिपिटक आदि ग्रंथों में भी सामाजिक समन्वय का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है।लोकनायक की संज्ञा ग्रहण करने का अधिकार उसे ही है जो मनोविज्ञान को भलीभाँति समझता हो।एक मनोवैज्ञानिक ही प्राचीनता का संस्कार कर उसके भीतर अपनी नवीन संकल्पनाओं का समावेश कर उसे ऐसा स्वरूप प्रदान करता है कि समाज का हर वर्ग उससे लाभान्वित हो।भौतिक शक्तिओं का आधार लेकर लोकशासक तो बना जा सकता है लोकनायक नहीं।शासक से लोकजनमानस भयभीत रहकर दूर भले ही हो सकता है किंतु जनप्रिय नहीं हो सकता।वह लोकनायक ही होता है जिसे जनता का अपार स्नेह मिलता है।वही लोकश्रद्धा का केंन्द्र भी बन पाता है।
गोस्वामी तुलसी महान लोकनायक कैसे ?इसे समझने के लिये हमें तुलसी युग में प्रवेश पाना होगा।तत्कालीन परिवेश पर नजर को टिकाना होगा।यह वह काल था जब भारत पूर्णतया मुगलिया सल्तनत के आगोश में कैद था।सनातन समाज की दशा विशृंखल हो चुकी थी।सारे उच्चादर्श मृतप्राय हो चुके थे।मुगल शासकों से घनिष्ठ सम्पर्क के कारण समाज का सम्भ्रांत वर्ग विलासी और निम्न एवं मध्यम वर्ग शोषित, अत्याचार ग्रस्त,कुंठित, आडम्बर एवं नैराश्य का शिकार हो चुका था।तुलसी से पूर्व कबीर के द्वारा सामाजिक समरसता का सफल प्रयास किया गया किंतु वह पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सका।आंशिक ही रहा।सूफी साहित्य ने भी कृष्णभक्ति के माध्यम से समाज को जोड़ने का एक सफल प्रयास किया किंतु असफलता ही हाँथ लगी।परिणामतः सनातन समाज को तत्कालीन भययुक्त वातावरण से बाहर निकल पाना मुश्किल लग रहा था।कृष्णभक्त हिंदुओं को ये शक्तिसंपन्न आदर्श देने में अक्षम रहे।फलतः तुलसी के राम ने इस भयभीत एवं मार्गभ्रष्ट जनमानस में शक्ति,शील,एवं सौंदर्य के समन्वित रूप का अवधान कर संबल प्रदान करने का कार्य किया।तुलसी के राम सर्वशक्तिमान, दीनप्रतिपालक एवं दयाभाव संपन्न हैं।आम जनमानस ने प्रफुल्लित हृदय से नमस्तक हो तुलसी को साभार स्वीकार किया।इसके भीतर का इंसान जाग गया।अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार का प्रतिरोध करने को अब यह तैयार हो गया।धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक हर प्रकार की दुर्नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करने को यह शक्तिसंपन्न हो गया।
जब जब होहिं धरम की हानी
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।
तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा
हरहिं सकल सज्जन भव पीरा।।
राम के इस आदर्श रूप ने जनमानस पर एक अमिट छाप छोड़ी।जनता को अपना एक सबल रक्षक मिल गया।मानस के पात्रों में लोगों ने अपने आपको समाहित कर लिया।
कतिपय विचारकों ने सनातन के प्रति तुलसी की अटूट आस्था को देखकर इन्हें इस्लाम विरोधी और हिन्दु धर्म के प्रबल समर्थक के रूप में प्रचारित किया।किंतु तुलसी की भावनाओं में गहन गोते लगाने से यह स्पष्ट होता है कि तुलसी ने हिन्दु धर्म की रक्षा की थी किंतु इस्लाम से नहीं।हिंदु धर्म को जितना खतरा इस्लाम से नहीं था उससे कहीं अधिक आंतरिक शत्रुओं से था।यही कारण है कि इन्होंने हिंदु धर्म को न केवल अकबर और इस्लाम से बचाया बल्कि हिंदु धर्म में व्याप्त मतमतान्तरों, आपसी द्वेष,कलह,अंधविश्वास
आदि दुष्प्रवृत्तियों से उबारने का कार्य किया।
समाज का हर वर्ग इनके इन सद्प्रयासों से लाभान्वित हुआ।अतेव स्पष्टतः महामना तुलसी विश्व के महान समन्वयकारकों में सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हैं।ये कल भी प्रासंगिक थे आज भी हैं भविष्य में भी रहेंगे।......।
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