अनन्त चतुर्दशी है क्या ?
कमलेश पुण्यार्क “गुरूजी”
आर्यावर्त की संस्कृति बड़ी अद्भुत है । बड़ी रहस्यमय । बिलकुल जीवन्त । बिलकुल वैज्ञानिक । आज जो हिन्दूधर्म के नाम से अभिहित है, वस्तुतः वो सनातन धर्म है। सनातन का एक गूढ़ अर्थ चिरयुवा भी होता है, इसे दूसरे शब्दों में -- कभी पुराना न होने वाला धर्म भी कह सकते हैं। क्यों कि यदि पुराना होगा, तो एक न एक दिन मर जायेगा। और सनातन कभी मरता नहीं।
“हिन्दूधर्म” नाम करण तो चन्द वर्षों का खेल है— विशुद्ध राजनैतिक खेल । मैं तो इसे अपमान समझता हूँ। मैं तो हिन्दुस्तान ही नहीं मानता, फिर हिन्दूधर्म की क्या बात करुँ !
किन्तु मेरे मानने न मानने से क्या फर्क पड़ना है दुनिया को? जिसे जो कहना-मानना है, कहेगा-मानेगा ही। मैं भारतवर्ष-भरतखण्ड-आर्यावर्त का वासी हूँ और सनातन धर्मी मानव हूँ । बस इतना ही परिचय क्या यथेष्ट नहीं है मेरे लिए?
फिर अनावश्यक पचरे में क्यों पड़ूँ ?
बात अभी चल रही है अनन्त चतुर्दशी की। आए दिन व्रत, त्योहार, उत्सव आदि को लेकर भ्रम पैदा होते रहते हैं। वैसे भी लोग इन तीनों में कोई फर्क ही नहीं जानते-समझते । इनके निर्णय का आधार है- प्रचलित पञ्चांग । पञ्चांगों की बाढ़ है बाजार में। किसी में गणितीय त्रुटि है, तो किसी में विवेकीय त्रुटि। किन्तु सभी पञ्चांग चल ही रहे हैं। जिसे जो भाता है खरीदता है। किन्तु आम आदमी जिसे पञ्चांग का ज्ञान नहीं है, वो तो इस महाजाल में पड़कर उलझ ही जाता है।
खैर, मैं इस महाजाल की गुत्थी सुलझाने नहीं बैठा हूँ अभी। इस पर कभी बाद में चर्चा हो सकती है। फिलहाल बात करता हूँ अनन्त चतुर्दशी की।
आम व्यक्ति करेगा क्या इस दिन—बाजार से जाकर रंगीन-खूबसूरत धागे का बना-बनाया अनन्त खरीद लायेगा। कुछ अक्षत, फूल, प्रसाद जुटा लेगा। किसी मन्दिर में जाकर जनसमूह का हिस्सा बन जायेगा और पन्द्रह मिनट से आध घंटे के अन्दर, उधर से प्रसन्न चित वापस आ जायेगा अपनी बाहों में पूजित अनन्तडोर को बाँध कर। वस हो गया अनन्त चुतर्दशी । और इतने के लिए ही मगजपच्ची कर रहा है—इससे-उससे पूछते फिर रहा है। स्वयं भी परेशान हो रहा है और दूसरे को भी परेशान कर रहा है।
हमारी संस्कृति में बहुत सी बहुत सी बातें हैं, जो आम व्यक्ति की समझ से परे है। वेद-पुराण-शास्त्रदि में बड़े ढंग से सजा कर सारी बातें, सारे सिद्धान्त, सारी वैज्ञानिकता रख दी गयी हैं। हमारे शास्त्रों के अभिव्यक्ति का ढंग भी बड़ा निराला है। सारी उपयोगी बातों को रीति-रिवाज और परम्परा में पिरोकर रख दिया गया है। अतः हमारे व्रत, त्योहार,उत्सव, रीति-रिवाज सब वैज्ञानिक हैं। हमारे यहाँ का आम व्यक्ति भी दर्शन और वेदान्त की दस बातें बोल देगा, तन्त्र, ज्योतिष, योग, वास्तु...हर विषय में कुछ न कुछ जानकारी रखता है एक शुद्ध भारतीय व्यक्ति ।
किन्तु विडम्बना ये है कि कालक्रम प्रभाव से इनका घालमेल होता जा रहा है। शास्त्रों में दिये गए सूत्र-संकेतों को हम “ डिकोड” करने में असमर्थ हो रहे हैं और अपनी अज्ञानता का दोषारोपण शास्त्रों पर ही कर दे रहे हैं।
मगध क्षेत्र में अनन्तपूजा के पश्चात् एक रोचक क्रिया प्रचलित है। पूजित अनन्तडोर को खीरे में लपेटकर,पंचामृत भरे कटोरे में धीरे-धीरे घोंटते हैं। इस बीच पंडित और यजमान के बीच अजीब प्रश्नोत्तर संवाद होता है — “क्षीर समुन्दर का ढूढित हऽ? अनन्त फल। पौऽल ? पइली। माथे चडावऽ। ” अदालती कठघरे में खड़े होकर धर्मग्रन्थों की शपथ लेने की तरह, हम इन शब्दों को बोल लेते हैं। फिर न पंडित जी को इससे कोई मतलब है और न यजमान को ही। बात वहीं की वहीं समाप्त हो जाती है।
काश हम इन शब्दों पर किंचित विचार किए होते, तो आज ये संशय ही न रहता कि पूजा कब करें, कब ना करें। क्यों कि अनन्तपूजा-व्रत का उद्देश्य और रहस्य ज्ञात हो जाता ।
विस्तृत रुप से विषय वस्तु को समझने के लिए तो पूरी पुस्तक भी कम पड़ेगी। दूसरी बात ये कि सबकुछ सीधे सोशलमीडिया का विषय भी नहीं है। अतः यहाँ संक्षेप में कुछ सांकेतिक चर्चा किए देता हूँ, जिसे आसानी से समझा जा सके। इस शब्द-विन्दु से आप यात्रा प्रारम्भ करेंगे, तो सम्भवतः आगे का कुछ रास्ता दीखने लगेगा। आप इस बात पर भी ध्यान देंगे कि अनन्तव्रत चातुर्मास्य व्रत के अन्तर्गत ही आता है और इसी में आगे शारदीय नवरात्र भी है और अन्त होगा देवोत्थान एकादशी से। ये सबके सब किसी गूढ़ साधना की कड़ियाँ हैं, जिसे हम विसार चुके हैं।
विविध तन्त्र-ग्रन्थों में चक्रसाधना की बात आती है। अनन्त चतुर्दशी उसी साधना का संकेत है। ऊपर कहे जा रहे अबूझ शब्दों में ही ये संकेत छिपा हुआ है। वस्तुतः गुरु अपने शिष्य को स्मरण दिला रहा है कि मायामय इस संसार समुद्र में मत भटको। अपने अन्तिम परिणाम को प्राप्त करने का प्रयत्न करो। क्योंकि तुम्हें मानव शरीर इसीलिए मिला है।
ध्यातव्य है कि हर बीज में वृक्ष बनने की सम्भावना छिपी हुयी है। यानी हर मनुष्य में परम लक्ष्य-प्राप्ति की व्यवस्था दी हुयी है परमात्मा द्वारा । हमें सद्गुरु के शरण में जाकर, उसका अभ्यास करना है।
अनन्तडोर में चौदह ग्रन्थियाँ होती हैं। हमारे शरीर में सातचक्र हैं, जिनके आरोह-अवरोह क्रम से चौदह की ही संख्या बनती है। क्षीरसमुद्र में ही तो भगवान विष्णु शेषशायी हैं । विष्णु क्या हैं—वो चार हाथ वाली पत्थर की प्रतिमा? शेष क्या है—शेषनाग, जिसपर विष्णु सोते हैं? अनन्त क्या है? अनन्त का स्वरुप क्या है?
इन सब बातों को ठीक से समझने की आवश्यकता है। पुराणकार इसे रोचक कथा शैली में कह दिए हैं। इन पर मनन-चिन्तन करने की आवश्यकता है। पश्चिमी चश्में से देखकर, खंडित करने की नहीं और न पत्थर पूजते-पूजते जीवन खपा देने की ।
सुदृढ़ मार्ग से वायु तत्व का नियमन करके, सुप्त कुलदेवी को जागृत करने की आवश्यकता है, फिर उसे आरोहित-अवरोहित करना है - आगे नियमित क्रम से, नियमित रुप से—इसी रहस्य का स्मरण है अनन्त पूजा। पुराना साधक मध्याह्नव्यापिनी चतुर्दशी को ग्रहण करेगा और नया साधक उदयव्यापिनी चतुर्दशी को। आम व्यक्ति इनमें किसी को ग्रहण करले, क्या फर्क पड़ना है। उसे तो सिर्फ धागा बाँध लेना है। पूआ-पूडी खा लेना है। अस्तु।
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