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समभाव से मोक्ष की पात्रता

समभाव से मोक्ष की पात्रता

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘पुरुषर्षभ’ सम्बोधन का क्या भाव है?

उत्तर-‘ऋषभ’ श्रेष्ठ का वाचक है। अतः पुरुषों में जो अधिक शूरवीर एवं बलवान् हो, उसे ‘पुरुषर्षभ’ नाम से सम्बोधित करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम बड़े शूरवीर हो, सहनशीलता तुम्हारा स्वाभाविक गुण है, अतः तुम सहज ही में इन सबको सहन कर सकते हो।

प्रश्न-‘धीरम्’ पद किस का वाचक है?

उत्तर-‘धीरम्’ पद अधिकांश में परमात्मा को प्राप्त पुरुष का ही वाचक होता है, पर कहीं-कहीं परमात्मा की प्राप्ति के पात्र को भी ‘धीर’ कह दिया जाता है। अतः यहाँ ‘धीरम्’ पर सांख्य योग के साधन में परिपक्व स्थिति पर पहुँचे हुए साधक का वाचक है।

प्रश्न-‘समदुः खसुखम्’ विश्लेषण का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने धीर पुरुष का लक्षण बतलाया है कि जिस पुरुष का लक्षण बतलाया है कि जिस पुरुष के लिये सुख और दुःख सम हो गये हैं, उन्हें अनित्य समझकर जिसकी उन द्वन्द्वों में भेदबुद्धि नहीं रही है, वही ‘धीर’ है और वही इनको सहन करने में समर्थ है।

प्रश्न-‘एते’ पद किन का वाचक है और ‘न व्यथयन्ति’ का क्या भाव है?

उत्तर-विषयों के साथ इन्द्रियों के जो संयोग हैं, जिनके लिये पूर्व श्लोक में ‘मात्रा स्पर्शाः’ पद का प्रयोग किया गया है, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘एते’ पद है। और ‘न व्यथयन्ति’ से यह भाव दिखलाया है कि विषयों के संयोग-वियोग में राग-द्वेष और हर्ष-शोक न करने का अभ्यास करते-करते जब साधक की ऐसी स्थिति हो जाती है कि किसी भी इन्द्रिय का किसी भी भोग के साथ संयोग किसी प्रकार उसे व्याकुल नहीं कर सकता, उसमें किसी तरह का विकार उत्पन्न नहीं कर सकता तब यह समझना चाहिये कि वह ‘वीर’ और सुख-दुःख में समभाव वाला हो गया है।

प्रश्न-‘यह मोक्ष के योग्य होता है’ इसका क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि उपर्युक्त समभाव वाला पुरुष मोक्ष का-परमात्मा की प्राप्ति का पात्र बन जाता है और उसे शीघ्र ही अपरोक्ष भाव से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।। 16।।

प्रश्न-‘असतः’ पद यहाँ किस का वाचक है और ‘उसकी सत्ता नहीं है’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘असतः‘ पद यहाँ परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रिय और इन्द्रियों के विषयों सहित समस्त जडवर्ग का वाचक है। और ‘उसकी सत्ता यानी भाव नहीं है’ इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वह जिस काल में प्रतीत होता है, उसके पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा; एजएव जिस समय प्रतीत होता है, उस समय भी वास्तव में नहीं है। इसलिये यदि तुम भीष्मादि स्व्जनों के शरीरों के या अन्य किसी जड़ वस्तु के नाश की आशंका से शोक करते हो तो तुम्हारा यह शोक करना अनुचित है।

प्रश्न-‘सतः’ पद यहाँ किसका वाचक है और ‘उसका अभाव नहीं है’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘सतः’ पद यहाँ परमात्मतत्त्व का वाचक है, जो सर्वव्यापी है, और नित्य है। ‘उसका अभाव नहीं है’ और नित्य है। ‘उसका अभाव हनीं है’ इस कथन से यह भाव दिखालाया गया है कि उसका कभी किसी भी निमित्त से परिवर्तन या अभाव नहीं होता। वह सदा एकरस, अखण्ड और निर्विचार रहता है। इसलिये यदि तुम आत्मरूप से भीष्मादि के नाश की आशंका करके शोक करते हो, तो भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है।

प्रश्न-‘अनयोः’ विशेषण के सहित ‘उभयोः‘ पद किनका वाचक है और तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों द्वारा उनका तत्त्व देखा जाना क्या है?

उत्तर-‘अनयोः‘ विशेषण के सहित ‘उभयोः’ पद उपर्युक्त ‘असत्‘ और ‘सत्’ दोनों का वाचक है तथा तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों द्वारा उन दोनों का विवेचन करके जो यह निश्चय कर लेना है कि जिस वस्तु का परिवर्तन और नाश होता है, जो सदा नहीं रहती, वह असत् है-अर्थात् असत् वस्तु का विद्यमान रहना सम्भव नहीं और जिसका परिवर्तन और नाश किसी भी अवस्था में किसी भी निमित्त से नहीं होता, जो सदा विद्यमान रहती है, वह सत् है-अर्थात् सत् का कभी अभाव होता ही नहीं-यही तत्त्वदर्शी पुरुषों द्वारा उन दोनों का तत्त्व देखा जाना है।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चिवत्कर्तुमर्हति ।। 17।।

प्रश्न-‘‘सर्वम्’ के सहित ‘इदम’ पद यहाँ किसका वाचक है और वह किसके द्वारा व्याप्त है तथा जिससे व्याप्त है, उसे अविनाशी कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-शरीर, इन्द्रिय, मन, भोगों की सामग्री और भोग-स्थान आदि समस्त जडवर्ग का वाचक यहाँ ‘सर्वम्’ के सहित ‘इदम्’ पद है। यह सम्पूर्ण जडवर्ग चेतन परमात्मतत्त्व से व्याप्त है। उस परमात्मतत्त्व को अविनाशी कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि पूर्व श्लोक से जिस ‘सत्’ तत्त्व का मैंने लक्षण किया है तथा तत्त्व-ज्ञानियों ने जिस तत्त्व को ‘सत्’ निश्चित किया है, वह परमात्मा ही अविनाशी नाम से कहा गया है।

प्रश्न-इस अविनाशी का विनाश करने में कोइ्र भी समर्थ नहीं है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि आकाश से बादल के सदृश इस परमात्मतत्त्व के द्वारा अन्य सब जडवर्ग व्याप्त होने के कारण उनमें से कोई भी इस परमात्मतत्त्व का नाश नहीं कर सकता; अतएव सदा-सर्वदा विद्यमान रहने वाला होने से यही एकमात्र ‘सत्’ तत्त्व है।
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