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शुभ कार्य से श्रीवृद्धि तक नारियल

अन्तरराष्ट्रीय नारियल दिवस (2 सितम्बर) पर विशेष

शुभ कार्य से श्रीवृद्धि तक नारियल

(पं. आर.एस. द्विवेदी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

हमारा कोई कार्य सिद्ध हो जाता है अथवा हम किसी कार्य की अपेक्षा करते हैं तो मंदिर में नारियल फोड़ते हैं। शुभ कार्य के साथ हमारे दैनिक जीवन में भी नारियल बहुत उपयोगी है। भारत समेत कई देशों में नारियल की खेती होती है। हमारे देश में सबसे ज्यादा नारियल केरल, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में पैदा होता है। इसके एक पेड़ से प्रति माह चार हजार रुपये तक की कमाई की जा सकती है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में नारियल का योगदान लगभग 2200 करोड़ है। इसके फल से लेकर रेशे तक का विविध उद्योगों में उपयोग किया जाता है। इसीलिए कच्चे माल के तौर पर इसका उत्पादन बढ़ाने के लिए विश्व नारियल दिवस 2 सितम्बर को मनाया जाता है। इसी दिन एशियाई प्रशांत नारियल समुदाय का गठन हुआ था।

हर साल सम्पूर्ण विश्व में 02 सितंबर विश्व नारियल दिवस के रूप में मनाया जाता है।विश्व नारियल दिवस मनाने का उद्देश्य नारियल को उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप उपयोग किए जाने को प्रोत्साहन देना और इसके उपयोग के प्रति जागरूकता फैलाना है। नारियल का वैज्ञानिक नाम कोकस न्यूसिफेरा है और यह पाम फैमिली से संबंध रखता है। दुनिया के मुख्य नारियल उत्पादक देश फेडरेटेड स्टेट्स ऑफ माइक्रोनेशिया, फिजी, भारत, इंडोनेशिया, किरिबाटी, मलेशिया, मार्शल आइलैंड, पपुआ न्यू गिनीया, फिलीपिंस, समोआ, सोलोमन आइलैंड, श्रीलंका, थाइलैंड, टोंगा, वनोतु, विएतनाम, जमैका और केनिया हैं। सबसे ज्यादा नारियल उत्पादन इंडोनेशिया, फिलीपींस, भारत, ब्राजील और श्री लंका में होता है।

भारत नारियल उत्पादन और उत्पादकता में अग्रणी है और दुनिया के प्रमुख नारियल उत्पादक देशों के बीच नारियल के क्षेत्र में तीसरे स्थान पर काबिज है. वार्षिक नारियल उत्पादन 20.82 लाख हेक्टेयर से 2395 करोड़ है और उत्पादकता 11505 नारियल हेक्टेयर है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में नारियल का योगदान लगभग 2,200 करोड़ रुपये है। वाल्मीकि रामायण में नारियल का वर्णन किया गया है। आराध्य फल होने के साथ-साथ दैनिक जीवन में भी नारियल का एक अहम स्थान है। इस तरह नारियल के सांस्कृतिक महत्व के साथ-साथ इसका आर्थिक महत्व भी है। नारियल से भारत के छोटे किसानों का जीवन जुड़ा हुआ है। इस वृक्ष का कोई ऐसा अंग नहीं है जो उपयोगी न हो। नारियल का फल पेय, खाद्य एवं तेल के लिए उपयोगी है। फल का छिलका विभिन्न औद्योगिक कार्यो में उपयोगी है तथा पत्ते एवं लकड़ी भी सदुपयोगी हैं। इन्हीं उपयोगिताओं के कारण नारियल को कल्पवृक्ष कहा जाता है।

भारत वर्ष में नारियल की खेती एवं उद्योग के समेकित विकास के लिए भारत सरकार ने 1981 में नारियल विकास बोर्ड का गठन किया। इसका मुख्यालय केरल के कोच्ची शहर में है और इसके 3 क्षेत्रीय कार्यालय पटना (बिहार) स्थित क्षेत्रीय कार्यालय के नियंत्रणाधीन 5 राज्य स्तरीय केंद्र हैं जो उड़ीसा के भुवनेश्वर, पश्चिम बंगाल के कोलकाता, मध्य प्रदेश के कोंडेगाँव, असम के गुवाहटी तथा त्रिपुरा के अगरतला में स्थित है। राज्य स्तरीय केन्द्रों के अतिरिक्त 4 प्रदर्शन-सह-बीज उत्पादन प्रक्षेत्र, सिंहेश्वर (बिहार), कोंडेगाँव (मध्य प्रदेश), अभयपुरी (असम), बेलबारी (त्रिपुरा) भी पटना क्षेत्रीय कार्यालय के तकनीकी मार्गदर्शन में कार्यरत हैं। यहाँ से नारियल सम्बन्धी तकनीकी जानकारी किसानों को उपलब्ध कराई जाती है।

नारियल के पौधों की अच्छी वृद्धि एवं फलन के लिए उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु आवश्यक है, लेकिन जिन क्षेत्रों में निम्नतम तापमान 100 सेंटीग्रेड से कम तथा अधिकतम तापमान 400 सेंटीग्रेट से अधिक लम्बी अवधि तक नहीं रहता हो उन क्षेत्रों में भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसके लिए वर्ष भर समानुपातिक रूप से वितरित वर्षा लाभदायक है। समानुपातिक वर्षा के अभाव में सिंचाई की आवश्यकता होती है।

नारियल की सफल खेती के लिए अच्छी जलधारण एवं जलनिकास क्षमता वाली मिट्टी जिसका पी.एच.मान 5.2 से 8.8 तक हो उपयुक्त होती है। केवाल/ काली एवं पथरीली मिट्टियों के अलावा ऐसी सभी प्रकार की मिट्टियाँ जिनमें निचली सतह में चट्टान न हो नारियल की खेती के लिए उपयुक्त हैं, लेकिन बलुई/दोमट मिट्टी सर्वोतम पायी गई है।

नारियल की किस्मों को दो वर्गो में बांटा गया है जो लम्बी एवं बौनी किस्म के नाम से जानी जाती है। इन दोनों किस्मों के संस्करण से जो किस्में बनाई गई है वे संकर किस्म के नाम से जानी जाती है। गैर-परम्परागत क्षेत्रों के सिंचित क्षेत्रों हेतु ऊँची एवं संकर किस्में अनुशंसित हैं, जबकि पर्याप्त सिंचाई-सुविधाएँ न होने पर केवल ऊँची किस्मों का उपयोग लाभप्रद है। बौनी किस्में गैर-परम्परागत क्षेत्रों की जलवायु के लिए उपयुक्त नहीं पायी गई है। फिर भी विशेष देखरेख में बौनी किस्मों की खेती भी संभव है। लम्बी किस्मों की उपजातियों में पश्चिम तटीय लम्बी प्रजाति, पूर्व तटीय लम्बी प्रजाति, तिप्तुर लम्बी प्रजाति, अंडमान लम्बी प्रजाति, अंडमान जायंट एवं लक्षद्वीप साधारण प्रमुख हैं। बौनी किस्मों की उपजातियों में चावक्काड ऑरेंज बौनी प्रजाति एवं चावक्काड हरी बौनी प्रजाति प्रचलित हैं। संकर किस्मों की उपजातियों में मुख्य हैं लक्षगंगा, केरागंगा एवं आनंद गंगा। नारियल खेती की सफलता रोपण सामग्री, अपनाई गई विधि एवं इसकी वैज्ञानिक देखभाल पर निर्भर करती है। गुणवत्तामूलक पौधों का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि बिचड़े की उम्र 9-18 माह के बीच हो तथा उनमें कम से कम 5-7 हरे भरे पत्ते हों। बिचड़ों के गर्दनी भाग का घेरा 10-12 सें.मी. हो तथा पौधे रोगग्रस्त न हों। चयनित जगह पर अप्रैल-मई माह में 7.5 Û 7.5 मीटर (25 Û 25 फीट) की दूरी पर 1 Û 1 Û 1 मीटर आकार के गड्ढे बनाए जाते हैं। प्रथम वर्षा होने तक गड्ढा खुला रखा जाता है जिसे 30 किलो गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट एवं सतही मिट्टी को मिलाकर इस तरह भर दिया जाता है कि ऊपर से 20 सें.मी. गड्ढा खाली रहे। शेष बची हुई मिट्टी से पौधा लगाने के बाद गड्ढे के चारों ओर मेढ बना दिया जाता है ताकि गड्ढे में वर्षा का पानी इकट्ठा न हो। नारियल लगाने का उपयुक्त समय जून से सितम्बर तक के महीने हैं, लेकिन जहाँ सिंचाई की व्यवस्था हो वहाँ जाड़े तथा भारी वर्षा का समय छोड़कर कभी भी पौधा लगाया जा सकता है। उपरोक्त विधि से तैयार किये गये गड्ढे के ठीक बीचों-बीच खुरपी या हाथ से नारियल फल के आकार का गड्ढा बनाकर पौधों को रखकर चारों ओर से मिट्टी से भर दिया जाता है तथा मिट्टी को पैर से अच्छी तरह से दबा दिया जाता है। यदि लगाने का समय वर्षाकाल न हो तो पौधा लगाने के उपरांत सिंचाई आवश्यक होती है। गड्ढों में नारियल बिचड़ों का रोपण करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि बिचड़ों के ग्रीवा स्थल से 2 इंच व्यास के बीजनट अंश को मिट्टी से नहीं ढका जाय, अन्यथा बिचड़ों में श्वसन क्रिया ठीक से नहीं होने के कारण उसकी वृद्धि पर कुप्रभाव पड़ सकता है।
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